वैदिक कालीन विज्ञान

 

नितेश कुमार मिश्रा

सहायक प्राध्यापाक, प्रा. भा. इति. सं. एवं पुरा. अध्ययन शाला, पं. रविशंकर शुक्ल वि. वि. रायपुर (छ.ग.)

 वैदिक काल उस काल को कहा जाता है जिस काल में वेदों की रचना हुई। सामान्य रूप से वैदिक काल का समय 1500-600 ठण्ब्ण् माना जाता है। वेदों की संख्या चार है ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद, वेद मूलतः धार्मिक ग्रंथ है परन्तु उनसे अन्य सूचनाएं भी प्राप्त होती है। वेदों से उस काल के विज्ञान सम्बन्धित सूचनाएं भी प्राप्त हाती हैं जो इस प्रकार है-

 

कृषि:-

भारत एक कृषि प्रधान दे है प्राचीन काल से ही यहां पर अनेकों प्रकार की कृषि की जाती थी। ऋग्वेद में उल्लिखित है कि जंगलांे को साफ करके खेती करनी चाहिए। हल का प्रयोग इस देश में आदि काल से ही होता आ रहा है हलों को दो से लेकर बारह बैल तक खींचते थे जिससे गहरी जोताई की जाती थी। खेती की अनेक विधियों के विषय में, वेदों से सूचनाएं प्राप्त होती है वे लोग जोताई, बुआई, निराई, सिचाई तथा कटाई और अन्त में मढ़ाई करते थे। हल के विभिन्न भागों का भी उल्लेख वैदिक संहिताओं में मिलता है।

 

चारों वेदों से गेंहूं, जौ, उरद, मूंग आदि अनाजों के विषय में सूचना मिलती है। ऋग्वेद के अंतिम मण्डल में धान का भी उल्लेख हुआ है। ऋग्वेद तथा दूसरे संहिताओं में कृषि उपकरणों का भी उल्लेख मिलता है, जैसे- द्रोण, अश्मचक्र, सूप, चलनी, सिल-लोढ़ा आदि।

 

 

बुनाई तथा कताईः-

कताई तथा बुनाई इस देश की प्राचीन परम्परा है इससे सम्बन्धित सूचना सिंधु सभ्यता के मोहनजादड़ो, इनामगांव आदि पुरा स्थलों से प्राप्त होती है। ऋग्वेद में कताई-बुनाई का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में तन्तु, तन्तुश्व तथा तन्तु मा तनवे शब्द का उल्लेख मिलता है जिसका अर्थ धागा होता है। ऋग्वेद में दाम या दामन शब्द का भी उल्लेख है जिसका अर्थ ऐंठा हुआ धागा होता है। धागे से बुनाई की जाती थी बुनाई अधिकांशतः स्त्रियां करती थीं। बुनाई के लिये तकुआ का प्रयोग किया जाता था। यन्त्र शब्द का प्रयोग बाद के वैदिक ग्रंथों में मिलता है जिसकी पहचान मशीन से की जाती है। ऋग्वेद में कपास का उल्लेख नहीं मिलता सेमल का उल्लेख मिलता है प्रायः ऊन से बुनाई की जाती थी। रेशम या छौम का उल्लेख मिलता है।

 

धातु तथा खनिज:-

ऋग्वेद में ‘‘अयस‘‘ शब्द मिलता है जिसकी पहचान बहुत विवादास्पद है कुछ विद्वानों के अनुसार अयस धातु के लिये प्रयोग किया गया है। कुछ विद्वानों के अनुसार अयस का अर्थ तांबा है। इसके अलावा सोना, चांदी, रिपु आदि धातुओं का भी वर्णन प्राप्त होता है।

 

लोहार का उल्लेख बाद की संहिताओं में मिलता है, सीसा का उल्लेख ऋग्वेद में नहीं प्राप्त होता है, किन्तु अथर्ववेद में शीशे के छर्रे का उल्लेख हुआ है।

 

