छत्तीसगढ़ में जल संसाधन संरक्षण एवं प्रबंधन

Water Resource Conservation and Management in the Chhattishgarh

 

के. एस. गुरूपंच1, नागेश्वर प्रसाद साहू2

1प्राचार्य, एम. जे. महाविद्यालय भिलाई (..)

2छात्राध्यापक, एम. जे. महाविद्यालय भिलाई (..)

 

प्रस्तावनाः

छत्तीसगढ़ में जल संसाधन विकास की असीम सम्भावनाएँ हैं। यहाँ की वार्षिक वर्षा का औसत देश की वार्षिक वर्षा से अधिक है, लेकिन पर्याप्त संरक्षरण नहीं होेने से इनके नियोजन एवं प्रबंधन में समस्याएँ आयी है। अतः इनके उचित प्रबंधन, वैकल्पिक एवं लाभकारी उपयोग को ध्यान में रखते हुए जल संसाधन संरक्षरण, नियोजन एवं प्रबंधन की अत्यंत आवश्यकता है। इन्हीं उद्देश्यों को लेकर शोध पत्र प्रस्तुत है। प्रकृति प्राप्त समस्त जैव-अजैव तत्व जिन्हें मानव अपनी बुघ्दि, श्रम व तकनिकी ज्ञान द्वारा अपनी आवश्यकता के अनुरूप परिष्कृत व संशोधित कर उसे अधिक उपयोगी बना लेता है, संसाधन कहलाते हैं। अर्थात् कोई भी वस्तु या उसका गुण जो मानव के लिए उपयोगी हो, संसाधन कहलाता हैं। 

 

स्ंासाधनों के घटते भंडार, कुछ संसाधनों की सदा के लिए समाप्ति, कुछ संसाधनों का प्रदुषण और कुछ के प्रति चेतना के अभाव के कारण भविष्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर संसाधन संरक्षण, परिरक्षण और संवर्धन की प्रक्रिया प्रारंभ की गयी है। सामाजिक वानिकी, वन्य जीव अभ्यारण्य, बाघ परियोजना आदि इसी के परिणाम हैं । जल संसाधन का प्रबंध और पदूषण नियंत्रण, मृदा संरक्षण, जनसंख्या नियंत्रण आदि संसाधन संरक्षण के कार्यक्रम हैं। ऊर्जा के पारम्परिक स्त्रोतों को बचाकर नये स्त्रोतों का विकास भी इसी का अभिन्न प्रयोग हैं।

 

यदि सौर ऊर्जा, बायो गैस और बिजली का प्रचुर विकास हो जाए तो कोयला, तेल और गैस के अवशेष भण्डारों को अगली सदी तक प्रयोग किया जा सकता है। अतः संसाधन उपयोग से अधिक महत्वपूर्ण पक्ष संसाधन संरक्षण हो गया है। सतत् उपयोग वाले ऊर्जा स्त्रोतों से प्रदूषण का खतरा भी कम है। यही कारण है, कि संसाधनों के उपयोग की संहिता बनायी जा रही है। कुुछ देश कानून बनाकर संसाधन उपयोग और संरक्षण का वैधानिक आधार विकसित कर रहे हैं। भारत एवं छत्तीसगढ़ में वन विनाश को रोकने के लिए अनेक कानूनी व्यवस्थाएँ की गयी है। जैविक विविधता के संरक्षण के लिए अनेक स्तरों पर प्रयास जारी है। अभ्यारण्यों की श्रृंखला इसका प्रमाण है।

 

अध्ययन क्षेत्रः-

छत्तीसगढ़ राज्य, मध्यप्रदेश राज्य के दक्षिण-पूर्व में 17043 उत्तरी अक्षांश से 2405 उत्तरी अक्षंाश तथा 80015 पूर्वी देशंातर से 80020 पूर्वी देशंातर रेखाओं के मध्य स्थित है। इसका कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 135194 वर्ग किलोमीटर हैै। इसकी उत्तर-दक्षिण लम्बाई 360 कि.मी. तथा पूर्व-पश्चिम चैड़ाई 140 कि.मी. है। इस राज्य के उत्तर में उत्तरप्रदेश, उत्तरी-पूर्वी सीमा में झारखण्ड, दक्षिण-पूर्वी में उड़ीसा राज्य स्थित है। दक्षिण में आंध्रप्रदेश, दक्षिण-पश्चिम में महाराष्ट्र तथा उत्तरी-पश्चिमी भाग में मध्यप्रदेश राज्य स्थित है। इस राज्य में 3 संभागों के 16 जिले सम्मिलित हंै। इनमें बिलासपुर, कोरबा, जांजगिर-चांपा, जशपुर, रायगढ़, कोरिया, सरगुजा, रायपुर, महासमुंद, धमतरी, दुर्ग, कबीरधाम, राजनांदगांव, बस्तर, कांकेर तथा दंतेवाड़ा सम्मिलित है। यह भारत के कुल क्षेत्रफल का 4.11: है। छत्तीसगढ़ का क्षेत्रफल पंजाब, हरियाणा एवं केरल इन तीनो राज्यों के क्षेत्रफल के योग से अधिक है। छत्तीसगढ़ की जनसंख्या 2,07,95,956 (2001) व्यक्ति है। जो देश की कुल जनसंख्या का 2.02:  हैं। ग्रामीण जनसंख्या 79.92: है। जनसंख्या का सघन सकेन्द्रण महानदी तथा उसकी सहायक नदीयों के उपजाऊ तथा मैदानी भागों में केन्द्रित है।

