आरक्षण व्यवस्था का सैद्धान्तिक दृष्टिकोण
जी.एस. धु्रवे
सहायक प्राध्यापक, राजनीति विज्ञान,शास. महाविद्यालय पथरिया, मुंगेली (छ.ग.)
किसी भी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन प्रणाली में यदि मनुष्य को जन्म के आधार पर सम्मानित अथवा अपमानित किया जाता है, तो ऐसी व्यवस्था का आधार कदापि न्याय कार्य तथा समानतावादी नहीं कहा जा सकता। भारत देश में तो प्राचीनकाल से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक जन्म के आधार पर कुछ समूहों को राष्ट्रीय मुख्य धारा से पृथक करने या रखने की एक परम्परा रही है। अमानुषिक अलगाव और अपमान का अहसास कितना हृदय विदारक है, और इसकी पीड़ा कितनी कष्टदायक है, इसे वहीं समझ सकता है, जिसने कभी इसका स्वयं अनुभव किया हो।
हमारा समाज आरम्भ से ही वर्ण-व्यवस्था के आधार पर लगभग चार जातियों में विभाजित रहा है, और यह स्थिति आज भी विद्यमान है। इसके कारण विद्या,धन, सम्पत्ति और राजसत्ता, सम्मान और प्रतिष्ठा शीर्ष की कुछ उच्च जातियों में सीमित रहे है और नीचे की विशाल जनसंख्या, जो महिलाओं को मिलाकर 90 प्रतिशत है, इन सुविधाओं तथा सम्मान से वंचित रही। समाज के इस संतुलन को ठीक करने के लिए समय-समय पर हमारे यहां उनके आन्दोलन हुए है। स्वतंत्रता आन्दोलन के समक्ष भी यहीं आदर्श था कि समाज के सभी वर्गो में विद्या, धन, सम्पत्ति और राजसत्ता का समुचित वितरण हो, ताकि सदियों से बना मानवीय असंतुलन मिटे और समतामूलक समाज की स्थापना हो।
स्वतंत्र भारत मे, हमारे संविधान निर्माता उपरोक्त सभी तथ्यों से भलीभांति अवगत थे। उन्होनें अपनी राजनीतिक शासन प्रणाली में मूलभूत शासन प्रणाली का प्रयास किया, ताकि इस अनिष्टकारी व्यवस्था का अभिशाप मिट जाएं। इसके लिए आवश्यक था कि समाज के निम्न स्थिति वालों को विशेष वरीयता तथा अवसर दिये जाए। इसलिए मूल सिद्धांत को हमारे संविधान में मान्यता दी गयी, और तद्नुसार आरक्षण की व्यवस्था की गयी। संविधान निर्माताओं का विश्वास था कि आरक्षण व्यवस्था से सामाजिक समुदायों में निम्न व अस्पृश्य माने जाने वाले दलित या पिछड़े व्यक्ति कुछ समय पश्चात् सामाजिक और राजनीतिक सहभागिता को प्राप्त कर लेगें।
आरक्षण से अभिप्राय:
आरक्षण हमारे दिन-प्रतिदिन के काम में प्रयोग होने वाले शब्द है। इसका प्रयोग विभिन्न हितों एवं उद्देश्यों की पूर्ति के लिये किया जाता है। आरक्षण के संबंध में यह एक यथार्थ तथ्य है कि जिसके लिए भी यह प्रयोग किया जाता है, वह इससे अवश्य ही लाभान्वित होता है, क्योंकि हम नित्य ही रेलों एवं बसों में टिकटों का पूर्व आरक्षण चाहते है। इस संदर्भ में यह भी एक सत्य है कि ‘‘प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रूप में सदैव आरक्षण का प्रयोग करता है, परन्तु आरक्षण शब्द को विशेष अर्थो में प्रयोग किया गया है, जिसका यहाँ पर आशय समाज के पिछड़े वर्गो के उत्थान की नीति से संबंधित है।’’1
