कस्तूरी कुंडलि बसै
श्रीमती सोनिया गोस्वामी
Research Scholor, Department of Hindi, Govt. D. B. Girls P. G. college, Raipur
सन्त कबीर उच्च आध्यात्मिक चेतना के प्रतिनिधि और निर्गुण संत मत के प्रवर्तक कवि हैं। अपने विलक्षण, क्रांतिकारी व्यक्तित्व के कारण वे सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य में अविस्मरणीय बन गये हैं। सत्य को खरा-खरा, बिना किसी लाग-लपेट के दो टूक शब्दों में कहने वाला सन्त कबीर के समान आज तक कोई दूसरा महापुरूश उत्पन्न नहीं हुआ है। उन्होंने सदैव आज सत्य का ही संदेश दिया है। ‘‘साँच ही कहत और साँच ही गहत हौं उनका सीधा सच्चा, स्पश्ट मार्ग है। उन्होंने मानव चेतना को समस्त भेदों और संकीर्णताओं से ऊपर उठकर चेतना के विकास को गौरीशंकर की ऊँचाई प्रदान की है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने उनके बारे में लिखा है कि ‘‘समस्त बाहरी धर्माचारों को अस्वीकार करने का अपार साहस लेकर कबीर साधना के क्षेत्र में अवतीर्ण हुये। सब कुछ को झाड़-फटकार कर चल देने वाले तेज ने कबीर को अद्वितीय बना दिया है।‘‘1 मध्य युग में जब संत कबीर का आगमन इस धरा पर हुआ तो राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक सभी दृश्टियों से उथल-पुथल का युग था।
चारों तरफ विशमता, भेदभाव, ऊॅंच-नीच का बोलबाला था। ऐसे संक्रमण काल में पूरे भारत की जनचेतना को आन्दोलित करते हुए उन्होंने मानव अस्मिता के गौरव की रक्षा की तथा पे्रम के आधार पर मानव समाज की एकता की स्थापना की थी। संत कबीर ने समस्त रूढ़ियों, पाखण्डों से मुक्त श्रेश्ठ मनुश्य की अवधारणा प्रस्तुत की थी। संत कबीर ही वह प्रथम उपदेशक थे, जिन्होंने कर्मकाण्ड के स्थान पर उच्च आध्यात्मिक नैतिक मूल्यों की स्थापना की थी। मानव समाज में भेद की जगह अभेद, घृणा की जगह पे्रम, विशमता की जगह समता स्थापित करने वाली उनकी भूमिका को देखते हुए नाभादास जी को कहना पड़ा ‘‘पक्षपात नहिं वचन सबहि के हित की भाखी‘‘।
आज के वैज्ञानिक युग में भौतिक उपलब्धियों को ही लोग विकास कहने लगे हैं। मनुश्य चाँद तक जा पहुचा है, किन्तु अपने विचारों में परिवर्तन नहीं ला सका है। मानवता चैराहे पर खड़ी कराह रही है। मानव मानव के खून का प्यासा बन रहा है। अलगाववाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद, आतंकवाद, सम्प्रदायवाद आदि अनेक भेद की दीवारें मनुश्य-मनुश्य के बीच खड़ी है। वास्तव में बिना आंतरिक विकास के बाह्य विकास का कोई अर्थ नहीं है। आज ‘‘वैभव दूना, अंतर सूना‘‘ वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। हम मनुश्य होकर भी मनुश्य के महत्ता बोध से वंचित हैं। मनुश्य आध्यात्मिक मूल्यों से विलग हो गया है। ऐसे विसंक्रमण काल में कबीर वाणी ही एकमात्र