 

अध्ययन के उदद्ेश्यः-

प्रस्तुत शोध पत्र का उद्देश्य छत्तीसगढ़ के जल संसाधन का प्रबंधन एवं संरक्षण प्रस्तुत करना है। इसके अन्तर्गत्

(1) जल संसाधन के स्त्रोतों का आकलन कर मूल्यांकन एवं विकास करना।

(2) जल संसाधन व सिंचाई सिंचित क्षेत्रफल, वृहद परियोजनाएँ।

(3) जलाशयों से प्रस्तावित सिंचाई रकबा का आकलन करना।

 

जल, पृथ्वी पर पाये जाने वाले जैवमण्डल का प्रमुख आधार है। जल के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती और उसके विकास की प्राथमिकता जल है। आबादी का दबाव और पर्यावरण का असंतुलन का सबसे अधिक प्रभाव जल संसाधन पर पड़ा है और छत्तीसगढ़ राज्य भी इससे अछूता नहीं है। मानव शरीर का 80 प्रतिशत भाग जल द्वारा निर्मित है। इसीलिए जल ही जीवन है, कहा जाता है।

 

पृथ्वी पर जल का वितरण विश्वव्यापी है तथा इसकी विपुल राशि पृथ्वी पर विद्यमान है। यह सर्वमान्य तथ्य ह,ै कि पृथ्वी के 71ः  भाग  पर जल का विस्तार है । सुदूर संवेदन तकनीक द्वारा प्राप्त उपग्रह चित्रों में नीले तथा हरे फोटो चित्रों के आधार पर अनुमान है, कि पृथ्वी पर 1.4 विलियन घन कि.मी. जल है, जिसका 96.5:  या 1.31 विलियन घन कि.मी. केवल महासागरों में केन्द्रित है। महाद्विपों पर कुल जल का केवल 3.5:  या 4.79 करोड़ घन कि.मी. जल ही है। इसमें ध्रुवीय या पर्वतीय हिम-आवरण जो भूपृष्ठ के 3.18ः  भाग को घेरे हुए है। एक अनुमान के अनुसार भूपृष्ठ पर विद्यमान समस्त जल राशि को यदि भूमि पर समतल फैला दिया जाए, तो उसके ऊपर सर्वत्र 3.50 कि.मी. (दो मील) गहरा समुद्र लहराने लगेगा।

 

जल संसाधन के स्त्रोत:-

पृथ्वी पर जल संसाधन के मुख्य स्त्रोत वर्षा एवं हिम अधारित नदी, झील, कुएं, जलाशय एवं समुद्र आदि हैं। इनसे भूमि के अन्दर जल रिस-रिस कर भूमिगत होता रहता है। अनुमान है कि वर्षा जल का 11.6 भाग धरातल पर प्रवाहित होता है तथा 88.4   भाग नदियों द्वारा समुद्र में चला जाता है। इस आधार पर जल स्त्रोतों को 3 भागों में विभक्त किया गया है:-

1. धरातलीय जल

2. भूमिगत जल

3. सागरीय जल

 