उपरोक्त उद्देश्य की भावना के अनुरूप आरक्षण शब्द का प्रयोग देश-विदेश में अनेकानेक शब्दों में से किया जाता है, जैसे कि ‘‘संरक्षात्मक विभेदीकरण्, प्रतीकात्मक विभेदीकरण, रक्षात्मक विभेदीकरण, सकारात्मक विभेदीकरण, सामाजिक वरीयता इत्यादि विभिन्न नामों एवं उपनामों से जाना-पहचाना जाता है। परन्तु शब्द चाहे कोई भी क्यों न हो, भावना सबकी भारत में, अमेरिका अथवा अन्य देशों में समान है। लेकिन फिर भी आरक्षण तथा सकारात्मक विभेदीकरण ही ज्यादा लोकप्रिय है।’’2
‘‘आरक्षण का तात्पर्य प्रतियोगिता के नियमों में कुछ शिथिलता रखते हुए अविकसित और विशेषाधिकारहीन समुदाय/वर्ग के लोगों को सफलता के उचित एवं बेहतर अवसर प्रदान करता है। इसमें यह भावना अन्तर्निहित है कि इस व्यवस्था से किसी ज्यादा बेहतर एवं प्रभावशील अभ्यर्थी को शैक्षिक संस्था या सेवा विशेष से वंचित किया जा सकता है।’’3 भारत के साथ-साथ आरक्षण की व्यवस्था का उदाहरण अनेक देशों में भी देखा जा सकता है, जैसे ‘‘अमेरिका, साईप्रास, नाईजीरिया, पाकिस्तान (महिला व अल्पसंख्यक), लेबनान, मलेशिया इत्यादि। अनेक राष्ट्र है, जहाँ पर विधायिका, सभाओं, सेवाओं अथवा किन्ही अन्य रूपां में आरक्षण की व्यवस्था कायम है।’’4
‘‘अमेरिका के नीग्रो (अश्वेतें) के संबंधों पर डी0सी0 मैगवायर का मत है कि ‘‘आरक्षण ही एक ऐसा साधन है, जो विभेदीकरण के ज्वार की दिशा को भाटे में परिवर्तित कर सकता है।’’5 भारत के संबंध में आरक्षण से अभिप्राय समाज के दलित, कमजोर एवं अन्य के लिए सामान्य चयन की न्यूनतम अर्हता में शिथिलता बरतकर सरकारी सेवाओं में भर्ती अथवा शैक्षिक संस्थानों में प्रवेश का उपलब्ध कराना है। इसके साथ- साथ अनुसूचित जाति तथा जनजातियों के व्यक्तियों हेतु लोकसभा तथा राज्य विधान सभाओं में भी सींटो को सुरक्षित (आरक्षित) रखना सम्मिलित है। आरक्षण नीति को प्रभावशाली बनाने में भारतीय संविधान को एक अनोखा एक संकल्पित दस्तावेज माना जाता है। ‘‘संरक्षण प्रदान करने के संदर्भ में यह अन्य संविधानों की तुलना में ज्यादा उपयोगी सिद्ध हुआ है, क्योंकि भारतीय संविधान पिछड़े वर्गो के लिए प्रदत्त संरक्षात्मक उपायो में अमरीका जैसे पारम्परिक सर्वहितवादी समाज से काफी आगे है।6 यह व्यवस्था विश्व लाभ के दायरे तथा लाभान्वित वर्गो, दोनों की दृष्टि से अनोखी मानी गई है।’’ किंतु यह एक कटु सत्य भी है कि संविधान निर्माताओं ने इस योजना को मजबूरीवश स्वीकार किया, क्योंकि जातियों एवं वर्ग के आधार पर विभाजित भारतीय समाज में सामाजिक क्षमता और कुछ हद तक राजनीतिक संतुलन के कारण इसे स्वीकार किया, क्योंकि जातियों एवं वर्ग के आधार पर विभाजित भारतीय समाज में सामाजिक क्षमता और कुछ हद तक राजनीतिक सन्तुलन के कारण इसे स्वीकार करना पड़ा था। संविधान सभा की इस मजबूरी एवं दुविधा को व्यक्त करते हुए सरदार पटेल ने संविधान सभा में ये विचार व्यक्त किये थे कि ‘‘हमें किसी अन्य संविधान की जानकारी नहीं है, जिसमें कि गारन्टी दी गयी हो, और गुण दोश के आधार पर मारी सामान्य विचारधारा है कि इस प्रकार की गारन्टी एक खतरनाक अविष्कार साबित होगी।’’7
इस प्रकार स्पष्ट है कि पिछड़े वर्गो के उत्थान के लिए जो नीति भारत में आरक्षण कहलाती है उसे ही अमेरिका में अश्वेत पिछड़ों के लिए ‘रिवर्स डिस्कृमिनेशन’ कहा जाता है। इस नीति के अंतर्गत कुछ विशेष वर्गो को सरकार द्वारा रियायतें स्वीकार की जाती है, जिसके अंन्तर्गत शिक्षा संस्थानों व सार्वजनिक सेवाओं में स्थानों का आरक्ष्पण , आर्थिक सहायता, छात्रवृत्तियाँ इत्यादि है। ‘‘यह कोई विशेषाधिकार नहीं है, अपितु शासकीय रियायत है, जिसका प्रधान उद्देश्य सम्बन्धित वर्गो को कोई विशेष लाभ देना नहीं, अपितु धीरे-धीरे उनके आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक स्तर को ऊँचा उठाना है। जिससे इन समुदायों या वर्गो के जीवन स्तर में आधारभ्ूत परिवर्तन आ सके।
आरक्षण के प्रकार:
शैक्षिक संस्थानों और नौकरियों में सीटें विभिन्न मापदण्ड के आधार पर आरक्षित होती है। विशिष्ट समूह के सदस्यों के लिए संभावित पदों को एक अनुपात में रखते हुए कोटा पद्धति को स्थापित किया जाता है। जो निर्दिष्ट समुदाय के तहत् नहीं आते हैं, वे केवल शेष पदों के लिए प्रतिस्पर्धा कर सकते है। जबकि निर्दिष्ट समुदाय के सभी संबन्धित पदों (आरक्षित और सार्वजनिक) के लिये प्रतिस्पर्धा कर सकते है। उदाहरण के लिये रेलवे में जब 10 में से 2 कार्मिक पद सेवानिवृत्त सैनिकों ( जो सेना में रह चुके हैं)के लिए आरक्षित होता है, तब वे सामान्य श्रेणी तथा विशिष्ट कोटों, दोनों ही श्रेणियों में प्रतिस्पर्धा कर सकते है।
आरक्षण की आवश्यकता:
राजनीतिक निर्णयों पर आधारित आरक्षण की नीति की वास्तविक अभिव्यक्ति भारत के संविधान में प्रदत्त कानूनी आदेशों, विधायी उपकरणों, कार्यपालिका के आदेशों तथा न्यायिक निर्णयों से प्राप्त हुई है। महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि ऐसी कौन सी आवश्यकता थी, तथा कौन सी शक्तियां थी, जिन्होने आरक्षण के पक्ष में राजनीतिक निर्णय लेने को बाध्य किया तथा वे कौन से तत्व हैं, जो आरक्षण को वैधता प्रदान करते है।
