भारतीय अर्थव्यवस्था पर आर्थिक सुधारों का प्रभाव

 

राजेश अग्रवाल

सहायक प्राध्यापक, गुरूकुल महिला महाविद्यालय, रायपुर छत्तीसगढ़

 

जुलाई 1991 में नरसिंम्हा राव सरकार के तत्कालीन वित्त मंत्री जी श्री मनमोहन सिंह के प्रयासों से भारत में आर्थिक सुधारों के अन्तर्गत वैश्वीकरण, उदारीकरण एवं निजीकरण की नीति लागू हुए जिसके परिणामस्वरूप भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर में अशातीत वृद्धि हुई। वैश्विक मंदी की अवधि में भी भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर प्रभावशाली रही। वर्ष 2007-08 में भारतीय अर्थव्यवस्था 9.3 प्रतिशत विकास दर 2008-09 में 6.7 प्रतिशत वर्ष 2009-10 में  8.4 प्रतिशत, वर्ष 2010-11 में 8.4 प्रतिशत तथा वर्ष 2011-12 में 6.9 प्रतिशत संवृद्धि दर प्राप्त करने में भारतीय अर्थव्यवस्था सफल रही है उपरोक्त लगातार महत्वपूर्ण विकास दर के लक्ष्यों को प्राप्त करने के बाद भी भारतीय अर्थव्यवस्था आज भी संकट के दौर से गुजर रही है तथा विभिन्न वैश्विक संगठन और अर्थशास्त्री भारत को आर्थिक सुधारों के मार्ग पर लौटने का सुझाव दे रहे है।

 

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष ने भारत की विकास दर को वापस पटरी पर लाने तथा विकास दर के पूर्व लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए ढाँचागत सुधारों के सुझाव दिये है। इन सुधारों में अधोसंरचना का विकास, वित्तीय समेकन तथा महँगाई पर नियंत्रण शामिल है। आई.एम.एफ. के अनुसार अनुकूल व्यापक आर्थिक नीतियों तथा भारतीय अर्थव्यवस्था का परंपरागत आर्थिक ढाँचा ने भारतीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक मंदी से निपटने के लिए सक्षम बनाया है इसके बाद भी वर्तमान में भारत के आर्थिक विकास दर में गिरावट का दौर जारी है अतः भारतीय परंपरागत आर्थिक ढाँचे को नकारात्मक विकास दर के लिए जिम्मेदार ठहराना उचित नहीं है। भारतीय आर्थिक विकास दर को पुनः गति देने के लिए ढाँचागत सुधारों से अधिक महत्वपूर्ण वित्तीय समेकन है। वित्तीय समेकन के लिए महँगाई दर में नियंत्रण सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।

 

विकास के अनिश्चितता की दशा में महँगाई दरों में नियंत्रण के लिए नीतिगत दरों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। महँगाई दरों में नियंत्रण ही निवेशकों को आकर्षित एवं स्थायी बना सकता है। विशेषज्ञों ने भारतीय रिर्जव बैंक को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया है कि यदि महँगाई दोबारा बढ़नी शुरू होती है तो उसे नीतिगत दरों में वृद्धि करने के लिए तैयार रहना चाहिए और यदि महँगाई दर में गिरावट होती है तो वह कटौती पर विचार कर सकती है। निजी निवेश बढ़ाने के लिए वित्तीय समेकन आवश्यक है। साथ ही सामाजिक व्ययों को युक्ति युक्त किये जाने की भी सिफारिश की गयी। ईधन तथा उर्वरक सब्सिडी को युक्ति संगत बनाने तथा सार्वजनिक व्ययों के प्रबंधन पर सुधार करने पर जोर दिया गया।

 

भारतीय उद्योग परिसंघ ने देश में विकास दर की गति बढ़ाने के लिए आर्थिक सुधारों को तेजी से लागू करने की सिफारिश किया है इससे देश में विकास और निवेश की गति बढ़ेगी तथा देश की छवि में सुधार होगा। देश की अर्थव्यवस्था वर्तमान में मंदी के दौर से गुजर रही है अर्थव्यवस्था की वर्तमान स्थिति को देखते हुए आर्थिक संकट से पूर्व की विकास दर 9 प्रतिशत प्राप्त कर पाना संभव नहीं है, इसके लिए केन्द्र तथा राज्य के स्तर पर संरचनात्मक सुधार की आवश्यकता होगी।