समाधान है। संत कबीर मानवतावादी धर्म के संस्थापक हैं। उनसे अधिक जोरदार शब्दों में मानवीय एकता, अखण्डता और समता का प्रतिपादन किसी ने नहीं किया है। ‘‘सांई के सब जीव हैं, कीरी कुंजर दोय‘‘ के अनुसार वे प्राणी मात्र की एकता के समर्थक हैं। वास्तव में आध्यात्मिक ढाचे में लोग जागरण का महान कार्य संत कबीर ने ही किया है। संत कबीर के क्रांतिकारी व्यक्तित्व के विशय में डाॅक्टर प्रभाकर शोत्रिय का यह कथन एकदम समीचीन है ‘‘कबीर न तो चन्द आक्रामक लौकिक उक्तियों के प्रवक्ता हैं। और न आत्म मुक्ति की खोज में किसी कंदरा में अलख जगाने वाले योगी, यति या सन्यासी हैं। एक ओर उनका आध्यात्म इस भीड़ भरी दुनिया के बीच से गुजरता है और दूसरी ओर यह दुनिया उनके आध्यात्मिक आंवे से गुजर कर एक नया जीवनार्थ पाती है।‘‘2
वास्तव में संत कबीर स्वयं जन्म-मरण के भय से मुक्त है, इसीलिये लोगों को भय से मुक्त करने का, निर्भयता का आमंत्रण देते हैं। संतत्व ने ही उन्हें साँचा शूरमा बनाया है। उनकी कथनी एवं करनी में एकता है। यही कारण है कि उनकी वाणी में ओज है, सत्य है और लोगों के हृदय को प्रभावित ही नहीं, प्रकाशित भी करने की क्षमता है। इसी आत्मबल के आधार पर, परम सत्य पर अडिग विश्वास के बल पर उन्होंने काशी में रहकर समस्त ढोंग, पाखण्ड और बाह्याचारों को चुनौती दी थी। कबीर काव्य आत्म-दर्शन, परमात्म-दर्शन का काव्य है। वास्तव में कबीर दर्शन ऐसा दर्शन है, जिसमें कोई प्रदर्शन नहीं है। उन्होंने अपना काव्य कौशल दिखाने के लिए कविता की रचना नहीं की है। कहना चाहिए कि उन्होंने काव्य को गढ़ने की जगह मानव जीवन को गढ़ने का सराहनीय प्रयास किया है। उनका समूचा काव्य विशय विकारों के प्रति आकर्शण का नहीं, जीवन के परम जागरण का काव्य है। आध्यात्मिक गूढ़ तत्वों को जितनी सरलता, सहजता से कबीर ने कहा है, उतना और किसी ने नहीं कहा है। उनकी एक प्रसिद्ध साखी है -
‘‘कस्तुरी कुंडलि बसै, मृग ढूंढ़़ै बन माहिं।
ऐसे घट-घट राम हैं, दुनिया देखै नाहिं।।‘‘3
इस साखी में संत कबीर ने समझाया है कि बाह्यचार, कोरे कर्मकाण्ड, ढोंग या पाखण्ड से परमात्मा नहीं मिलते हैं। ईश्वर को लोग अपने हृदय में खोजने की जगह वनों में, तीर्थस्थलों में, पर्वतों आदि अनेक स्थानों में भ्रमवश अज्ञानता के कारण ढँढ़ते फिरते हैं। मनुश्य की इस अज्ञानता की तुलना संत कबीर ने कस्तूरी मृग से की है। कस्तूरी मृग की नाभि के भीतर होता है। और उसकी सुगंध बाहर चतुर्दिक फैलती है, जिसे हिरण खोजने के लिए बाहर भटकता फिरता है। वैसे ही मनुश्य भी अज्ञानतावश परमात्मा को बाहर चारों तरफ ढूँढ़ता फिरता है। वह अपने भीतर कभी दृश्टि नहीं डालता है। परिणामस्वरूप परमात्मा को पाने में असमर्थ रहता है। यहाँ पर संत कबीर एक मनोवैज्ञानिक सत्य की तरफ इशारा