भारतीय समाज एक अनोखा समाज है, जहाँ पर मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन विधायी कानूनों - आदेशों के साथ - साथ धार्मिक अथवा शाश्वत नियमों से भी संचालित हेाता है। हिन्दू समाज में अनेक कुरीतियाँ अभिशाप बन कर इसको खोखला करती रही है। उन्हीं कुछ कुरीतियों में ‘अश्पृश्यता’ तथा छुआछूत की भावना की प्रबल होना है। देश में एक ऐसा वर्ग भी रहा है, जो सदियों से असमानता और उत्पीड़न को झेलता आया है। यह वर्ग विदेशियों के साथ-साथ स्वदेशियों का भी गुलाम था।9 आदमियों की दुनियाँ में भी जिसके साथ पशुवत व्यवहार किया जाता था। सभी हिन्दू पालतू जानवरों को बड़े प्यार से स्पर्श करते थे, चींटी को शक्कर अर्पित करते थे। इसमें कोई बुराई नहीं थी, परन्तु ये अपने ही स्वधर्मी इन दलित भाइयों के स्पर्श से अपवित्र हो जाते थे।10
‘‘सर्वण व्यक्ति इनकी छाया व स्पर्श मात्र से दूषित हो जाते थे। दलितों की वाणी तक का कान में पड़ना अशुभ माना जाता था। दलित सामाजिक कुओं से पानी नहीं पी सकते थे। मन्दिरों में इनका प्रवेश पूर्ण वर्जित था। इनके बच्चों को पाठशालाओं में केाई प्रवेश नहीं मिलता था। सरकारी नौकरियों में प्रतिष्ठित व्यवसायों में नहीं लिया जाता था’’11
‘‘दलित लोगों को सभी हीन एवं अमानवीय कृत्य करने पड़ते थे। खाने पहनने पर भी स्वर्ण वर्ग का पूर्ण नियंत्रण था। बात केवल यहीं तक सीमित नहीं थी, बल्कि दलित दूल्हे को घोड़े पर चढ़ना मना था, जूते पहनकर गांवों में घूमना भी निषिद्ध था।12
यदि कोई ऐसी हिमाकत करता, तो न केवल उसकी पिटाई होती थी, बल्कि उसे हजार तरह की यातनाओं का शिकार होना पड़ता था। भोजन के लिए उन्हें मृत जीवों के मांस पर निर्भर रहना पड़ता था।13 इस प्रकार भारतीय समाज में असमानता का नंगा नाच जारी था। इस अस्पृश्यता की भावना के कारण समाज का एक बड़ा वर्ग सामाजिक मुख्य धारा से अलग-अलग पड़ गया था, जिसके परिणामस्वरूप राष्ट्र के विकास में इस बहुसंख्यक वर्ग की उर्जा का उचित उपयोग नहीं हो पा रहा था। यह राष्ट्र के सम्मुख एक गम्भीर समस्या थी। दूसरी तरफ राष्ट्र विदेशियों के शासन का गुलाम था, परन्तु यह आवश्यक था कि देश की स्वतंत्रता के साथ-साथ दलितों एवं पिछड़े वर्गो की सामाजिक स्वतंत्रता को स्थापित किया जाए। देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरान्त यह महसूस किया गया कि स्वतंत्रता का लाभ दलितो को भी मिल सके, क्योकि दलित लोग सामाजिक शोषण और अपमान के शिकार रहेंगे, तब तक उनके लिए स्वतंत्रता का कोई महत्व नहीं होगा। वे तो कल भी गुलाम थे, आज भी गुलाम है, और संभव है कि कल भी गुलाम हों। अतः ऐसे पिछड़े नागरिकों के जीवन में पर्याप्त बदलाव या परिवर्तन लाना आवश्यक है।14 प्रारम्भ में अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों को संविधान के अंतर्गत भारतीय नागरिक के रूप में आरक्षण दिया गया। उन्हें यह आरक्षण राजनीतिक निर्णयों के कारण प्राप्त हुआ। आरक्षण के द्वारा उन्हें न केवल आवश्यक सुरक्षा की प्राप्ति हुई, बल्कि राष्ट्रीय जीवन तथा राजनीतिक व्यवस्था सामाजिक जीवन को भी नियंत्रित करती है। राजनीति वात्सव मे आर्थिक, सामाजिक तथा कानूनी वयवस्थाओं को नियंत्रित करती है, जो कि एक आवश्यक परिघटना है।15
