रामकथा का आधुनिकतम काव्य है - साकेत
ममता सिंह
हिन्दी विभागाध्यक्ष, स्वामी विवेकानंद वि.वि., सिरौंजा, सागर (म0प्र0) पिन 470228
साकते की कथा का मूलाधार परम्परागत राम-कथा ही है, किन्तु गुप्त जी ने उसमें पर्याप्त परिवर्तन कर दिये हैं । अपने युग की विचारधाराओं की उन पर काफी प्रभाव पड़ा है और इनके आधार पर ही उन्होंने अपने काव्य का रूप संवारा है । इस कारण उनके काव्य में पर्याप्त आधुनिकता निहित है । श्री त्रिलोचन पाण्डेय ने ‘‘साकेत’’ की आधुनिकता के तत्वों का विभाजन इस प्रकार किया है:-
1. बुद्धिवाद का प्रभाव,
2. पात्रों का नवीन रूप,
3. मनोवैज्ञानिकता,
4. पीठिका देना,
5. सामाजिक प्रभाव,
6. राष्ट्रीयता,
7. नारी-संबंधी दृष्टिकोण,
8. मर्यादित श्रृंगार वर्णन,
10. शैलीगत नवीनता एवं अन्य प्रसंग।
और गुप्त जी के साकेत में वही परिलक्षित होता है। यथा-
1. बुद्धिवाद का प्रभाव:- बुद्धिवाद आधुनिक काल की सर्वप्रमुख विशेषता है । बौद्धिकता के प्रभाव के कारण आज का मनुष्य दैवी घटनाओं पर विश्वास नहीं करता, इस कारण ‘‘साकेत’’ के सभी पात्र मानवीय रंग में रंगे हुये हैं । राम, गुप्त जी के आराध्य हैं, पर आधुनिक बुद्धिवादी मानव को वह अपना मत स्वीकृत करने के लिये बाध्य नहीं करते । वह तो राम से ही पूछते हैं:-
‘‘राम तुम मानव हो घ् ईश्वर नहीं हो क्या घ्
विश्व में रमे हुये नहीं सभी कहीं हो क्या घ् 1
बुद्धिवाद के प्रभाव के कारण ही उर्मिला, सीता आदि इसमें अधिक मुखर और वाक्पटु दिखाई देती है । आधुनिक युग के बुद्धिवादी मानव की भांति ‘‘साकेत’’ का प्रत्येक पात्र अपने अधिकारों के प्रति सजग है । अपने अधिकारों को किसी भी मूल्य पर नहीं त्यागना चाहता ।
2. पात्रों का नवीन रूप:- ‘‘साकेत की दूसरी नवीनता यह है कि इसके प्रमुख पात्र-उर्मिला, लक्ष्मण आदि राजपरिवार के सदस्य होकर भी जन-जीवन से जुड़े हुये हैं । उर्मिला अपने विरह में भी जनता का ध्यान रखती है, पशु पक्षी के प्रति सहानुभूति दिखाती है । सीता भी यहाॅं देवी और सीता माता न होकर एक साधारण पत्नी के रूप में चित्रित हुई है । वह अपनी कुटिया में ही राजभवन के दर्शन करती है ।
राम भी ‘‘साकेत’’ में एक साधारण मानव के रूप में दिखाई देते हैं । गुप्त जी ने तुलसी की भाॅंति उनमें पूर्ण देवत्व की स्थापना नहीं की है । गुप्त जी के राम तो आदर्श मनुष्य हैं जो इस पृथ्वी पर स्वर्ग की स्थापना करने आये हैं ।
‘‘संदेश यहाॅं मैं नहीं स्वर्ग का लाया
इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया ।’’2
‘‘साकेत’’ में पात्रों से संबंधित एक अन्य आधुनिकता है कि रामकाव्य में प्रथम बार उर्मिला को नायिका पद पर आसीन किया गया है। भरत भी यहाॅं ‘मानस’ की अपेक्षा अधिक मानवीय गुणांे से मण्डित हैं । इस नवीनता के संबंध मंे आचार्य बाजपेयी जी ने लिखा है ‘
