वृद्धावस्था] जिंदगी का तीसरा पड़ाव“
(बिलासपुर स्थित कल्याण कंुँज एवं बसेरा वृद्धाश्रम में निवासरत् वृद्धाओं का अध्ययन)
Dr. (Mrs.) Vrinda Sengupta1, Dr. Abhijeet Bhaumik2, Dr. Satish Kumar Agrawal3
1Asstt.Prof., Deptt. of Sociology, Govt.T.C.L.P.G. College, Janjgir (C.G.)
2Principal, Lalit Shyam College, Baloda (C.G)
3Govt. College, Katghora
सारांश-
01 अक्टूबर को वृद्ध दिवस के रूप में प्रतिवर्ष मनाया जाता है।
”कलयुग भी कितनी उल्टी गंगा बहा रहा है। माता-पिता को श्रवण ठोकर लगा रहा है।“
”मैं अकेला ए दोइ जना, छेती नाही कोई।
जे जम आगै उबरो, ता जुरा पछुँती आई।।
कबीरदास
जीवन-सत्य को उद्घाटित करती कबीर की इन पंक्तियों को देखिए, क्या कहते हैं कबीर? मैं अकेला हूँ और दो जन है, जिनमें कोई ’छूत’ अर्थात् भेदभाव नहीं है, यदि यम के आगे उबर भी गए तो जरा (वृद्धावस्था) पहुँच जाएगी। मनुष्य बेचारा अकेला है, प्राणी एकाकी है, वह दो तथ्यों से आमना-सामना करता है, एक तो मृत्यु और दूसरी जरा (बुढ़ापा)। यदि ईश्वरीय कृपा से वह मृत्यु से बच भी ले, आकस्मिक अकाल मृत्यु न भी हो तो सामने से वृद्धावस्था अवश्य स्वागत करेगी।
वृद्धावस्था जिंदगी का तीसरा पड़ाव है। वृद्ध हमारे धन हैं एवं विरासत है। ऊपर आकाश, नीचे धरती और बीच में हवा। धरती पर मनुष्य जन्म लेता है, उसकी लुगदी पंच तत्वों से तैयार होती ह। वह जब धरती पर खड़ा होता है तो उसमें हवा की गति, शक्ति, ठण्डक, उष्णता और तीव्रता समाहित हो जाती है। उसके ऊपर अंतहीन आकाश होता है। पैरों के नीचे धरती। धरती बचपन को सहेजती है, हवा यौवन को और आकाश। जीवन के विस्तार को। धरती मनुष्य को पैरों पर खड़ा होने, चलने और जीवन जीने के अवसर उपलब्ध कराती है। बुढ़ापे के अंत का परिदृश्य छुपा रहता है। इसे ही जीवन का त्रिचक्र कहते हैं। जो जन्म लेगा, वह जवान भी होगा, जो जवान होगा, उसे बुढ़ापे के अंतहीन महाशून्य की ओर भी जाना होगा।
शब्दकुँजी: वृद्धावस्था, शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन,वृद्धावस्था जिंदगी का तीसरा पड़ाव।
प्रस्तावनाः
व्यक्ति के पूरे जीवन चक्र को 4 भागों में विभाजित किया जाता है- बाल्यावस्था, युवावस्था, किशोरावस्था एवं वृद्धावस्था। प्रौढ़ावस्था के बाद मानसिक एवं शारीरिक स्तर पर जो परिवर्तन होते हैं, वे ढेर सारी समस्याओं को जन्म देते हंै। ये समस्याएँ व्यक्तिगत स्तर पर भी आती है और सामाजिक स्तर पर भी। इनसे शारीरिक परिदृश्य भी बदलता है और मानसिक भी और साथ ही समायोजन एवं समस्याओं का सामना करने की स्वाभाविक क्षमता पर भी इसका असर पड़ता है।
वैज्ञानिक सत्य है कि हमारे शरीर के सेल्स निरन्तर नष्ट होते रहते हैं और उनके स्थान पर नूतन सेल्स का निर्माण भी होता रहता है। प्रौढ़ावस्था अर्थात् औसतन 60 वर्ष की उम्र के बाद नये सेल्स का निर्माण लगभग समाप्त होने लगता है। इसी कारण शरीर में तीव्र गति से नकारात्मक परिवर्तन होने लगते हैं। इसे ही सामान्य भाषा में ।ळप्छळ कहा जाता है। रहन-सहन की बेहतर स्थितियाँ, चिकित्सा सुविधाएँ, सफलताएँ एवं बेहतर शारीरिक स्वास्थ्य भी । ळप्छळ पर काफी सीमा तक नियंत्रण कर लेता है। यह सार्वभौमिक सत्य है।
महत्व:
