गाॅधीजी और ग्राम स्वराज

 

पीयूष कुमार पाण्डेय

असि. प्रो. राजनीति विज्ञान, नवीन शासकीय महाविद्यालय, बतौली, सरगुजा (छ..)

 

ऐसे समय में जब कि विश्व के सभ्य राष्ट्रों में लोकतंत्र को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है, लोकतंत्री शासन पद्धती में अब राज्य का विकसित स्वरूप कल्याणकारी राज्य का हो गया है अर्थात् ऐसे राज्य की परिकल्पना जिसमें सभी वर्ग, धर्म, आयु, लिंग के लोगों का सामूहिक एवं चतुर्दिक विकास सभी मानव अधिकारों के साथ-साथ संभव होगा।

 

लोकतंत्रीय शासन व्यवस्था का आशय यह है कि इस शासन व्यवस्था में अधिक से अधिक लोगों की सहभागिता। भारत वर्ष प्राचीन काल से ही ग्राम पंचायतों की भूमि रहा है। अतः राष्ट्र के विकास की कल्पना गांवों के विकास के बिना नहीं की जा सकती। गांधी जी का स्पष्ट मानना था कि भारत का विकास गांवों में निहित है। ग्रामीण विकास की अवधारणा प्राचीन स्वरूप से जुड़ी हुई थी, जिसमें ग्राम एक प्रजातंत्रात्मक आत्मनिर्भर गणराज्य के रूप में था, जिसे उन्होंने ग्राम स्वराज की संज्ञा दी थी। गांधी जी के ग्राम स्वराज्य के विचारानुसार ‘‘प्रत्येक ग्राम एक ऐसा परिपूर्ण गणराज्य होना चाहिए जो अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपने पड़ोसियों पर आश्रित न हो। इस प्रकार से विकास की यह गांधी वादी विचारधारा पुर्णतः भारतीय परिवेश एवं समाज व्यवस्था के अनुकूल रही है।

 

गंाधी जी के ग्राम पुनर्निमार्ण दर्शन के अनुसार ग्राम का सर्वांगीण विकास होना चाहिए जिससे ग्राम का सामाजिक आर्थिक एवं नैतिक विकास सन्निहित है। स्वतंत्र भारत की सरकारी नीतियाॅं गंाधी जी के विकास की अवधारणा से कोसो दूर थी।

 

औद्योगिकरण एवं नगरीकरण जो आधुनिक विकास का पर्याय है, ने गा्रमीण विकास को प्रभावित किया जिससे असंतोष, जातीय हिंसा, भ्रष्टाचार, आर्थिक असामानताएं एवं पर्यावरण प्रदूषण और ग्राम छोड़कर शहरों की ओर प्रवसन जैसी नई समस्याएं उत्पन्न हो रही है। अतः समाज वैज्ञानिकों, चिंतकों ने गांधी जी के ग्राम स्वराज्य की अवधारणा के उक्त विसंगतियों का समाधान पाया तथा इस दिशा में अपने प्रयास प्रारम्भ किए। सरकार ने भी संविधान के 73 वें एवं 74 वें संशोधन द्वारा पंचायती राज प्रणाली व्यवस्था अपनाकर गंाधी जी के ग्राम स्वराज्य की अवधारणा को मूर्तरूप देने का प्रयास किया है।

 

गंाधी जी के अनुसार आधुनिक राज्य यह सोचते हैं कि यदि व्यस्क मताधिकार है तो लोग स्वयं सही प्रतिनिधियों को सरकार बनाने के लिए चुन सकते हैं परन्तु प्रश्न यह है कि ये प्रतिनिधि किस सीमा तक लोगों के प्रति उत्तरदायी होते हैं। आज बड़े-2 चुनाव क्षेत्र हैं जिनमें मतदाताओं का प्रत्याशियों से परिचय तक नहीं होता, मतो की प्राप्ति योग्यता या विद्वता के आधार पर नहीं होती पैसा खर्च करने वाला मत खरीद लेता है कभी-कभी प्रभावी दल का जोर चलता है, कभी जबान का कमाल होता है और कभी झूठे वादों की बौछार देखने को मिलती हैं। इसलिए गंाधी जी कहते थे कि सच्चा स्वायत्त शासन या जनतंत्र गंाव के छोटे-छोटे समूहों में ही सम्भव है, वो लोग एक दूसरे को नित्यदेखते परखते है तथा उनका एक दूसरे से पारस्परिक सम्बन्ध होतो है। अतः उन्होंने हरिजन पत्रिका के 28 जुलाई 1946 के अंक में लिखा, हर गांव गणतंत्र होगा, उनकी अपनी पंचायत होगी जिसे सम्पूर्ण अधिकार प्राप्त होंगे। इससे यह अभिप्राय नहीं हैं कि वह आस-पास के गंाव से सहायता नहीं लेगा। वह स्वतंत्रता तथा स्वेच्छापूर्वक दूसरों से सहायता ले तथा दे सकता है। इस ढ़ाचे में अगणित गांव होंगे। इसके वृन्त बराबर बढ़ते तथा ऊॅचे उठते जाएंगे। जीवन सूची स्तम्भ नहीं होगा जिसमें शिखर तल के सहारे खड़ा हो। परन्तु यह महासागरीय वृन्त होगा। जिसका केन्द्र व्यक्ति होगा जो गांवों के लिए अपने को निछावर करने के लिए तत्पर रहेगा, यह क्रम तब तक चलेगा 