‘हम यह नहीं कहते कि ‘साकेत’ में चित्रित उर्मिला और भरत के चरित्र नितान्त नवीन हैं, किन्तु राम और सीता के स्थान पर भरत और उर्मिला के जीवन-सूत्रों के कथा तन्तु का निर्माण साहित्यिक इतिहास में एक प्रवर्तन है और विचारों की दुनिया में एक अभिनव क्रान्ति । इस नवीनता को यदि ’साकेत’ में प्रतिष्ठित आधुनिकता की आत्मा कहा जाये, तो कुछ भी अनुचित न होगा।’’3
केकैयी के तामसी रूप की सात्विकता भी यहाॅं व्यक्त की गई है ।
3. मनोवैज्ञानिकता:- गुप्त जी ने मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर अपने पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं को व्यक्त किया है । ’साकेत’ में केकैयी के अन्तद्र्वन्द्व का सुन्दर चित्रण हुआ है । केकैयी को सभी पुत्र भरत के समान प्रिय है, पर जब मन्थरा कहती है:-
’’भरत से सुत पर भी सन्देह,
बुलाया तक न उन्हें जो गेह ।’’4
तो वह ईष्र्या की भावना से भर जाती है, उसकी मातृभावना चीत्कार कर उठती है और वह दशरथ से अपने पूर्व संचित दो वरदान माॅंग लेती है, किन्तु जब भरत ही उन्हें फटकारते है तो वह आत्मग्लानि से भर जाती हंै और चित्रकूट की सभा में पश्चाताप करती है ।
’साकेत’ के नवम सर्ग में उर्मिला का विरह वर्णन करते समय भी कवि ने मनोवैज्ञानिक का सहारा लेकर उर्मिला की मानसिक उथल पुथल को व्यक्त किया है । उसके प्रेम और कर्तव्य के मध्य जो द्वन्द्व हो रहा है उसकी यहाॅं मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है ।
4. पीठिका देना:- अगर बाद में घटित होने वाली घटनाओं की सूचना किसी संकेत से पहले दे दी जाती है तो उस घटना का प्रभाव सघन हो जाता है । ‘साकेत’ में गुप्त जी ने इस पद्धति का प्रयोग किया है । उन्हें काव्य में उर्मिला के विरह का अंकन करना था, इस कारण उन्होंने प्रथम सर्ग के अंत में ही यह लिख दिया:-
‘इसके आगेघ् विदा विशेष,
हुए दंपती फिर अनिमेष,
किन्तु जहाॅं है मनोनियोग,
वहाॅं कहाॅं का विरह वियोग घ्5
‘साकेत में यह पीठिका-प्रणाली अन्य स्थलों पर भी अपनाई गई है ।
5. सामाजिक प्रभाव:- गुप्त जी के ‘साकेत’ पर सम-सामायिक विचारधाराओं और आन्दोलनों के प्रभाव के कारण भी एक नवीनता आ गई है । गाॅंधीवादी सिद्धाॅंत सत्य, अहिंसा, धार्मिक-आचरण, समानता और सेवाभाव का काव्य में पर्याप्त प्रयोग हुआ है ।
दशरथ सत्य पर सब कुछ वार देने को तैयार हैं, तो राम किसी भी स्वार्थवश अपने धर्म से विमुख नहीं होना चाहते । ‘अयोध्यावासियों’ को संबोधित करते हुये वह कहते हैं:-
‘‘मैं स्वर्धम से विमुख नहीं हॅूंगा कभी,
इसलिये तुम मुझे चाहते हो सभी ।
पर मेरा यह विरह विशेष विलोलकर,
करो न अनुचित कर्म धर्म-पथ रोककर ।’’6