धरातलीय व भूमिगत जल वर्षा पर आधारित होता है। जिन क्षेत्रों में वर्षा कम होती है वहां इसका अभाव देखा जाता है, जबकि अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में जल निरर्थक प्रवाहित होता है। जल मानव निवास का आधार है। नदी, झील, तालाब, पोखर, फियोर्डतट, दलदल, नहर आदि सतही जल के उदाहरण हैं। मनुष्य जल का प्रयोग अपनी घरेलु आवश्कताओं के अतिरिक्त उद्योग, नौकायन, सिंचाई, मल विसर्जन, जल शक्ति आदि के लिए करता है। नदियों की इसमें प्रमुख भूमिका होती है। नदियां भू-सतह को समतल करती है। नदियों का जल अनेक कार्याें में प्रयुक्त होता है। जल की उपलब्धता एवं शुध्दता पारिस्थितिकी गुणवत्ता का प्रमाण माना जाता है। छ.. में कुछ झरनों के जल में औषधीय गुण देखने को मिले हैं जैसे उनसे चर्मरोग, उदर विकार जैसी बिमारियों में लाभ मिलता है। अपनी गुणवत्ता के कारण गंगा जल भारतीय संस्कृति में पूज्य माना गया है। नौकायन एवं मत्स्योत्पादन की सुविधा ने भी मनुष्य को सतही जल की ओर आकर्षित किया है। नदी के किनारे प्राकृतिक वनस्पति का पोषण होता है।

 

स्ंासार का अधिकांश जल अकाशी होता है, वर्षा का जल 50 भाग वाष्पीकरण से संबंधित है। वर्षा का एक तिहाई भाग सतही जल के रूप में बहता है तथा 15 भाग भूमि के द्वारा सोख लिया जाता है। यह सोखा हुआ जल शैल सांतरों में जमा हो जाता है। सोखा हुआ जल सतही जल का निर्माण करता है। भूमिगत जल की सतह स्थान-स्थान पर अलग-अलग होती है। धरातलीय जल को भौगोलिक विश्लेषण के लिए 6 वर्गों में बाँटा गया है-1. अनतर्धरातलीय जल, 2. भू-गर्भीय जल, 3. धरातलीय झरनें, 4. पाताल फोड़ जल, 5. गर्म और खनिज जल एवं 6. भूमि पर प्रवाहित जल।

 

इस प्रकार प्रवाहित जल ही जीवन है, चाहे वनस्पति हो या पशु या स्वयं मनुष्य, जल पारिस्र्थतिकी ऊर्जा का प्रमुख स्त्रोत भी होता है। जल यातायात का प्रमुख साधन भी है।

 

जल संसाधन का उपयोग:-

प्राकृतिक संसाधनों में जल एक ऐसा आधारभूत संसाधन है, जिसके बिना भू-तल पर जीवन की कल्पना ही असंभव है। मानव जल संसाधन का उपयोग अनेक कार्यों से करता है। धरातलीय जल नदियों, झीलों तथा तलाबों में संचित होता है जो मुख्यतः सिंचाई, जल विद्युत उत्पादन, मतस्य पालन, परिवहन, उद्योग, पेय तथा मनोरंजन के लिए उपयोग किया जाता है। भूमिगत जल का उपयोग मुख्य रूप से पेय, सिंचाई और औद्योगिक कार्यों में किया जाता है। सामुद्रिक जल का उपयोग सीमित कार्यों के लिए ही प्रयुक्त होता है। नवीन खोजों से समुद्र जल के विविध उपयोग बढ़ने की संभावना है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि समुद्र से भविष्य में कोबाल्ट, ताँबा, ब्रोमाइड, मैग्नीशियम, आयोडीन की प्राप्ति हो सकेगी।

 

1. जल का प्राथमिक या घरेलू उपयोग- पीने, खाना पकाने, कपड़ा धोने, नहाने व घरों की सफाई करने में।

2. जल का द्वितीयक उपयोग- कल-कारखानों में, वाष्प निर्माण, रासायनिक घोल तैयार करने, वातानुकूलन, अवशीतलन व बर्फ निर्माण में।

3. सिंचाई में जल का उपयोग- कृषि क्षेत्र में उपयोग।

4. औद्योगिक अपशिष्टों व सीवर के बहाव में जल का उपयोग।

5. मतस्य पालन में जल का उपयोग।

6. जल विद्युत उत्पादन में जल का उपयोग।

7. डेयरी पशुओं के संवर्धन में जल का उपयोग- पक्षियों तथा वन्य जन्तुओं के संवर्धन के लिए प्रयोग।

8. नौ-परिवहन में जल का उपयोग-यातायात व्यापार में।

9. परमाणु ईंधन को शान्त करने में जल का उपयोग- परमाणु शक्ति के विकास में प्रयोग।

10. क्रीड़ा, परिवहन व मनोरंजनात्मक कार्यों में जल का उपयोग- नौका विहार, तैराकी, वाटर पोलो, एंगलिंग, याचिंग महत्वपूर्ण है।

 