जब सब एक हो जायेगें क्रोध से आक्रमक रूप नहीं धारण करेंगे बल्कि सदा विनम्र बने रहेंगे तथा उस महासागरीय वृत्त के गौरव के अंशी बने रहेगे जिसके वे अनिवार्य इकाई है। इस प्रकार सबसे बाद वाली परिधि भीतरी वृत्त को कुचलने के लिए अपने अधिकार का प्रयोग नहीं करेगी परन्तु उन सबको शक्ति प्रदान करेगी जो उसके अन्तर्गत हो साथ ही उनसे अपने लिए शक्ति ग्रहण करेगी। अच्छा हो कि भारत इसी चित्र को अपने जीवन का आधार बनाएं यद्यपि पूर्ण रूप से इसे जीवन में उतार पाना संभव नहीं है।

 

गंाधी जी केन्द्रीकरण व्यवस्था को किसी भी क्षेत्र के लिए समस्याओं के लिए जिम्मेदार मानते थे। गांधी जी के अनुसार समान व्यवस्था जितनी विकेंद्रीकृत होगी, उतनी ही वह संपोषक, संतुलित और सार्थक होगी। अन्यथा औद्योगिकरण के तहत पनपने वाली केन्द्रीकृत अर्थव्यवस्था में व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता खो देता है तथा दूसरों की इच्छा पर चलने वाला मात्र कर्मचारी होता है और सरलता से अनुशासन में ढाल लिया जाता है। इसके अतिरिक्त राजनीतिक सत्ता विवस होकर थोड़े से लोगों के हाथों में केन्द्रित हो जाती है और सर्वशक्तिमान राज्य का उदय होता है जो व्यक्ति के भोजन, कपड़ा, घर, शिक्षा, स्वास्थ्य, मनोरंजन, यात्रा आदि जीवन के हर पहलू पर अपना अधिकाधिक अधिकार बढ़ाता चलता है। व्यक्ति चारों ओर से नियंत्रणों से घिर जाता है और सभी व्यवहारिक दृष्टिकोण से अपनी स्वतंत्रता खो बैढ़ता है। गांधी जी इसे बिल्कुल नापसंद करते थे और उन्होंने कहा कि विशाल कारखाने स्थापित करके स्वराज्य प्राप्त नहीं किया जा सकता। पश्चिमी सभ्यता अभी दुधमुही है, मात्र सौ डेढ़ सौ वर्ष पुरानी है। तो भी उसने यूरोप को अत्यन्त विकट स्थिति में ला खड़ा किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि जो स्थिति यूरोप की हुई है उससे हमारी रक्षा करें। जब आदमी के कलेजे में लाभ का आधिपत्य हो तो उससे और क्या आशा कर सकते है। यूरोपवासी नए उपनिवेशों पर वैसे ही टूट पड़ते है जैसे कौए मांस के टुकड़े पर झपटते है। मैं यह सोचता हूॅ इसका कारण फैक्ट्रियों में होने वाला ढेरो उत्पादन है।

 

गांधी जी के अनुसार ग्रामीण जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं की सक्रिय भूमिका होना आवश्यक है। शासन ने भी ग्राम प्रशासन एवं व्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए अधिनियम जारी किया है तथा पंचायती चुनाव में अनेक स्थान आरक्षित किया है। जनजातीय समाज में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी देखने को मिलती हैं, जहां जनजातिय महिलाएं जलाऊ लकड़ी लघुवनोपजों के संग्रहण के साथ-साथ कृषिकर्म में पुरूषों को सहयोग देती है। साथ ही वनोत्पाद से वस्तुएं निर्मित कर बाजार में उनका विक्रय करती है इस प्रकार से जनजातिय अर्थव्यवस्था में महिलाओं की केन्द्रीय भूमिका होती है। गांधीजी द्वारा ग्रामों के विकास व ग्राम स्वराज्य की स्थापना के लिए प्रस्तुत कार्यक्रमों में बुनियादी शिक्षा भी एक महत्वपूर्ण घटक है। अतः पर्यावरण एवं जनसंख्या शिक्षा को वर्तमान संदर्भ में गांधी जी की बुनियादी शिक्षा में अनिवार्य व प्रासंगिक विषय के रूप में शामिल करना उचित होगा।

