प्रसाद के गीतों का अभिव्यंजना शिल्प
बृजेन्द्र पाण्डेय
सहायक प्राध्यापक, मानव संसाधन विकास केन्द्र, पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर
*Corresponding Author E-mail: brijpandey09@gmail.com
भाषा
भाषा अभिव्यक्ति का श्रेष्ठ माध्यम है । इस माध्यम से लोग अपने हृदय के भावों को सरल तथा स्पष्ट रूप से गहराई के साथ व्यक्त कर सकते हैं । अतः यह साधन जितना अधिक विकसित, पुष्ट एवं सुसंस्कृत होगा, कवि की वाणी में उतनी ही सरलता और स्पष्टता होगी । किसी भी कवि की प्रारम्भिक रचनाओं में उनकी भाषा सुन्दर एंव परिष्कृत नहीं होत, वरन् उसके परवर्ती रचनाओं में ही, निरन्तर अभ्यास के कारण, भाषा सुगठित एवं सरस होती है । प्रसाद जी भी इसके अपवाद नहीं हैं । प्रसाद जी ने प्रारम्भ में ब्रज भाषा को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया, परन्तु जब उन्होनें यह अनुभव किया कि ब्रज भाषा उनके हृदय के कोमल एवं सूक्षम भावनाओं को व्यक्त कर सकने में पर्याप्त नहीं है, तो उन्होनंे अपने भावों के अनुरूप ही सशक्त एवं सरस भाषा की खोज प्रारम्भ की । उन्होनंे खड़ी बोली का आलम्बन लिया । खड़ी बोली में उन्होनंे अनेक कवितायें रची, किन्तु सन्तुष्ट न होकर उन्होनें उसे अधिक सूक्ष्म, माॅसल, कोमल और सरस बनाने का प्रयत्न जाी रखा ।
इस प्रकार ‘‘पे्रम पथिक‘‘ से आरम्भ कर ‘‘महाराणा का महत्व‘‘ और ‘‘झरना‘‘ आदि में उन्होने जो काव्य रचना की थी, ‘‘लहर‘‘ में उनमें सरसता आयी और ‘‘आंसू‘‘ में पहुंच वह इतनी आर्द्र हो उठी कि उसके माध्यम से उन्होने अपने हृदय के आह और उच्छंवास को साकार कर दिया ।
महाकवि प्रसाद की भाषा सरस, कोमल, स्निग्ध और भावों के अनुकूल हैं । उनकी भाषा की विशेषताओं का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं पर किया जा सकता है-
(क) चित्रात्मकता एवं मूर्तिमत्ता:-
कलाकार अपनी अनुभूतियों को शब्दों के माध्यम से मूर्त प्रदान करता है । कवि की भाषा में जितनी अधिक चित्रात्मकता एवं मूर्तिमत्ता होती है, उतना ही वह श्रोता या पाठक को अपने अभीष्ट भाव को हृदयंगम करवा सकती है । प्रसाद जी एक कुशल चित्रकार एवं मूर्तिकार हैं । दृश्य चित्रण के अन्तर्गत उन्होने प्रकृति के अनेक मनोरम तथा रंगीन दृश्यों की परियोजना की है । मूर्तिकरण में तो प्रसाद जी सिद्धहस्त हैं । इस दृष्टि से वे केवल स्थूल जगत से ही नहीं, वरन् सूक्ष्म भाव जगत को भी मूर्त रूप में प्रस्तुत किया है । प्रकृति चंचला बाला का यह चित्र कितना सजीव है-
उच्च शैल शिखरों पर हंसती,
प्रकृति चंचला बाला ।
धवल हंसी बिखराती अपनी,
फैला मधुर ज्वाला ।
(ख) संगीतात्मकता एवं मधुर पदावली:-
छन्द - बद्ध काव्य की भाषा का यह एक आवश्यक गुण है । गहन अनुभूति तथा कोमल भावों की अभिव्यंजना, साहित्यिक गीतों की विशेषता होती है। कोमल भावों के अनुसार भाषा स्वयं ही मधुर हो जाती है । प्रसाद जी की भाषा में मार्धुय गुण पर्याप्त मात्रा में हैं, वह कोमल और प्रवाहमयी है । शान्त प्रकृति, मधुर यौवन तथा प्रेम के गीतों के लिये वह अधिक उपयुक्त है । उनके गीत पूर्णतः संगीतात्मक हैं-