संरक्षण समस्याएँ:-

घरेलू तथा औद्योगिक उद्देश्यों के जल को प्रभावित करने वाली दो मुख्य संरक्षण समस्याएं है- 1. जल प्राप्ति की मात्रा तथा 2. जल के गुण। जल संरक्षण की सभी बातें इन दशाओं पर निर्भर करती है जैसे- शहरों में जहाँ घरेलू उद्देश्यों के लिए भूमिगत तथा बहता हुआ जल जनसंख्या के एक विशाल भाग को प्राप्य होता है तथा प्रति व्यक्ति उपभोग में भी बढ़ोत्तरी हो रही है। नगरीयकरण के साथ-साथ औद्योगिक उद्देश्यों के लिए जल का उपयोग बहुत बढ़ा है। इसी प्रकार नगरों में जनसंख्या की लगातार वृध्दि ने शहरों में अपशिष्ट एवं मल पदार्थों के निकास की समस्या को जटिल बना दिया है। इसके साथ ही औद्योगीकरण ही नहीं बल्कि क्षरण, बाढ़, वन विनाश तथा कम होता हुआ जल स्तर भी पूर्ण जल संरक्षण समस्याओं में सहयोग देने वाले तथ्य है।

 

घटता हुआ जल स्तर:-

नगरों तथा कस्बों के समक्ष संरक्षण समस्याओं में से एक समस्या जल के गिरते सतर की भी है। यह समस्या भूमिगत जल पर निर्भर करती है जो कि पूर्ति का स्त्रोत है। विशेषकर शुष्क क्षेत्रों में जहां अनेक कुएं सिंचाई तथा घरेलू उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भूमिगत जल उपयोगी बनाते है उनके अधिक संख्या में खोदे जाने के कारण जल स्तर कई फुट नींचे गिर जाता है। कुएं के पास में यदि कोई अन्य कुआं  भूमिगत जल के निचले स्तर तक खोदा जाए तो जल स्तर बड़ी मात्रा में कम हो जाएगा और जिनमें जल समीपवर्ती क्षेत्रों से धीरे-धीरे छन-छन कर आता है। अतः यह आवश्यक है कि जो शहर या कस्बे पूर्ण रूपेण कुओं के जल पर निर्भर है उनमें प्रचुर मात्रा में जल को प्राप्त करने के लिए अधिक स्थान छोड़ते हुए कुओं की श्रृंखला खोदी जानी चाहिए।

 

जल की भावी अपर्याप्तता के लिए उपाय:-

1. सिंचाई के लिए जल का उपयोग बहुत प्रभावकारी है - अ. भूमि की अधिक सिंचाई को कम करना।  

     . खुले गड्ढों को पक्के गड्ढों में उपस्थापन।

     . रिसाव को कम करने के लिए चूना तथा सीमेन्ट            युक्त पक्की नहर बनाना।

2.   नए वनों का लगाना तथा भूमि जिस पर से वन काट लिए गए हैं पर पुनः वन लगाना, घास आवरण को सुरक्षित रखना, बहुत से अपवाहित दलदलों तथा झीलों को सुरक्षित रखना तथा बहते हुए जल को कम करने तथा शोषण शक्ति बढ़ाने के क्रम में तालाबों तथा जलाशयों का बनाना जिसके द्वारा जल स्तर ऊँचा उठ सके।

3. सभी चालू कुंओं को ढंकना, पंपिंग के दरों को कम करना, अनावश्यक कुओं को बन्द करना तथा पताल तोड़ बेसिनों को पुनः भरना।

4. छोटे तथा बड़े जलाशय बनाना तथा आवश्यकता को देखते हुए जल मार्ग निकालना।

5. आवश्यकतानुसार नौगमन योग्य नहरें बनाना तथा नदियों को नहरीकृत करना।

6. अनेक छोटी-छोटी व्यर्थ इकाइयों के लिए बड़े शक्ति संसाधनों का उपस्थापन।

 

बाढ़ नियंत्रण के उपाय:-

1. जल विभाजकों पर पुनः वन लगाना।

2. जलाशयों का निर्माण करना।

3. हटते हुए बेसिन का कायम रखना।

4. झील, दलदल तथा नम भूमिया जहां भी है उन्हें सुरक्षित रखना।

5. छोटी नदि, नदियों या समुद्री किनारे के जल की संकुचित धाराओं के प्रयोग को रोकना।

6. नदी मार्गों, बाढ़ वाले रास्तों पर पुलों का निर्माण करना।

7. बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में इमारतों तथा पुलों का निर्माण करना।

8. मिट्टी के कटाव को नियंत्रित करके सिल्ट के भार को कम करना।

 