 

गांधी जी के अनुसार ग्राम का कोई व्यक्ति बेरोजगार न हो, इसके लिए कृषि के साथ-साथ कुटीर एवं ग्रामीण उद्योग-धंधों का भी विकास किया जाना चाहिए। खादी तथा अन्य ग्रामद्योगों जैसे बांस एवं काष्ट शिल्प, बांस से निर्मित टोकरियां एवं अन्य वस्तुओं के निर्माण, मधुमक्खी पालन, रेशम कीट पालन, मत्स्य पालन, मशरूम, औषधि उत्पादन आदि। ये ऐसे सरल और सस्ते व्यवसाय है जिसे देश के प्रत्येक समुदाय के व्यक्ति कर सकते है तथा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति अपने देश की गांव की आम जनता की मेहनत और बुद्धि से बनी वस्तुओं से पूरा कर सकते है। किसान खेती के बाद लगभग 6 माह तक बेकार रहते है। इससे किसान को अपने परिवार सहित पूरे वर्ष के लिए काम मिलता रहता है जिससे बेकारी की समस्या का निदान भी हो जाता है और राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है। गांधी जी का खादी और ग्राम उद्योगो का उपरोक्त कार्यक्रम सैद्धान्तिक चीज नहीं था। वह पूर्णतः व्यवहारिक योजना थी जिसमें देश के असंख्य बेकारों की यों ही बेकार-बर्बाद होने वाली शक्ति का सदुपयोग करने की योजना थी। उसमें कम पूंजी में बहुत से आदमियों को काम देने की गुंजाईश थी। जाहिर है कि प्रत्येक देश के बेकारों को काम देने की जिम्मेदारी केन्द्रीय अधिकारी नहीं उठा सकते। यह समस्या तो स्वयं गांव को अपनी बुद्धि और सूझ-बूझ से और उसके सलाह से मशविरे से वहीं हल कर लेना चाहिए। गांधी जी इस बात पर जोर देते थे कि हर मनुष्य अपने हाथ से परिश्रम करे और अपनी आर्थिक स्थिति सुधारे। इसमें उन्हें कभी संकोच नहीं मालूम हुआ वह तो मनुष्य की नैतिक और अध्यात्मिक उन्नति के लिए भी शरीर से श्रम को आवश्यक मानते थे। भारत जैसे घनी आबादी वाले किन्तु कम विकसित देश के लिए बड़े-बड़े शहरों वालें सभ्यता का विकास करने के बजाय छोटी-छोटी इकाईयों का अर्थात् ग्रामों का विकास ही अधिक लाभप्रद होगा। इन गांवों में छोटे-छोटे उद्योगों और कारखाने भी हो जिनसे इनकी जरूरतों को पूरा किया जा सके।

 

सार रूप  में कहा जा सकता है कि गांधी जी का ग्राम स्वराज्य की अवधारणा ने आधुनिक युग को एक ऐसा मार्गदर्शक सूत्र दिया है जो मानव परिवर्तन के माध्यम से एक सुसंस्कारिक, शान्तिप्रिय एवं निर्विवाद समाज की रचना कर सके। आज के जटिल और गतिशील समाज में मानव समाज में अनेक विसंगतियों का विकार है और इससे जनित अनेक समस्याएं इसके सामन है। ऐसी स्थिति से सम्पूर्ण विश्व गांधीवादी दर्शन की ओर देख रहा है और एक शान्तिप्रिय, समतामूलक समाज की खोज में लगा है। इस दृष्टि से आज गांधी जी की प्रासंगिकता को निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जा सकता है।

 

 

संदर्भ सूची

1.      वर्मा, वी.पी.: द पोलिटीकल फिलास्फी आफ महात्मा गांधी एण्ड सर्वोदय, लक्ष्मी नारायण अग्रवाल

2.      मोहंती, जे.एन.: ‘‘सर्वोदय एण्ड अरविंदो-ए एप्रोचमंेट, गांधी मार्ग, खण्ड 4

3.      गांधी, सामाजिक, राजनैतिक परिवर्तन, डी हरीश कुमार

4.      आधुनिक भारतीय सामाजिक एवं राजनीतिक चिंतन, सी.एम. सरस्वती

5.      योजना, नवम्बर 2000 अंक-8

6.      हिंद स्वराज्य, नवजीवन ट्रस्ट, अहमदाबाद

7.      गांधी की वसीयत

8.      यंग इण्डिया

 

 

Received on 12.11.2014       Modified on 25.11.2014

Accepted on 15.12.2014      © A&V Publication all right reserved

Int. J. Rev. & Res. Social Sci. 2(4): Oct. - Dec. 2014; Page 212-214