‘साकेत’ की देशभक्ति भी गांधी जी की देशभक्ति की भाॅंति धार्मिक हैं । अन्याय और अधर्म कवि को सह नहीं । ‘‘पर वह मेरा देश नहीं, जो करें दूसरों पर अन्याय ।’’7 गांधी जी की अहिंसा का भी ‘साकेत’ पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा है । उसके युद्धोत्साह में दमन के स्थान पर समर्पण-त्याग की भावना निहित है । सीता तो चित्रकूट में गांधी जी की चर्खा-योजना का प्रचार सी करती प्रतीत होती है ।
साम्यवादी विचारधारा का भी गुप्त जी पर प्रभाव पड़ा है । ‘साकेत’ में सभी वर्गों के व्यक्तियों को समानाधिकार प्राप्त है । शत्रुध्न सामाजिक जीवन के सम-विकास की चर्चा करते हैं । निम्नवर्गीय गुहराज भी राम के आलिंगन का अधिकारी है ।
6. राष्ट्रीयता:- राष्ट्रीयता की भावना को आधुनिक युग मंे विशेष महत्व दिया गया है । अपने युग की इस राष्ट्रीय भावना का ‘साकेत’ पर भी प्रभाव पड़ा है । ‘साकेत’ में राम-रावण-युद्ध को राष्ट्रीय युद्ध का रूप दिया है । सीता का हरण भी यहाॅं भारत-लक्ष्मी का हरण माना गया है:-
‘‘हाय ! मरण से नहीं किन्तु जीवन से भीता,
राक्षसियों से घिरी हमारी देवी सीता ।
बन्दीगृह में बाट जोहती खड़ी हुई है,
व्याध-जाल में राजहंसिनी पड़ी हुई है ।’’8
‘साकेत में अयोध्यावासियों को ही नहीं, उर्मिला को भी लड़ने के लिये उद्यत दिखाया गया है ।
7. नारी-संबंधी दृष्टिकोंण:- गुप्त जी का युग नारी-जागरण का युग था । हर तरफ नारी-स्वातंत्रय, नारी-शिक्षा और नारी के अधिकारांे की माॅंग की गूॅंज सुनाई देती थी । गुप्त जी पर युग की इस विचारधारा का प्रभाव पड़ा और उन्होेंने अपने काव्यों से नारी को महत्ता प्रदान की । गुप्त जी के ‘साकेत’ की नारियाॅं पुरूष की अर्धांगिनी हैं, सहयोगिनी हैं । घर में यदि वह कुलवधू है तो आवश्यतानुसार उनका रणचण्डी रूप भी दिखाई देता है। प्रेम, त्याग, सेवा सभी क्षेत्रों में वह अतुलनीय हैं ।
‘साकेत’ की नारी पत्नी रूप में पुरूष की अर्धांगिनी है जिसे उर्मिला के रूप में पाकर लक्ष्मण यह कहते हैं ।
‘‘कल्पवल्ली सी तुम्हीं चलती हुई,
बांटती हो दिव्य-फल फलती हुई ।‘‘9
पत्नि रूप में ही कहीं वह सीता के रूप में राम के हृदय में प्रतिष्ठित हैं तो कहीं मांडवी और श्रृतकीर्ति के रूप में भरत-शत्रुध्न से उचित सम्मान प्राप्त कर रही हैं । माॅं के रूप में भी ‘साकेत’ की कौशल्या और सुमित्रा आदर्श नारी है । केकैयी ने राजपरिवार में षणयंत्र रचा है, परंतु अपने दोष को स्वीकार करके वह भी ‘‘सौ बार अन्य वह एक लाल की माई’’ के रूप में साकेतवासियों से प्रतिष्ठा प्राप्त करती है ।
‘साकेत’ की नारी त्यागमयी है, सेवा-भाव से ओतप्रोत है और कर्तव्यपरायणा है । उर्मिला भू पर स्वर्ग-भाव बरसाने के लिये लक्ष्मण का चैदह क्यों वर्षो का वियोग सहन कर लेती है ।