संरक्षण की प्रवृत्तियाँ:-

जल संरक्षण की समस्या एक नहीं है। यह समस्या अन्य प्राकृतिक संसाधनों के स्वतंत्र रूप से संरक्षण द्वारा हल की जा सकती है। जल के रिसाव की जांच जल की प्रति व्यक्ति मात्रा निश्चित करते तथा मूल्य को बढ़ा करके विभिन्न उपायों द्वारा जल के उपयोग को सीमित करना संभव है।

 

जल का आयतन स्तर हमेशा ही उस मात्रा पर निर्भर करेगा जो कि वृष्टि के रूप में गिरता है जबकि धरातलीय तथा भूमिगत जल की प्राप्ति पृथ्वी के धरातलीय पदार्थों की प्रकृति पर निर्भर करती है। प्रचुर मात्रा में वन तथा घास का आवरण बढ़ते हुए जल बाढ़ो तथा क्षरण को कम करेगा तथा भूमिगत जल के स्तर को ऊँचा उठाएगा। वाष्पीकरण, भूमिगत एवं धरातलीय जल की मात्रा का संतुलन पर्याप्त पुनः वृक्षारोपण तथा भूमि संरक्षण कार्यक्रम द्वारा किया जा सकता है।

 

अवशिष्ट तथा औद्योगिक कूड़े-कचरे को इस प्रकार से हटाना चाहिए जिससे कि वह जलपूर्ति साधनों से न मिलने पाए। इनसे संरक्षण कार्यक्रम में प्रदूषण की समस्या का हल निकल सकता है। इसके अतिरिक्त नदियों, जल धाराओं तथा झीलों जिनसे जल की पूर्ति की जाती है, उनकी सफाई है। तथा जल के पूर्ति के साधनों को स्वच्छता से ढंककर रखा जाए। यह बातें घरेलू तथा औद्योगिक उद्देश्यों के लिए जल के संरक्षण के महत्वपूर्ण अंग है।

 

छत्तीसगढ़ की प्रमुख नदी महानदी है जिसे ’’ छत्तीसगढ़ की जीवन रेखा ’’ कहा जाता है। यह 55 भाग में प्रवाहित है और 8550 वर्ग किमी. क्षेत्र में विस्तृत है। इनकी सहायक नदियां शिवनाथ, हसदो, सोन, बोराई, माण्ड, खारून, ईब, पैरी, केलो, जोंक, लावा तथा शंखी है।

 

3. अन्य प्रमुख परियोजनाएं एवं जलग्रहण क्षेत्र (मी.3)

1.   पैरी (सिकासार) परियोजना

2.   रविशंकर सागर परियोजना- 3670

3.   बोधघाट बहुद्देशीय

4.   जोक व्यापर्तन

5.   कोडार

6.   तांदुला

7.   खोमसरा व्यापर्तन योजना

8.   किंकारी सिंचाई नाला

9.   सोन्दूर नाला योजना - 513

10.  मोगरा नाला योजना

11.  घोघा परियोजना

12.  मुरूमसिल्ली परियोजना- 484

13.  दुधावा - 621

 

नियोजन का उद्देश्य मानव समाज को इस प्रकार व्यवस्थित करना है जो परिवर्तित सामाजिक, प्राविधिक परिस्थिति के अनुकूल समाज के सदस्यों का सर्वाधिक हित साधन के उपाय प्रस्तुत कर सके। नियोजन का लक्ष्य कार्यात्मक रूप से समाकलित प्रदेशों का सर्वांगीण विकास करना है, जिससे क्षेत्र की समृध्दि के साथ ही राष्ट्र भी समृध्द हो सके। क्षेत्र में संतुलित आर्थिक एवं सामाजिक उन्नयन हेतु उपलब्ध संसाधनों के संदर्भ में नियोजन अपरिहार्य है।

 

विभिन्न संसाधनों के उपयोग से संबंधित विविध प्रकार की समस्याओं के निवारण हेतु समन्वित नियोजन की आवश्यकता है, जिसके अन्तर्गत कृषि, जिवीय, ऊर्जा एवं मानव संसाधनों का नियोजन तथा अर्थव्यवस्था एवं सामाजिक सुविधाओं के नियोजन को सम्मिलित किया गया है जिसके द्वारा पारिस्थितिकी संतुलन को व्यवस्थित होने में सहायता प्राप्त होगी।

 

संसाधन प्रबंधन की आवश्यकता:-

1. क्षेत्र के संसाधनों एवं निवासियों को एक दूसरे से जोड़कर परियोजनाओं का मूल्यांकन करना।