करते हैं कि मनुश्य की इंद्रियां स्वभावतः बहिर्मुखी होने के कारण उसे बाहर खोजती हैं। बाहर ढँूढ़ने में उसे किसी श्रम या साधना की जरूरत नहीं पड़ती है। भीतर देखने के लिए अन्तर्दृश्टि या आन्तरिक साधना की जरूरत पड़ती है। आन्तरिक दृश्टि के अभाव में मनुश्य अज्ञानी पशु मृग की तरह परमात्म सुगंध को पाने के लिए इधर-उधर भटकता फिरता है, और अपने घट के भीतर स्थित अपने राम का दर्शन नहीं कर पाता है। वास्तव में इस साखी में संत कबीर ने मानव को भीतर देखने पर जोर दिया है। सर्वव्यापक परमात्मा घट-घट में व्याप्त है। वह केवल मंदिर-मस्जिद या तीर्थस्थानों में निवास नहीं करता है। हिन्दू-मुसलमान उसे भिन्न-भिन्न नाम से तथा विभिन्न ढंगों से उसकी उपासना करते हुए परस्पर झगड़ा करते हैं। ऐसा परमात्मा के वास्तविक सत्य स्वरूप को न जानने के कारण होता है। इस संबंध में संत कबीर ने अन्यत्र अपने एक पद में कहा है -
‘‘जो खुदाय मस्जिद बसत है, और मुलुक के ही केरा।
तीरथ मुरत राम निवासी, बाहर काहे को हेरा।
पूरब दिशा हरि को बासा, पश्चिम अलह मुकामा।
दिल में खोज दिल ही में खोजो, इंहै करीमा रामा।।‘‘
(कबीर गंरथावली, सम्पादक - आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, पद 69, पृश्ठ 165)
यदि परमात्मा या खुदा को केवल मस्जिद में मानकर पूजा करते हो तो शेश सृश्टि का पालन-पोशण, संचालन किस शक्ति के द्वारा होता है? उसी प्रकार जब हिन्दू समझते हैं कि उनका राम केवल मंदिरों में, मूर्तियों में या तीर्थस्थानों में निवास करता है, तो बाहर किसकी सत्ता है? हिन्दू पूर्व दिशा और मुसलमान पश्चिम दिशा की ओर परमात्मा का ध्यान करते हैं तो बताओ खुदा कहां किस दिशा में नहीं है। परमात्मा का अस्तित्व एक सीमित क्षेत्र में मानना अज्ञानता है। गुरू नानक जी ने भी एक बार पूछा था कि परमात्मा कहाँ, किस दिशा में नहीं है। लोग भगवान को हृदय में नहीं, बाहर जंगलों में, मंदिरों, मस्जिदों में, काशी, काबा में ढॅूंढ़ते फिरते हैं। द्वार के सामने बहती गंगा का शीतल जल न पीकर दूर कहीं कुंआ खोदने की मूर्खता करते हैं। वास्तव में भगवान के नाम भिन्न हैं पर वह एक है और सबके हृदय में विराजमान है।
प्रस्तुत साखी का गहराई से अध्ययन करने पर अनेक विशेषताएँ दृश्टिगोचर होती हैं -
(1) घट-घट वासी परमात्मा को पाने के लिए बाह्य कर्मकाण्डों की आवश्यकता नहीं है, अपितु मन की निर्मलता, हृदय की सच्चाई, विचारों की ऊँचाई और अनन्य पे्रमभाव की आवश्यकता है। परमात्मा के पास विभिन्न प्रकार से किये गये पूजा-पाठ, कर्मकाण्ड, अनेक तरह की साधना पद्धतियाँ नहीं पहुंचती हैं। वहां व्यक्ति की श्रद्धा भावना, अतिशय पे्रम ही पहुंचता है। आचार्य गृन्धमुनि नाम साहेब का यह कथन उल्लेखनीय है। ‘‘सारी साधना का मूल है पे्रम। पे्रम नहीं हुआ तो जप-तप, पूजा-पाठ किस काम का है। पे्रम के द्वार से ही परमात्मा का दर्शन होता है। समस्त साधना जप-तप आदि हृदय में पे्रम उत्पन्न करने के लिए ही है।‘‘4 आज तक जिसने भी परमात्मा को पाया है, पे्रम के द्वारा ही पाया है। गोस्वामी तुलसी दास जी ने भी रामायण में कहा है