अनुसूचित जातियाँ तथा जनजातियाँ अपने निश्चित हितो तथ आकांक्षाओ का प्रगतिनिधित्व करती है। वे चाहती हैं कि उनकी शिकायतों समस्याओं तथा आकांक्षाओं को कोई सुने तथा माने, जिससे नीति निर्धारण की प्रकिया मे उनका प्रतिनिधित्व हो सकें, तथा वे स्वयं को सुरक्षित महसूस कर सकें। यह भी एक यथार्थ है कि अनुसूचित जातियों तथ पिछडे वर्गों का दमन मात्र एक राजनीतिक अथवा सामाजिक घटना नही है बल्कि यह एक सामाजिक तथा सांस्कृतिक प्रक्रिया है। उन्हे दिये गये ये आरक्षण, समाजिक तथा सांस्कृतिक दमन के विरोध मे एक प्रभावकारी उत्तर हैं। वास्तव मे अनुसूचित जातियो एवं पिछडों को प्रदान आरक्षण राजनीतिक तथा समाज को एक-दूसरे के नजदीक लाया है, जो आरक्षण के द्वारा किया जा रहा है।16 इतने पर भी आरक्षण से वंचित समाज इसे स्वीकारने मे हिचक रहा है। ऐसे व्यक्तियों का आरोप है कि अरक्षयण-
(क) किसी वेहतर अभ्यर्थी का हक छीनता है, (ख) अयोग्य अभ्यर्थी को वरीयता देकर समाज को योग्यता और दक्षता के लाभ से वंचित करता है, (ग) आरक्षण लाभार्थी के अन्दर बैशाखी के सहारे चलने का आदी बनाकर हीनता का भाव उत्पन्न करता है इत्यादि। परन्तु उपरोक्त अरोप के विराध में भारतीय संविधान ने आरक्षण के माध्यम से संरचनात्मक विभेदीकरण समता के मूल सिद्धांत ‘समानो मे समान व्यवहार होना चाहिए’ को एक पक्ष माना है। तथा इसके दूसरे पक्ष के अन्र्तगत जहें ऐतिहासिक कारणों से सामाजिक असमानता अंर्तगत है, वही न्याय प्रदान करने के लिए आवश्यक है कि असमान लोगों के बीच असमान व्यवहर किया जाए क्योकि जहां पर कुछ समुदाय सामाजिक रूप से पिछडे और हानिप्रद स्थिति मे हो, वहाँ आवश्यक है कि विशेष सकारात्मक सरकारी संरक्षण की व्यवस्था की जाए, जिससे इस वर्ग के लोग भी समाज के अन्य व्यक्तियों के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकें।18
इस सकरात्मक सरकारी संरक्षण की आवश्यकता पडती है कि सरकार तटस्थ रहकर कुछ न करे तो समाज मंे व्याप्त असमानता शाश्वत एवं स्थायी रूप ले लेगी। सरकार द्वारा किए गये ऐसं कृत्य सामान्यतः आरक्षण के अन्तर्गत कमजोर और दलित वर्गो के उन्नयन के लिए बनाए जाते है ऐसे सिद्धांतो के अन्तपीढी न्याय भावना का वाहक माना जाता है, जिसका अभिप्राण यह है एक वर्ग का उस संवर्ग द्वरा पूर्व पीढ़ी उठाई गयी हानि के लिए जिसके कारण उसकी वर्तमान हानि बरकरार है, के लिए प्रतिकार किया जाता है। परन्तु उपरोक्त उक्त सिद्धांत की वर्तमान में अलोचना की जा रही है। आलोचको का मत है कि यह न्याय भावना का अंग नहीं हो सकता कि किसी के पूर्वजों ने किसी वर्ग के पूर्वजों के साथ अगर कोई अन्यय या भेदभाव किया है, और अब उनकी संतानों को उसके लिए दण्डित किया जाए। इस संदर्भ मे श्री एस0सी0 मित्र, इण्डिय एक्सप्रेस के माध्यम से पूछते है कि‘‘ क्या मि0 जेठमलानी किसी बच्चे को उसके प्रपितामह द्वारा किए गये खून के लिए फांसी की सजा की दलीत दे सकते है।20