2. संसाधन विकास को परिस्थितिकी एवं प्रादेशिक विकास के साथ विश्लेषण करना।

3. सुपर तकनीकी युग में भी संसाधनों की कमी को अनुभव करना।

 

4. संसाधन का अत्यािधक दोहन, प्रभाव-विश्लेषण का अभाव।

5. गरीबी और संसाधन।

 

इन कारणों से संसाधन-विकास और पर्यावरणीय प्रबंधन में तालमेल की तीव्र आवश्यकता है।

 

संसाधनों के विकासजनित समस्याओं के निदान:-

1. संसाधनों के विकास की प्रक्रिया में स्थानीय आवश्यकताओं, संभावनाओं और स्थानीय लोगों पर समुचित ध्यान दिया जाये।

2. संसाधनों के विकास का परियोजना बनाते समय विभिन्न विकल्पों पर विचार किया जाये जिनमें सामाजिक मूल्यों का स्थान हो।

3. क्षेत्रीय विकास के लिए संसाधन का प्रबंधन हो । इसके लिए स्थानांन्तरण विधि की तुलना में रूपान्तरण उपागम अधिक उपयुक्त है।

 

जल का पर्यावरणीय महत्व:-

जल का अत्यधिक शोषण, जल प्रदूषण, पानी का दुरूपयोग, पेयजल संकट, सतही सिकुड़ते जल स्त्रोत, भू-जल स्तर में गिरावट आदि के कारण मरूस्थली भूमि का विस्तार (मरूस्थलीकरण), सिंचाई के अभाव में फसल प्रारूप में परिवर्तन होने से विभिन्न पर्यावरणीय समस्यायें जन्म ले रहीं हैं। वन भूमि के अभाव, भूमण्डलीकरण, ऊष्मीकरण(विश्व तपन) जैसी पर्यावरणीय समस्यायें खड़ी हो गई हैं। क्षेत्र की असन्तुलित वर्षा के कारण बाढ़, सूखा, भूक्षरण जैसी पर्यावरणीय समस्यायें उत्पन्न हो गई हैं। जल तापमान को सन्तुलित रखकर जीवन के उद्भव और विकास को परिपोषित करता है। समस्त पारिस्थितिक तंत्र का आधार है। जीवन का संवहक है।

 

जल का पर्यावरणीय प्रबंधन:-

1. जल संरक्षण नीति बनाना और इसे पूरी तरह से लागू करना।

2. जल प्रबंधन के लिये व्यापक आधार पर आंकड़े एकत्रित करना तथा उनके विश्लेषण की क्षमता विकसित करना।

3. विकास योजनाओं को प्रारंभ करने से पहले पर्यावरण पर उसके प्रभाव का आकलन करना।

4. विषैले और खतरनाक अपशिष्ट पदार्थों को जमा करने, भण्डारण व निपटान में पूरी सुरक्षा बरते जाने के लिए कानून बनाना।

5. कृषि में रासायनिक कीटनाशकों के इस्तेमाल को कम से कम करने, रोकने और नियंत्रित करने का प्रयास करना।

6. भूमि उपयोग योजना और विशेषकर जल विभाजक प्रबंध करना।

7. भौगोलिक पर्यावरण के अनुकूल प्रोद्योगिकी का विकास कार्यों के लिये उपयोग करना तथा अवक्रमिक पर्यावरण का पुनर्जन्म करना।

8. लोगों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता तथा पर्यावरण संरक्षण की भावना विकसित करना।

 