‘‘हरिव्यापक सर्वत्र समाना।
पे्रम ते प्रकट होय मैं जाना।।‘‘
अतः उपासना के बाह्य स्वरूपों को लेकर झगड़ा करना व्यर्थ है।
(2) सन्त कबीर ने भक्ति को बहुआयामी और आत्म जागरण का माध्यम बताते हुए कहा है कि आदमी भीतर से जितना जागृत होगा, परमात्म सौंदर्य का उतना ही व्यापक अनुभव कने में सक्षम होगा। उन्होंने कर्मकाण्ड की जगह आत्म ज्ञान को अधिक महत्व दिया है। ‘‘आत्म ज्ञान बिना नर भटके, क्या मथुरा क्या काशी‘‘ यदि किसी ने अपने घट के भीतर परमात्मा का साक्षात्कार नहीं किया तो उसका जीवन व्यर्थ है। सत्य, पे्रम, अहिंसा आदि दिव्य गुणों का विकास हृदय के भीतर परमात्का के प्राकट्य से ही संभव है। वे कहते हैं -
‘‘सब घट मेरा साइयां, सूनी सेज न कोय।
बलिहारी वा घट की, जा धट प्रगट होय।।‘‘5
(3) अध्यात्म के शिखर पर पहुँचने के बाद भी संत कबीर कभी मानवीय सरोकारों से विलग नहीं हुए। उन्हें प्राणी मात्र के कल्याण की चिन्ता थी।
‘
‘मैं रोऊॅं इस जगत को‘‘ मानव मात्र की पीड़ा उनकी निज की पीड़ा बन गई थी। अपने हृदय के भीतर परमात्मा का साक्षात्कार करने वाले श्रेश्ठ मनुश्य की अवधारणा देकर, उन्होंने मानव मात्र की एकता और महत्ता से परिचित कराया है। ऐसा सच्चा पे्रमी, भक्त समाज में किसी से बैर का भाव नहीं रखता है।
(4) आधुनिक विज्ञान बाहर पदार्थों में सत्य की खोज करता है, परंतु संत महापुरूश भीतर अन्तःकरण में खोजते हैं। गीता में भी कहा गया है - ‘‘ईश्वरः सर्वभूतानाम हृद्देशेडर्जुनं तिश्ठति‘‘।6
ईश्वर सबके हृदय में विराजमान है, परंतु लोग बाहर ढूँढ़ते हैं। भारतीय दर्शन मुख्य रूप से अन्तर्मुखी है। इसी बात को संत कबीर ने अपनी अनेक रचनाओं में बार-बार दोहराया है कि इस सृश्टि का मूल परमात्मा अजर-अमर, अविनाशी सत्यपुरूश, सभी के घट में विराजमान है। उसी की भक्ति करने से जीवन का कल्याण होगा। वे कहते हैं -
‘‘जाको ध्यान धरे विधि, हरि, हर, मुनीजन सहस अठासी।
सो तेरे घट मांहि विराजे, परम पुरूश अविनासी।।‘‘7
(5) संत कबीर ने इस साखी में परमात्मा की तुलना कस्तूरी से की है। जैसे कस्तूरी सदैव चारों तरफ सुगंध फैलाती है, कभी दुर्गन्ध नहीं देती है उसे चाहे काँटों पर बिखेर दें, तो उसे भी सुगंधित कर देती है। इसी प्रकार परमात्मा का नूर सर्वत्र समाया हुआ है। अपने घट के भीतर साक्षात्कार करने पर ही जीवन सफल सार्थक सिद्ध होता है। जन-साधारण को परिचित कराने के लिये संत कबीर ने परम तत्व की तुलना उनके उपमानों जैसे हीरा, मोती, कस्तूरी, सजीवन बूटी, लाल की लाली से की है। और अपने भीतर पाने के लिए पे्ररित किया है। संसार से जोड़ने वाले तो बहुत मिल जायेंगे, लेकिन परमात्मा से जोड़ने वाले तो संत सद्गुरू ही होते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि संत कबीर ने प्रत्येक मनुश्य को भीतर के विराट से परिचित कराया है और उसी की उपासना का आह्वान किया है।