आधुनिक नारी वाक्पटु । ‘साकेत’ में उर्मिला और केकैयी भी मुखर दिखाई देती हैं । गुप्त जी की नारियों के व्यक्तित्व में साहस, शौर्य, शील, संयम और सेवा-भाव का अटूट सामंजस्य दृष्टिगोचर होता है । सीता चित्रकूट की कुटिया में अपने हांथों काम करके राजभवन का-सा आनंद प्राप्त करती है । उर्मिला भी घायल सैनिकों की सेवा करने के लिये युद्ध क्षेत्र में जाना चाहती है ।
‘साकेत’ की नारियाॅं वीरांगना भी हैं । साकेतवासी जब लंका पर चढ़ाई करने के लिये तैयार होते हैं तो उर्मिला वीरांगना वेश मंे शत्रुध्न के समीप जा खड़ी होती है और केकैयी भी कहती है:-
‘‘ मैं निज पति के संग गई थी असुर-समर में,
जाऊॅंगी अब पुत्र-संग भी अरि-संगर में ।’’10
8. मर्यादित श्रृंगार वर्णन:- श्रृंगार में रस रसराज है, इस कारण सभी कवियों ने अपने काव्य में इस रस का वण्रन किया है । ‘साकेत’ में भी श्रृंगार रस का चित्रण हुआ है, पर वह संयमित है। उर्मिला ‘साकेत’ का केन्द्र-बिन्दु है अतः यहाॅं उनका तो है, पर इसमें वह मर्यादित रहे हैं । कुछ पंक्तियाॅं दृष्टव्य हैं:-
‘‘अरूण-पट पहने हुये आहृाद में,
कौन यह बाला खड़ी प्रासाद में घ्
प्रकट-मूर्तिमती उषा ही तो नहीं घ्
क्रांति की किरणें उजेला कर रहीं। ’’11
‘साकेत के प्रथम सर्ग में उर्मिला-लक्ष्मण के हास-परिहास के मध्य श्रृंगार के संयोग पक्ष की छटा दिखाई देती है, लेकिन यहाॅं भी कवि ने मर्यादा की रक्षा की है ।
9. कला का उद्देश्य:- साहित्य क्षेत्र में यह प्रश्न बहुत विवादास्पद है कि कला कला के लिये है अथवा जीवन के लिये । इस विवाद को लेकर दो वर्गों का गठन हो गया है । इनमें से एक कला को कला के लिये मानते हंैं और दूसरे वर्ग वाले कला का ध्येय जीवन स्वीकार करते हैं । गुप्त जी कला की सार्थकता तभी स्वीकार करते हैं जब वह जीवन से संबंधित हो । उनका मत है:-
‘‘मानते हैं जो कला के अर्थ ही,
स्वार्थिनी करते कला को व्यर्थ ही।’’12
गुप्त जी की इसी मान्यता के कारण ‘साकेत’ में आदर्श जीवन की अभिव्यक्ति हुई है । यदि ‘साकेत’ के उद्देश्य पर विचार किया जाये तो कहा जा सकता है कि-मानवतावादी जीवन-मूल्यांे की प्रतिष्ठा ही काव्य का उद्देश्य है । ‘साकेत’ की सभी घटनायें, परिस्थितियाॅं और चरित्र इस उद्देश्य की प्राप्ति में सहायक है । ‘‘साकेत’ में राम मर्यादा पुरूषोत्तम हैं जो इस पृथ्वी पर ‘‘आर्यों का आदर्श’’ बताने आये हैं । उर्मिला उत्सर्गमयी नारी है । भरत शील के, सीता परिश्रम की और लक्ष्मण अतुलित शौर्य के प्रतिनिधि हैं। काव्य के सभी पात्र अपने कार्यो के द्वारा आदर्श जीवन और समाज की स्थापना करना चाहते हैं।
इस प्रकार ‘साकेत की कला का महान उद्देश्य यही है । इस काव्य में गुप्त जी भारतीय संस्कृति के दिव्य गुणों और उच्चादर्शी की व्याख्या करने में सफल रहे हैं ।