ध्वनिः-

भारत में प्राचीन काल से ही युद्ध में धनुष का प्रयोग किया जाता था जब धनुष से बाण को छोड़ दिया जाता था तब धनुष की प्रत्यंचा से छन-छनाहट उत्पन्न होती थी संभवतः इसी से प्रेरित होकर भारत में सितार का विकास हुआ। वैदिक संहिताओं में तीन प्रकार के संगीत वाद्य यंत्रों का उल्लेख मिलता है

 

1. मुंह से फूंक कर बजाने वाले यंत्र

2. हाथ से पीटकर बजाने वाले     

3. तार यत्र।

 

सामवेद मुख्य रूप से संगीत का गंथ है इसमें सात स्वरों का उल्लेख मिलता है। आरोह-अवरोह का भी उल्लेख वैदिक गं्रथों में मिलता है। युद्ध के समय अनेकों प्रकार के संगीत यंत्रों का प्रयोग किया जाता था जिसका उद्देश्य सैनिकों में उत्साह भरना था।

 

अंक ज्ञान:-

पुरातात्विक प्रमाणों से अंकों का इतिहास लगभग 4000 ठब् निश्चित किया जा सकता है। इस प्रकार के प्रमाण पं. एशिया में बेबीलोन के सुमेर तथा इजिप्ट से प्राप्त हुये हैं। भारत में अंकों का प्रमाण मोहनजोदड़ो से सर्व प्रथम प्राप्त किया गया जिसकी तिथि 2500 ठब् के लगभग है।

 

वैदिक गं्रथों जैसे-ऋग्वेद में अनेकों प्रकार के अंकों का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में 1 से 10,000 तक के अंकों का उल्लेख है। ऋग्वेद में शून्य का उल्लेख नहीं मिलता किन्तु ‘‘‘‘ शब्द का उल्लेख अनेकों बार हुआ है। ‘‘‘‘ का प्रयोग संभवतः शून्य या आकाश के लिये किया गया है।

 

ऋतु या संवत्सर:-

वैदिक ऋचाओं में सूर्य, पृथ्वी चंद्र, नक्षत्र, ग्रह आदि का उल्लेख मिलता है। इसमें यह भी कहा गया है कि लगभग 5 वर्षों में सूर्य तथा चंद्र वर्षों में समांजस्य स्थापित किया जा सकता है। यह विशेषता भारतीय पांचांग में ही मिलती है। चंद्रमा की गति से ‘‘अहोरात्रि‘‘ अर्द्धमास तथा महीना के बारे में सूचना मिलती है। सूर्य की गति से हमें ऋतुओं तथा वर्ष के विषय में ज्ञान प्राप्त होता है।

              

ऋग्वेद में कहा गया है कि समय चक्र या पहिया है जिसमें 12 तीलियां हैं यह तीलियां कभी कमजोर नहीं पड़ती है। इस पहिये को सात अश्च खींच रहे हैं और इन सात अश्वों की पहचान 7 त्ंले से की जाती है।

 

मानव अस्थियों सम्बन्धित सूचना:-

अथर्वेद में मानव शरीर की हड्डियों का उल्लेख मिलता है। अथर्वेद में कहा गया है कि मानव शरीर एक प्रकार का अग्निकुण्ड है जिस प्रकार से अग्निकुण्ड के निर्माण में 306 ईंटों की आवश्यकता हाती है उसी प्रकार मानव के शरीर में 306 हड्डियां होती है। शतपथ ब्राह्मण में भी 306 हड्डियों का उल्लेख मिलता है।

 

कण्वन:-

कण्वन का ज्ञान वैदिक कालीन लोगों को था अनेकों प्रकार से शराब बनाने का उल्लेख वैदिक गं्रथों में मिलता है। दूध को दही में परिवर्तित करने का उल्लेख मिलता है। अथर्वेद में ईख का वर्णन है इससे कण्वन विधि से सिरका बनाने का उल्लेख मिलता है।