निष्कर्ष:-

जल संसाधन से आशय है प्रदेश में उपलब्ध धरातलीय तथा भूमिगत जल से है, प्रकृति द्वारा दिया गया है। धरातलीय जल का स्त्रोत नदियों, नहरों, तलाबों से है जबकि भूमिगत जल के स्त्रोत कुएं, ट्यूबवेल आदि है। छत्तीसगढ़ एक कृषि प्रधान राज्य है, धान की उपज के दिए देश में इसका सर्वाेच्च स्थान है किन्तु मानसून की अनिश्चितता, अनियमितता एवं संदिग्धता के कारण यहां सूखे की स्थिति निर्मित हो जाती है। प्रदेश के कुल शुध्द बोये गये देश के मात्र 21.67 भाग में सिंचाई सुविधाएं हैं जबकि राष्ट्रीय औसत 32.5 है बढ़ती हुई जनसंख्या के भरण पोषण हेतु सघन कृषि एवं अन्योन्य प्राविधियों  के लिए सिंचाई स्त्रोतों की व्यवस्था अत्यावश्यक है। दूसरी ओर राज्य में औद्योगिक विकास तथा अन्योन्य तकनीकी कार्यों हेतु ऊर्जा के प्रमुख वैकल्पिक स्त्रोत के रूप में जल विद्युत उत्पादन भी वांछित है। छत्तीसगढ़ के जल संसाधन के विभिन्न स्त्रोत विद्यमान हैं जिनके उपयोग एवं विकास की महती आवश्यकता है। कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था के कारण सिंचाई सुविधा का विस्तार राज्य की प्राथमिक आवश्यकता है इसलिए कृषि क्षेत्रों के विस्तार के साथ उत्पादकता में वृध्दि हुई है। प्रदेश की कुल कृषि भूमि का 20 सिंचित है इनके नहरें प्रमुख हैं। राज्य की दो प्रमुख नदियों में वार्षिक औसत 4.85 करोड़ एकड़ फीट सतही जल उपलब्ध है जिसमें से 80 भाग का उपयोग किया जा सकता है। इसी प्रकार 1.27 करोड़ एकड़ फीट भू जल उपलब्ध है जिसमें से 50 भाग के पानी का उपयोग किया जा सकता है। केन्द्रीय जल आयोग के अनुमान के अनुसार प्रदेश में कुल उपलब्ध जल से 3.3 लाख हेक्टेयर सिंचाई क्षमता निर्मित की जा सकती है। मार्च 2002 तक 14.11 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई सुविधा का विस्तार हुआ है जो राज्य के कुल बोये गये क्षेत्र का 24.4 है। राज्य में 72.5 क्षेत्र नहरों से, 9.5 भाग नलकूप, 4.8 भाग तालाब से सिंचित है एवं कुओं से 3.4 क्षेत्र सिंचित है। शासन के सिंचाई कार्यक्रम में लघु सिंचाई, लघुत्तम सिंचाई कार्यक्रमों से सिंचित क्षेत्र में वृध्दि करने का लक्ष्य है। राज्य में शासकीय साधनों के अतिरिक्त सिंचाई क्षमता, निर्मित करने के सतत् प्रयास किये जा रहे हैं।

 

 

 

Table No.-1. Chhattisgarh-Major Rivers*

S.No.

Rivers

Length (km)

Districts

1.

2.

3.

4.

5.

6.

7.

8.

9.

10.

11.

12.

Mahanadi

Indravati

Sheonath

Hasdeo

Sabari

Mand

Rihand

Kanhar

Arpa

Kharun

Haph

Lb

286

264

200

176

173

155

145

115

100

96

88

87

Kanker, Dhamtari, Mahasamund, Raipur, Bilaspur, Champa, Raigarh

Bastar, South Bastar, Dantewada

Rajnandgaon, Durg, Bilaspur, Janjgir-Champa

Korba, Korea, Bilaspur, Janjgir-Champa

South Bastar, Dantewada

Jashpur, Surguja, Raigarh, Janjgir-Champa

Surguja

Surguja, Jashpur

Bilaspur

Durg, Raipur

Durg, Kabirdham

Jashpur

*Source: Human Development Report, Chhattisgarh Government Raipur, 2005

 

Table No.-2 Chhattisgarh-Capacity of Irrigation 2005-06*

S.No.

Basins

Capacity of Irrigation Aims (In Hectare)

Achievements (In Hectare)

1.

2.

3.

4.

Hasdeo Basin, Bilaspur

Hasdeo Bango, Bilaspur

Mahanadi Godavari, Raipur

Mahanadi Project, Raipur

13275

19138

27200

10225

5370

13615

21175

4436

 

Total

69838

44556

*Source: Water Resource Department, Chhattisgarh Government Raipur, 2005

 

Table No.-3. Chhattisgarh-Total Irrigation Area by Different Sources (2005-06) *

S.No.

District

Total Irrigation Area (Percent)

Percent of Total Irrigation Area

Canal

Tubewell

Well

Tank

Other

1.

2.

3.

4.

5.

6.

7.

8.

9.

10.

11.

12.

13.

14.

15.

16.