अतः यह अवश्यक है कि वर्तमान स्थिति को गम्भीरता से लिया जाए, तथा उन कुछ समुदायों को उभरने का कुछ विशेष अवसर दिया जाए, जिन्हें इतिहास मे कुछ ज्यादा वंचित किया गया है, क्योंकि आरक्षण के मूल सिद्धांत में भी यही भावना निहित हैं।
आरक्षण का उद्देश्य:
आरक्षण प्रदान करने के क्या उद्देश्य हो सकते है, यह एक वाद-प्रतिवाद का विषय है। परन्तु मोटे रूप में आरक्षण के दो प्रमुख उद्देश्य देखे जा सकते है -
1. सामाजिक न्याय प्रदान करना:-
इसके अंतर्गत ऐसे लोगों को सम्मिलित किया जाता है, जिन्हे संवैधानिक भाषा में परिगणित जाति और जनजाति के नाम से जाना जाता है, जो सभी दृष्टियों से पिछड़े है। अतः इन समुदायों को आरक्षण के माध्यम से विशेष सुविधा प्रदान करना सामाजिक न्याय की उपलब्धि का उद्देश्य तो पूरा करता है, साथ ही साथ यह राष्ट्रीय समस्या का समाधान भी ढूंढता है, जिससे कि समाज के कुछ वर्गो के लोग अपने को राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग-थलग महसूस न करें।
2. राजनीतिक सन्तुलन कायम करना:-
जब पिछड़े वर्गो की बात आती है, तो इसका प्रयोग यहाँ विशेष जातियों तथा जनजातियों के अतिरिक्त पिछड़ा वर्ग वह है, जिसका पिछड़ापन अभी तक संदिग्ध है, जिसके वर्तमान में अन्य पिछड़े वर्ग के रूप में मान्यता प्रदान की जा रही है। इस वर्ग को आरक्षण की सुविधा देने में सामाजिक न्याय की भावना कम है और राजनीतिक संतुलन की भावना अधिक है। यह समस्या संविधानोत्तर काल की उपज है, क्योंकि आरक्षण विरोधी, अनुसूचित जाति व जनजाति को प्रदान आरक्षण नीति या योजना और अन्य पिछड़े वर्गो के लिए निर्धारित आरक्षण योजना में स्पष्ट विभेद नहीं कर पा रहे है, जबकि दोनों समुदायों को प्राप्त आरक्षण योजना एवं लाभान्वित व्यक्तियों में काफी अंतर है।
निष्कर्ष:-
आजादी के समय न्याय और विकास की जो परिकल्पना महात्मा गाँधी और डाॅ. अम्बेडकर ने की थी, उससे आज हम विपरीत दिशा में चल रहे हैं। गाँधी जी कहते थे कि न्याय और विकार कार्यो की दिशा नीचे से ऊपर की ओर होनी चाहिए। अर्थात विकास का लाभ सर्वप्रथम उसे मिलना चाहिए जो सबसे अधिक शोषित और दमित है, जबकि वस्तुस्थिति इसके बिल्कुल विपरीत है। पूंजीपति पहले से अधिक धनी हुए है। उदारीकरण के बाद करोड़पतियों की संख्या बढ़ी है। मध्यम वर्ग पहले से अधिक समृद्ध हुए है, जबकि दलित वर्गो की दशा पहले से और भी खराब हुई है। अतः यह सामाजिक न्याय पर आधारित विकास नहीं है।