 

उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू होने के पश्चात् देश ने विकास की नवीन उॅचाइयों को छुआ है तथा भारतीय अर्थव्यवस्था की गिनती वैश्विक अर्थव्यवस्था में उभरती हुई शक्तिशाली अर्थव्यवस्था के रूप में हो रही है। वर्ष 1991 में जहाँ देश में विदेशी मुद्रा का भण्डार 1 अरब डाॅलर भी नहीं था वह बढ़कर वर्तमान में लगभग 300 डाॅलर हो गया है। दुर्बलसरकार की नीतियों के कारण देश के आर्थिक विकास की गति धीमी पड़ गयी है किन्तु सरकार द्वारा विकास की गति बढ़ाने के लिए सुदृढ़ दीर्घकालिक नीतियाँ अपनाने के लिए इच्छा शक्ति का अभाव प्रतीत हो रहा है।

 

वर्ष 2012-13 में अर्थव्यवस्था की आर्थिक विकास दर 5.5-6 प्रतिशत के स्तर पर रहा है वृद्धि विकास दर का दर स्तर विकसित राष्ट्रों से तो अधिक है किन्तु भारत जैसे विकासशील देश के लिए उचित नहीं है विकास दर के इस स्तर के आधार पर देश के जनसाधारण के जीवन स्तर को ऊपर उठाने की महत्वपूर्ण चुनौती है। भारतीय अर्थव्यवस्था की वित्तीय स्थिति घरेलु तथा विदेशी दोनों ही स्थिति पर कमजोर है। सफल घरेलु उत्पाद के सापेक्ष राजकोषीय घाटा तथा भुगतान संतुलन के चालू खाते का घाटा दोनों में वृद्धि हुई है। कमजोर अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति, दुसित अधोसंरचना, भ्रष्टाचार तथा राजनैतिक स्थितियों के कारण आर्थिक क्षेत्र के वृद्धि में अनेक बाधाएँ आ रही है। सम्पूर्ण देश के आर्थिक स्थिति के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि पिछले कुछ वर्षो में देश का राजकोषीय घाटा जीडीपी का 9-10 प्रतिशत है जिसका प्रमुख कारण सरकार द्वारा प्रदत्त सब्सिडी को माना जा रहा है। वर्तमान में सरकार सब्सिडी पर जीडीपी का  9 प्रतिशत व्यय करती है। मार्च 2012 में भारत का राजकोषीय घाटा 5.9 प्रतिशत रहा यह सरकार द्वारा निर्धारित लक्ष्य 4.6 प्रतिशत से अधिक है भारत की घटती हुई विकास दर भारत के घाटा सहने की क्षमता को प्रभावित कर रही है। भारत सरकार का कर्ज भी उसकी जीडीपी के 70 प्रतिशत के बराबर पहँच गया है।

 

भारतीय रिर्जव बैंक द्वारा जारी किये गये जुलाई - सितम्बर 2012 के त्रैमासी रिपोर्ट में चालु रखने का घाटा 5.4ः (22.3 बिलियन डाॅलर) था जो रिकार्ड स्तर पर है। व्यापार के मामले में भारत की कमजोरी का असर रूपये की स्थिति पर पड़ रहा है तथा भारतीय कम्पन्यिों के लिए भी स्थितियाँ कठिन बनती जा रही है। इस समय भारत के पास लगभग 300 अरब डाॅलर का विदेशी मुद्रा भण्डार है लेकिन इस वर्ष भारत को जितना विदेशी कर्ज चुकाना है वह इस राशि का लगभग 40-45 प्रतिशत है।

 

भारत में आर्थिक वृद्धि दर कम होने का कारण यहाँ अधोसंरचना में कमी है। देश में बिजली, सड़क और यातायात जैसी मूलभूत सुविधाओं की कमी है जिससे देश की आर्थिक गतिविधियाँ प्रभावित हो रही है।

 