औषधि:-

ऋग्वेद के दशवें मण्डल में औषधि सूक्त है जिसमें अनेकों प्रकार की दवाओं का उल्लेख विस्तार से किया गया है। ऐसी मान्यता है कि इन औषधियों की उत्पत्ति देवताओं से हुई है। ऋग्वेद में 700 औषधियों का उल्लेख है जो 107 स्थानों से प्राप्त होती हैं। सोम का उल्लेख ऋग्वेद में कई बार मिलता है। ऋग्वेद में कहा गया है कि औषधियों के प्रयोग से रोगी व्यक्ति स्वस्थ हो जाता है। ऐसा कहा गया है कि वैद्य के लिये औषधि उसी प्रकार महत्वपूर्ण है जिस प्रकार राजा के लिये समिति की आवश्यकता है। ऋग्वेद में फलवाली, बिना फल वाली, फूल वाली तथा बिना फूल वाले पौधों के बारे में उल्लेख है। कुछ विद्वानों का विचार है कि भारतीय औषधीय पौधे यहां से असीरिया, सुमेर तथा बेबीलोन आदि देशों में भी गये।

 

अथर्वेद मंे भी बहुत संख्या में औषधीय वनस्पतियों का उल्लेख है। इन बनस्पतियों के विभिन्न भागों का प्रयोग औषधि के रूप में किया जाता था। खल तथा मूसल का प्रयोग बनस्पतियों को कूचन के लिये किया जाता था तथा इससे रस निकालने के लिये इन्हें कपड़े या चलनी से छाना जाता था। इसमें वर्णन है कि घाव लाक्षा नामक पौधे के रस को लगाने से ठीक हो जाता है।

 

जन्तु विज्ञान:-

जन्तु विज्ञान से सम्बन्धित सूचना ऋग्वेद में मिलती है। इसमें जन्तु के स्वभाव तथा उसके निवास स्थान का उल्लेख है। इन्हीं के आधार पर जन्तुओं के वर्गीकरण का प्रयास किया गया है। अथर्वेद में अनेकों प्रकार के कृमियों का उल्लेख है इसके अतिरिक्त सांप तथा उसके विष के प्रभाव का भी वर्णन है। विष से राहत पाने के लिये अनेकों प्रकार के बनस्पतियों तथा मंत्रों के प्रयोग का उल्लेख मिलता है। अथर्वेद में 16 प्रकार की विषैली कृमियों का उल्लेख मिलता है, जो मनुष्य के शरीर, पहाड़ तथा जंगल में रहती है। इन्हीं के द्वारा मनुष्यों तथा जानवरों में रोग फैलता है। इसके अतिरिक्त अथर्वेद में कीड़े, मकोड़े, बिच्छू, मकड़ी, मत्स्य, पक्षी एवं स्तनधारी जन्तुओं का उल्लेख मिलता है। कोयल के बारे में कहा गया है कि यह अपना अण्डा दूसरे पक्षी के घोंसले में देती है।

 

ऋग्वेद में पशुआंे को दो भागों ग्राम्य (पालतू) तथा आरण्य (जंगली) में बांटा गया है। अथर्वेद में स्तनधारी पशुओं को जगत तथा स्वापद वर्गों में बांटा गया है। पालतू पशओं अर्थात् जगत को पुनः दो वर्गों में बांटा गया है।

1.            एक खुर वाला।

2.            दो खुर वाला।

 

इस प्रकार हम देखते हैं कि वैदिक ग्रंथों में धार्मिक बातों के अलावा भी अन्य महत्वपूर्ण सूचनाएं प्राप्त होती हैं, जो समकालीन परिवेश के विषय में वर्तमान अध्येताओं का ज्ञान वर्द्धन करती है।

 

संदर्भ सूची

1.            मुले गुणाकर, भारतीय विज्ञान की कहानी, दिल्ली, 1973, पृ. 49-53

2.            शर्मा आचार्य प्रियवत, आयुर्वेद का वैज्ञानिक इतिहास, वाराणसी, 1975, पृ. 16-23

3.            सेन समरेन्द्र नाथ- विज्ञान का इतिहास, भाग-2, पटना, 1984, पृ. 23-26

4.            पंत रजनीकांत, प्राचीन सभ्यताओं में विज्ञान एवं तकनीक, जयपुर 2003, पृ. 222-225

 

 

Received on 26.02.2014          Modified on 10.03.2014

Accepted on 24.03.2014         © A&V Publication all right reserved

Int. J. Rev. & Res. Social Sci. 2(1): Jan. – Mar. 2014; Page 31-33