भारतीय समाज में प्राचीन काल से बुजुर्गों का स्थान सम्मानित रहा है। जीवन के संचित अनुभवों से परिवार व समाज का मार्गदर्शन करने मंे बुजुर्गों की महती भूमिका रही है, लेकिन आज की भौतिकवादी संस्कृति के बढ़ते वर्चस्व के कारण इन बुजुर्गांे को अप्रांसंिगक समझा जाने लगा है। गाँवों में चैपाल एवं शहरांे में नाती-पोतों को स्कूल पहुँचाने तथा लाने, बिजली, पानी का बिल जमा करने तक सिमट कर रह गया है। क्या आज के समाज मंे बुजुर्गों की शेष शक्ति की यही उपयोगिता रह गई है।
स्वतंत्रता के समय हमारे देश मंे वृद्धजनांे की संख्या करीब दो करोड़ थी। वर्तमान में 60 वर्ष से अधिक उम्र के 207 करोड़ लोग हैं। इनमें 482 प्रतिशत् महिलाएँ है।
परिवार में जिस तरह बच्चे को माँ-बाप के संरक्षण की जरूरत होती है, उसी तरह युवावस्था को जीवन संगिनी की। जब शरीर की शिराओं मंे शक्ति का ह्ास शुरू हो जाता है और आँखे आकाश को तकने लगती है, तब कमजोर जिस्म को सम्भालने के लिए मजबूत सहारे की जरूरत महसूस होने लगती है। जीवन में तीन चक्र है, बचपन, जवानी, बुढ़ापा और ये तीनों एक-दूसरे के पूरक हैं। जब मनुष्य अपने दायित्वांे से विमुख हो जाता है, तब सामाजिक संतुलन बिगड़ जाता है। आज बुढ़ापा इसी असंतुलन का शिकार है। युवा पीढ़ी भूल रही है कि आने वाले कल में उन्हें भी सहारे की जरूरत पड़ेगी।
प्रौढ़ावस्था में पहँुचकर कोई व्यक्ति अपने स्वास्थ्य का चाहे जितना ध्यान रखें, किसी न किसी समय उसमें बुढ़ापे के लक्षण अवश्य उत्पन्न होने लगते हैं। चिकित्सकों का मानना है कि कोई भी व्यक्ति बुढ़ापे के कारण नहीं मरता। लोगों की मृत्यु इसलिए होती है, क्यांेकि जीवन को सुरक्षित रखने वाले जैविक, दैहिक एवं परिवेशीय कारकों की आपूर्ति वृद्धावस्था में रूक जाती है।
वृद्धों में शारीरिक परिवर्तन:
1. वाह्याकृति में परिवर्तन:
’ चेहरा, हाथ, पैर, त्वचा में परिवर्तन
’ माँसपेशियों का ढीला पड़ जाना
’ त्वचा का सिकुड़ जाना
’ नेत्र ज्योति का कम हो जाना
’ श्रवण क्षमता में ह्ास
’ त्वचा में रूक्षता
2. आंतरिक परिवर्तन:
’ तापमान में परिवर्तन
’ शरीर मंे खनिज तेलों में परिवर्तन
’ तंत्रिका क्रिया मंे परिवर्तन
’ बी.एम.आर. कम होना
’ पाचन शक्ति का ह्ास
’ किडनी की क्षमता का ह्ास
3. संवेदिक परिवर्तन
4. क्रियात्मक क्षमता मंे परिवर्तन
5. मानसिक क्रियाओं में परिवर्तन
6. अभिरूचि में परिवर्तन
7. व्यावसायिक परिवर्तन
उद्देश्य:
1. वृद्ध शब्द को एवं वृद्धों के प्रति भावना को जड़ से समाप्त करना।
2. समाज/परिवार में वृद्धों की बराबरी का दर्जा दिलाना।
3. वृद्धों के मन में सामंजस्य की भावना उत्पन्न करना।
4. समाज/परिवार वृद्धांे की समस्या को जड़ से समाप्त करने की पहल करें।
5. वृद्धजनों को आर्थिक/स्वास्थ्य संबंधी संसाधनों मं प्राथमिकता दी जाये।
6. युवाओं के मन में भावना जागृत करना। एक समय बाद वह स्वयं भी हांेगे।
अध्ययन पद्धति:
राजकिशोर नगर बिलासपुर के वृद्धाश्रम का अध्ययन किया गया है, जहाँ लगभग 400 वृद्ध है।
परिकल्पनाएँ:
1. वृद्धों के मन मंे सामंजस्य की भावना का विकास करना।
2. समाज/परिवार में वृद्धांे की समस्याओं को समाप्त करने की भावना जागृत करना।
3. वृद्धजनों को आर्थिक, स्वास्थ्य संबंधी संसाधनों में प्राथमिकता का विकास करना।
4. युवाआंे के मन में बुजुर्गों के प्रति सम्मानित स्थान का विकास करना।