Raipur

Mahasamund

Dhamtari

Durg

Rajnandgaon

Kabirdham

Bastar

Kanker

Dantewada

Bilaspur

Janjgir-Champa

Korba

Surguja

Korea

Raigarh

Jaspur

38

21

56

30

16

17

02

08

02

30

48

05

06

06

16

03

78.10

61.72

76.82

52.25

76.25

43.96

2.85

33.45

69.12

76.38

84.19

54.12

24.54

66.71

33.61

59.43

8.94

21.62

10.64

17.99

5.90

34.62

16.63

25.10

2.52

11.20

3.66

1.13

2.14

0.20

36.1

-

2.0

2.0

2.0

2.0

7.0

2.0

13.0

6.0

2.0

4.0

3.0

10.0

17.0

12.0

1.0

25.0

5.15

10.49

0.53

2.3

2.73

4.97

21.09

18.69

-

3.68

2.36

8.48

5.36

1.64

10.11

1.36

5.81

6.32

10.01

25.46

9.09

14.45

46.43

16.76

26.36

4.74

6.79

26.27

50.96

19.45

19.28

14.21

 

Total

21

66.23

13.05

3.53

4.34

12.85

*Source: Land Record Office, Chhattisgarh Government Raipur, 2005

Table No.-4 Chhattisgarh-Mahanadi Project Group and Sondur Project *

Sr.

Discription

 

Reservoir

No.

 

Qty.

Murumsilli

Dudhawa

Ravishankar

Sondur

1.

2.

3.

4.

5.

 

 

6.

7.

8.

Water Live Area

Water Capacity

Live Storage

Dead Storage

Height of Dam

A.     Masonry

B.     Soil

Length of Dam

Design Flood

Flood Area

Sq. Km

T.M.C.

T.M.C.

T.M.C.

 

Meter

Meter

Meter

Cum.

Hectare

484

5.84

5.73

0.11

 

-

27.40

2591

2011

2511

621

10.19

10.05

0.14

 

-

26.54

2907

2728

4500

3670

32.17

27.08

5.09

 

31.57

31.73

1376

23500

9500

512

6.98

6.34

0.64

 

38.63

24.26

3177

5163

2400

*Source: Water Resource Department, Chhattisgarh Government Raipur, 2005

 

Table No.-5 Blocks with intensive exploitation of ground water*

State

Number of Dark Blocks

1984-1985

1992-1993

2004

Andhra Pradesh

Gujarat

Haryana

Karnataka

Punjab

Rajasthan

Tamil Nadu

Uttar Pradesh

0

6

31

3

64

21

61

53

30

26

51

18

70

56

97

31

219

31

55

65

103

140

142

37

Total

239

379

792

*Source: Central Ground Water Board

 

Table No.-6 Number of ground water wells from 1950 onwords*

Time

Number of wells (in thousands)

Cumulative irrigation potenstial created by ground water (M-ha)

Dug wells

Private tube wells

Public tube wells

Total

 

1951

1980

1985

1990

1997

2002

 

3,860

7,786

8,742

9,407

10,501

-

 

3

2,132

3,359

4,754

6,743

-

 

2.4

33.3

46.2

63.6

90

-

 

3,865.4

9,951.3

12,147.2

14,224.6

17,334

19,800(estimate)

 

6.50

22.00

27.82

35.62

45.73

50.00

*Source: Central Ground Water Board

 

 

REFERENCES:

1.       Dr. Kiran Gajpal, “ Geography of Chhattisgarh ”, Vaibhav Prakashan Raipur, 2006

2.       Dr. M.P. Karan, “ Geography of Resource ”, Kitabghar Kanpur

3.       Infrastructure Development Action Plan for Chhattisgarh- Final Report.

4.       Directorate of Economics and Statistics, Chhattisgarh

5.       Geography and You, Vol. 9, Issue- 55, July-August 2009

6.       Chhattisgarh G.K., Shikshadut Prakashan Raipur, 2009

 

BIBLIOGRAPHY:

1.       Alcamo, J. and Henrichs, T. 2002. Critical regions: A model-based estimation of world water resources sensitive to global changes.

2.       Barreteau, O. 2003. Our companion modelling approach. JASSS-The Journal of Artificial Societies and Social Simulation,

3.       Barreteau, O. and Bousquet, F. 2000. SHADOC: a multi-agent model to tackle viability ofirrigated systems. Annals of Operations Research.

4.       Nash, J.E. and Sutcliffe, J.V. 1970. River flow forecasting through conceptual models part I -- A discussion of principles. Journal of Hydrology, 10.

5.       Shankar Guha Niyogi, Sangharsh Aur Nirmaan, Rajkamal, New Delhi.

6.       Teclaff, L.A. 1967. The river basin in history and law, The Hague, The Netherlands.

7.       World Commission on Dams. 2000. Dams and development - a new framework fordecision-making: the report of the world commission on dams.

 

 

Received on 06.06.2014       Modified on 16.06.2014

Accepted on 23.06.2014      © A&V Publication all right reserved

Int. J. Rev. & Res. Social Sci. 2(2): April-June 2014; Page 138-143