10. शैलीगत नवीनता:- ‘साकेत’ की शैलीगत नवीनता भी आधुनिक युग के अनुरूप हैं । अब तक के सभी राम काव्य में लिखे गये थे, परंतु गुप्त जी ने अपने ‘साकेत’ का सृजन खड़ी बोली में किया है । ‘साकेत’ की इस भाषा-संबंधी नवीनता के संबंध मं बाजपेयी जी ने अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किये हैं - ‘साकेत’ की एक प्रमुख आधुनिकता है, उसमें ब्रजभाषा और पुरानी हिन्दी के स्थान पर नई खड़ी बोली का प्रयोग । ‘प्रियप्रवास’ की खड़ी बोली पर संस्कृत का पूरा आच्छादन है और उसके छंद, समास आदि संस्कृत से ही ग्रहण किये गये हैं । साकेत की खड़ी बोली अधिक स्वतंत्र है । उस पर संस्कृत की पद्धति स्वीकार की गई है । खड़ी बोली अधिक स्वतंत्र है । उस पर संस्कृत का अनावश्यक बोझ नहीं है और न ही उसके छंदों और सामासिक पदों में संस्कृत की पद्धति स्वीकार की गई है । खड़ी बोली के विकास की दृष्टि से वह ‘प्रिय-प्रवास’ की अपेक्षा अधिक आधुनिक कृति है ।’’
अन्य:- तुलसीदास जी के ‘मानस’ से ‘साकेत’ की तुलना करने पर उसकी एक अन्य आधुनिकता दृष्टिगत होती है । तुुलसी ने परब्रम्ह को अवतरित करके उसकी मानवता का चित्रण किया है, पर ‘साकेत’ में मानवता का उत्कर्ष ही अपनी चरम-सीमा पर पहॅुंचकर ईश्वरत्व का रूप ग्रहण कर लेता है ।
डाॅ. कमलाकान्त पाठक के अनुसार ‘साकेत’ में ‘‘सतही आधुनिकता भी आ गई है । जैसे- पंचम सर्ग में राम-वन-गमन के समय प्रजा भद्र-अवज्ञा करती है अथवा अंतिम सर्ग में उर्मिला सैनिकों को युद्ध तथा अहिंसा का पाठ पढ़ाती है ।’’
निष्कर्ष:- ‘साकेत’ की आधुनिकता का विवेचन करने के पश्चात् यह निष्कर्ष निकलता है कि ‘साकेत’ की बींसवी शताब्दी की आधुनिकता पूर्ण रूप से प्रतिफलित हुई है । गुप्त जी ने प्राचीन राम-कथा को नये रंगों से सजाया है । वस्तुतः वह सामंजस्यवादी कवि है । उनमंे कालानुसरण की क्षमता है जिसके कारण वह बदलती हुई भावनाओं और काव्य-प्रणालियों को ग्रहण करके आगे बढ़ते हैं । आधुनिकता के प्रसंग में गुप्त जी की इस कालानुसरण क्षमता की आचार्य शुक्ल ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है ।
संदर्भ-ग्रंथ
1. साकेत
2. वही अष्टम् सर्ग पृष्ठ 235
3. आधुनिक साहित्य - नंददुलारे वाजपेयी पृष्ठ 44
4. साकेत द्वितीय सर्ग पृष्ठ 47
5. साकेत प्रथम सर्ग पृष्ठ 42
6. साकेत पंचम सर्ग पृष्ठ 129-130
7. साकेत एकाद्वश सर्ग पृष्ठ 437
8. साकेत द्वादश सर्ग पृष्ठ 471
9. साकेत प्रथम सर्ग पृष्ठ 32
10. साकेत द्वादश सर्ग पृष्ठ 459
11. साकेत प्रथम सर्ग पृष्ठ 26
12. साकेत प्रथम सर्ग पृष्ठ 37
13. आधुनिक साहित्य - नंददुलारे वाजपेयी पृष्ठ 42
Received on 14.03.2015 Modified on 28.03.2015
Accepted on 31.03.2015 © A&V Publication all right reserved
Int. J. Rev. & Res. Social Sci. 3(1): Jan. – Mar. 2015; Page 27-30