बिलासपुर कल्याण कँंुज वृद्धाश्रम के अधीक्षक एवं वहाँ रहने वाले वृद्धों से साक्षात्कार लिया गया, जिससे यह जानकारी मिली कि इस आश्रम में शुरू में 30 सदस्य था। बातचीत के दौरान पता चला कि कई वृद्धों के बच्चे हैं फिर भी पारिवारिक कलह के कारण यहाँ रहते हैं। उन्हें यहीं अच्छा लगता है। इस आश्रम को राज्य शासन से व्यवस्था हेतु राशि भी प्रदान की जाती है। कई वृद्ध कुछ समय पश्चात् अपने घर भी चले जाते हैं। कई व्यक्ति आर्थिक रूप से सम्पन्न भी है, किन्तु घरवालों के स्वभाव के कारण यहाँ रहते हैं। यह वृद्धाश्रम केवल पुरूषांे के लिए है, यहाँ दिन की शुरूआत नियमों से होती है और रात्रि में भोजन के बाद रामायण पाठ से समाप्त होती है। यहाँ रहने वाले को किसी प्रकार का नशा नहीं करना होता है। भोजन व अन्य साफ-सफाई के लिए कर्मचारी है।
बसेरा वृद्धाश्रम इसकी स्थापना 1 जनवरी 2005 को हुई। यहाँ केवल वृद्ध माताएँ ही रहती है। वर्तमान में यहाँ लगभग 82 माताएँ रहती है, जो अपना भोजन मिल-जुलकर स्वयं बनाती है तथा अन्य कार्य के लिए नौकर है। माताओं की मालिश के लिए भी एक महिला नियुक्त है। यहाँ कई सम्पन्न घर की महिलाएँ है। मगर अपने बच्चांे के व्यवहार से दुखी होकर यहाँ रहती है। कुछ दिन पूर्व 2 माताओं को उनके बच्चे अपने घर ले गये हैं। बुजुर्गों में हमंे यह नहीं भूलना चाहिए कि समाज को शिखर पर पहुँचाने की असीम बौद्धिक क्षमता व सम्भावनाएँ आज भी विद्यमान है। समाज का नजरिया बदल गया है, इसलिए उसकी क्षमताएँ दिखाई नहीं देती है। बुजुर्ग हमारे समाज के सिर के समान है। सिर याने व्यक्ति की पहचान है। सिर काट दिया जाये तो पहचान गायब हो जायेगी और हमारे समाज की पहचान आज इसलिए गुरू होती जा रही है, क्योंकि हमने अपने सिर को धड़ से अलग करना शुरू कर दिया है। आज वक्त की माँग है कि हम अपनी मानसिक दरिद्रता को दूर कर और उस पर वृद्ध का मजबूत करें जिसकी बदौलत आज हम इस सम्मानजनक स्थिति में है। अपना जीवन काट रहे हैं।
परिवार मंे बुजुर्गों का तिरस्कार परिजनों द्वारा बुजुर्ग एक प्रकार से उत्पीड़न तो है। उनक प्रति अन्याय नहीं तो और क्या है? इसी कारण दिनों-दिन वृद्धाश्रम के वृद्धों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है।
निष्कर्ष:
किसी भी समस्या का हल मुश्किल नहीं है। आवश्यकता सिर्फ सकारात्मक सोच की। युवा वृद्धों को आर्थिक बोझ न समझें। वृद्धजनों की सेवा करना हर एक व्यक्ति का नैतिक कर्तव्य है। इस कर्तव्य के पालन से बचा नहीं जा सकता।
बुजुर्गों की समस्या एक नई चुनौती के रूप में सामने खड़ी है। आज जो युवा है, कल वह भी इस अवस्था को प्राप्त करंेगे, उन्हें भी परिवार की उपेक्षा झेलनी होगी। यदि सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक परिस्थितियों में बदलाव ही नहीं आता तो सभी को तैयार होना चाहिए। इस तिरस्कृत दृष्टि का सामना करने के लिए।
संदर्भ ग्रंथ सूची:
1. Hussain, Samshad (2006) Dynamics of Human Behaviour Agra, H.P. Bhargava Book House.
2. Bhargava. Mahesh and Aurora, Saroj (2006) Human Behaviour and Organizational Excellence, Delhi Sunrise Publications.
3. Bhargava, Mahesh Kotia, B.L. and Bhargava, V. (2006) Modern Psychology and Human Life Agra. H.P. Bhargava Book House.
4. Bhargava. Mahesh and Aurora, Saroj (2005) Dynamics of Parental Behaviour, Agra. H.P. Bhargava Book House.
5- महाजन एवं महाजन, भारतीय समाज मुद्दे एवं समस्याएँ
6- मानव विकास का मनोविज्ञान, डाॅ. महेश भार्गव, भार्गव बुक हाऊस आगरा -
Received on 11.11.2014 Modified on 20.12.2014
Accepted on 28.12.2014 © A&V Publication all right reserved
Int. J. Rev. & Res. Social Sci. 2(4): Oct. - Dec. 2014; Page 226-228