गत दो वर्षो में यूरोप के कर्ज संकट तथा अमेरीकी अर्थव्यवस्था की धीमी गति का नकारात्मक असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ा हैं अमेरीकी अर्थव्यवस्था की धीमी गति के कारण भारतीय निर्यात में कमी आई तथा विदेशी निवेश पर भी विपरीत प्रभाव पड़ा तथा घरेलु अर्थव्यवस्था में दूसरे दौर के सुधारों को गति न दे पाने के कारण विकास पर अत्यन्त विपरीत प्रभाव पडा है। वित वर्ष 2010-11 में उभरती हुई अर्थव्यवस्था वाले देशों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का प्रभाव बेहतर होने के बाद भी भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन उत्साहजनक नहीं रहा इसके बाद भी भारतीय अर्थव्यवस्था का वैश्विक स्थिति पर प्रदर्शन प्रभावशाली रहा है जो भारतीय अर्थव्यवस्था की सुदृढ़ता को प्रदर्शित करता है।

 

उदार आर्थिक नीतियों तथा अर्थव्यवस्था की मजबूती के कारण 2006-07 से 2011-12 भी अवधि में प्रयत्न विदेशी निवेश में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है वैश्विक आर्थिक मंदी की अवधि में भी देश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का प्रवाह संतोषजनक रहा है इसके बाद भी वैश्विक परिदृश्य में भारतीय अर्थव्यवस्था की विपरीत स्थिति की व्याख्या तथा कारणों को खोज पाना कठिन है। वर्ष 2008 में वित्तीय संकट तक भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में उल्लेखनीय वृद्धि हुई जिसका प्रमुख कारण भारतीय घरेलु अर्थव्यवस्था का मजबूत होना था जिसका कारण वैश्विक परिदृश्य में भारत उभरते हुए आकर्षक बाजार के रूप में पहचाना जाने लगा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में उत्तरोत्तर वृद्धि के बाद भी भारतीय अर्थव्यवस्था की नकारात्मक प्रवृत्तियों का विस्तृत अध्ययन कर इसके कारणों को जानना आवश्यक है।

 

आर्थिक उदारीकरण तथा वैश्वीकरण के समर्थकों के दावों का विभिन्न देशों के अनेक शोधकत्र्ताओं ने परीक्षण किया है। वैश्वीकरण की कड़ी आलोचना अर्थशास्त्र में 2001 में नोबल पुरूस्कार विजेता तथा विश्व बैंक के प्रमुख अर्थशास्त्री जोजेफ स्टिग्लिटज ने अपनी पुस्तक ‘‘वैश्वीकरण और उनकी निराशाएँ’’ ;ळसवइंसप्रंजपवद ंदक पजे क्पेबवदजमदजेद्ध में प्रस्तुत किया। वैश्वीकरण के सामाजिक आयाम पर विश्व आयोग ;ॅवतसक ब्वउउपेेपवदद्ध ने भी विश्व भर में वैश्वीकरण के अनुभव पर विचार किया है और अनेक चैकने वाले तथ्य प्रस्तुत किये है। विश्व आयोग ने स्पष्ट किया ‘‘वैश्वीकरण का मौजूदा मार्ग बदलना होगा। इससे बहुत कम लोगों को लाभ होता है’’। वैश्वीकरण या नयी आर्थिक नीति के माध्यम से सामाजिक कल्याण तथा समानता के लक्ष्यों को प्राप्त कर पाना संभव नहीं है यही कारण है कि भारतीय अर्थव्यवस्था वृद्धिगत तो दिखलाई पड़ती है किन्तु वास्तविक स्तर पर यह दिखलाई नहीं पड़ती आवश्यक है कि नई आर्थिक नीतियों को लागू किये जाने के पूर्व उचित नियोजन तथा मूल्याँकन किया जाना आवश्यक है अन्यथा ये नवीन आर्थिक नीतियाँ भारतीय अर्थव्यवस्था के अनुकूल नहीं होगी।

 

संदर्भ गं्रथ

1.            भारतीय अर्थव्यवस्था - रूद्रदत्त एवं के.पी.एम. सुन्दरम्

2.            विकास का अर्थशास्त्र एवं नियोजन - डाॅ. रामरतन शर्मा

3.            अर्थव्यवस्था अवलोकन (बजट स्पेशल)

4.            भारतीय अर्थव्यवस्था - धनकर प्रकाशन

5.            प्रतियोगिता दर्पण - जुलाई 2013

6.            दैनिक भास्कर, नवभारत, पत्रिका

 

 

Received on 06.11.2013       Modified on 01.12.2013

Accepted on 07.12.2013      © A&V Publication all right reserved

Int. J. Rev. & Res. Social Sci. 1(2): Oct. - Dec. 2013; Page 39-40