संत कबीर ने जिस शाश्वत् सत्य का संदेश दिया है, उसका मूल्य कभी कम ना होगा। जिस काव्य में चिरंतन मानवीय संवेदना हो, अनुभूति की उदात्तता हो, विराट चेतना हो तथा सबसे अधिक मर्मस्पर्शी जीवन-दृश्टि हो उसे काल के विनाशकारी हाथ कभी छू भी नहीं सकते। जब-जब असत्य का प्रकोप बढ़ता है, सत्य उतना ही अधिक प्रासंगिक हो जाता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम कबीर साहब के अमर संदेश को अपने जीवन में, आचरण में उतारें तभी विश्व मानवता का कल्याण होगा और ‘‘एकै पवन, एकहि पानी, एकै ज्योती संसारा‘‘ का उनका आह्वान पूरा हो सकेगा। संत कवि कबीर के बारे में हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पंत जी का यह कथन पूर्णतया सत्य और समीचीन है -
‘‘निसंदेह आज के युग की दुर्गम, दुर्निवार समस्याओं का यदि कहीं समाधान है, तो वह कबीर के पास है। कबीर ही आज के युग के जनकवि और भावी मानवता के युग कवि हैं। जब-जब विश्व में महाक्रान्ति के युग आते हैं, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्य विघटित होने लगते हैं, तब-तब कविर्मनीशी कबीर अपने रहस्यमय योग के प्रकाश से, अतीत की जड़ता को भावी चैतन्य की ओर अग्रसर करने की पे्ररणा देते हैं।‘‘8
मानवता के पर्याय संत कबीर की वाणियों की चर्चा आज पूरे विश्व में हो रही है तथा अनेक शोध कार्य किये जा रहे हैं।
संदर्भ ग्रन्थ सूची
1. द्विवेदी आचार्य हजारी प्रसाद/कबीर/पृश्ठ 185/राजकमल प्रकाशन, दिल्ली सन् 1973.
2. श्रोत्रिय, प्रभाकर/वागर्थ ‘कबीर विशेशांक‘/मार्च-अप्रैल, 2010/सम्पादकीय/भारतीय भाशा परिशद, कलकत्ता.
3. कबीर ग्रंथावली/पृश्ठ 64/नागरी प्रचारिणी सभा काशी/ संवत् 2036 वि.
4. साहेब आचार्य गृन्धमुनि नाम/पिव बड़ सुन्दर सखी/पृश्ठ 09/श्री सद्गुरू कबीर धर्मदास साहेब वंशावली प्रतिनिधि सभा, दामाखेड़ा, रायपुर/सन् 2011.
5. डा. युगेश्वर/कबीर समग्र/पृश्ठ 453/हि.प्र. संस्थान वाराणसी/सन् 1998.
6. गीता/18/61/पृश्ठ 261/गीता पे्रस, गोरखपुर/संवत् 2044.
7. साहेब आचार्य गृन्धमुनि नाम/ज्ञानपयोनिधि/पृश्ठ 163/श्री सद्गुरू कबीर धर्मदास वंशावली प्रतिनिधि सभा, दामाखेड़ा/ सन् 2012.
Received on 20.05.2015 Modified on 08.06.2015
Accepted on 21.06.2015 © A&V Publication all right reserved
Int. J. Rev. & Res. Social Sci. 3(2): April- June. 2015; Page 66-69