आरक्षण नीति भारत में हिंसात्मक रूप में दिखाई देती है। इसके पक्ष तथा विपक्ष दोनों आंदोलनों ने एक भयानक और गन्दा आकार देश के विभिन्न भागों में ले लिया है। अनारक्षित वर्ग योजना को प्रमुख मानना है। इसका मानना है कि यदि आरक्षण को सही बनाना है, तो यह आर्थिक पिछड़ेपन पर आधारित होना चाहिए, न कि केवल जाति पर, लेकिन आरक्षण को जातीय आधार पर लागू किया जाता है न कि सामाजिक व आर्थिक पिछ़डेपन के आधार पर। यदि आरक्षण हो भी, तो यह केवल चयन के समय पर होना चाहिए, प्रमोशन के लिये नहीं। जबकि दूसरी तरफ आरक्षित वर्ग का कहना है कि पिछड़ेपन को निश्चित करने में जाति एक सही चुनाव है।
आरक्षण एक बहुत भयानक विषय है इसके कारण हाल के समय में काफी विवाद उत्पन्न हुआ है, जिससे देश के कुछ भागों में हिंसा भी हुई हैं इसलिए यह आवश्यक प्रतीत होता है कि इसके प्रभाव और भूमिका के सभी पक्षों का वैज्ञानिक उद्देश्यात्मक तथा अनुभवमूलक अध्ययन किया जाए।
संदर्भ‘ः
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2. उपेन्द्र बक्शी: पोलिटिकल जस्टिस एण्ड, लेजिस्टनैटिव रिजर्वेशन फार सेड्यूल कास्ट एण्ड सोशहाचेंज (दि अम्बेडकर मेमोरियल लेक्चर), 1978, पृ. - 41
3. डी.सी. मैगवायर: अनइक्वल बटफेयर, कामन वेल्थ 647-52 (14 अक्टूबर 1971) का उल्लेख, अनिरूद्ध प्रसाद सामाजिक न्याय और राजनीतिक संतुलन पब्लिकेशन, जयपुर, 1991, पृ. - 131
4. वही, पृ0-17-18
5. संसदीय बहस, भाग - 5 1997, पृ. - 270
6. ग्लाटर मोरे: कम्पीटिंग इक्वलटीज, 1989,पृ. -71
7. के0एस0 भारती: फाउण्डेशन आॅफ अम्बेडकर थाट, नई दिल्ली, 1990, पृ.51
8. वीर धनंजय: डाॅ0 अम्बेडकर - लाइफ एण्ड मिश्न, बम्बई, 19981, पृ0 - 2281
9. वही, पृ0 - 881
10. डाॅ0 बी0आर0 अम्बेडकर: स्टेट एण्ड माइनारिटीज, बम्बई, 1947, पृ0 39-40
11. वीर धनंजय: डाॅ0 अम्बेडकर लाइफ एण्ड मिशन, बम्बई , 1981, पृ. - 106
12. युडिन, पइ0: सोवियत प्रेस, 1951, 265 का उल्लेख सदाशिव, डी0एन0 रिजर्वेशन फार जस्टिस, 1986, पृ. - 12
13. सदाशिव डी0एन0, पृ0 - 14
14. उपेन्द्र बक्शी: द इण्डियन सुप्रीम कोर्ट एण्ड पोलिटिक्स, पृ0 27 का उल्लेख, सदाशिव, डी0एन0, पृ0 - 13
15. धारेन्द्र बनाम लीगल रिसेम्ब्रसर (1995),
एम0सी0 आर0 224
16. चिंरजीलाल बनाम भारत संघ (1950), एस0सी0आर0 8.691
17. जेठ मलानी: मण्डल विीजिटेड, इण्डियन एक्सप्रेस दिल्ली, दिनांक 28.09.90, पृ0 - 81
18. डाॅ0 एस0वी0 मिश्र: इण्डियन एक्सप्रेस, दिल्ली 18.10.1990, पृ.-80
19. वर्तमान अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों को पूर्व में परिगणित अथवा अछूत अस्पृश्य के रूप में जाना जाता था। वह अब संवैधानिक रूप से अनुसूचित वर्ग है।
Received on 28.05.2015 Modified on 10.06.2015
Accepted on 25.06.2015 © A&V Publication all right reserved
Int. J. Rev. & Res. Social Sci. 3(2): April- June. 2015; Page 70-74