प्यारे मेरे श्यामल अम्बर में
जब कोकिल की कूक अधीर।
नृत्य शिथिल बिछली पड़ती है
वहन कर रहा उसे समीर ।
(ग) ध्वन्यात्मकता -
प्रसाद जी की भाषा का ध्वन्यात्मक सौन्दर्य भी दर्शनीय है । उन्हें सभी मधुर ध्वनियां प्रिय हैं । यहीं कारण है कि पक्षियों के कूंजन, लहरों के गान, झरनों के कलकल स्वर की ध्वनियां उनके साहित्य में भी सुनी जा सकती हैं । केवल यही नहीं, भयानक वातावरण में भी उनके काव्य में मधुर नूपुर, कलरव, राग एवं लय के अभिसार की ध्वनियां सुनायी देती हैं-
कंकण क्वणित रणित नूपुर से,
निलते थे छाती पर हार,
मुखरित था कलरव गीतों में,
स्वर लय का होता अभिसार ।
प्रसाद जी की भाषा मंे प्रसाद गुण है । उनकी भाषा भाव तथा प्रसंग के अनुसार ही चलती है । उनके गीतों की भाषा में मधुवाही प्रवाह है । यह प्रवाह सहज है और इसीलिये यह चित्त को आकर्षित कर लेता है । यथा -
यह नीड़ मनोहर कृतियों का
यह विश्व कर्म रंगस्थल है
है परम्परा लग रही यहां ,
वे कितने ऐसे होते हैं,
जो केवल साधन बनते हैं
आरम्भ और परिणामों के
सम्बन्ध सूत्र से बुनते हैं ।
उनके शब्द शिल्प में संक्षिप्तता हैं, उनमें एक - एक शब्द के माध्यम से पूरा का पूरा चित्र भी उपस्थित कर देने की क्षमता है । चकित पुकार, करूणार्द्र कथा, मधुर मरोर, अलस हास, मधुर गान, कनक प्रभात आदि कुछ ऐसे शब्द हैं जिन्हें प्रयोग के कारण ही उनकी कविता में चित्रमयता का गुण आ जाता है ।
उन्होने अपने गीतों में लक्षणा शब्दशक्ति का प्रयोग किया है-
सो रहा पंचनद आज इसी शोक में उक्त पंक्ति में कवि ने पंचनद द्वारा पंचनद के लोगों की सुप्तावस्था का वर्णन किया है ।
है लाज भरे सौन्दर्य ।
बता दो मौन बने रहते हो क्यों ।
इन पंक्तियों में शुद्धा लक्षण का सफल प्रयोग हुआ है ।
हिलते द्रम दल कल
देती गलबाॅही डाली
फूलों का चुम्बन छिड़ती
मधुपों की तान निराली ।
और भी -
हिमगिरि के ऊतंग शिखर पर
बैठ शिला की शीतल छाॅह
एक पुरूष भीगे नयनों से
देख रहा था प्रलय प्रवाह ।
प्रसाद जी के भाषा सौन्दर्य का प्राण करूणा है । रस की करूणा नहीं, भाषा की करूणा । रस की करूणा तो विशेष भावों के उत्पादन पर आश्रित है और उसका स्थायी भाव होता है करूणा । कवि ने स्वयं ही भाषा को हृदय के मूल काव्य रस के पहुॅचा देने का प्रयत्न किया है । उसका सौन्दर्य कितना अभूत हो चला है । वह कहता है -
अधर में वह अधरों की प्यास
नयन मंे दर्शन का विश्वास
धमनियों में आलिंगन मयी
वेदना लिये व्यथायें नयी,
टूटते जिससे सब बन्धन
सरस सीकर से जीवन कम ।
झील में झाई पड़ती थी,
श्याम बनशाली तट की कान्त
चन्द्रमा नभ में हंसता था,
बज रही थी वीणा अभान्त ।
तृप्ति में आशा बढ़ती थी,
चन्द्रिका में मिलता था ध्वान्त
गगन मंे सुमन खिल रहे थे,
मुग्ध हो प्रकृति स्तब्ध थी शान्त ।
‘‘झरना‘‘ के उक्त उद्धरण में कवि में भाषा - चैतन्य की कमी है । शब्द आये हैं, बस वे आ गये हैं किन्तु फिर भी उनके विन्यास में कवि करूणा बैठाये हुए हैं । यह भाषा का कारूण्य उनके नाटक के गीतों में भी विद्यमान है और कामायनी में तो बहुत ही स्पष्ट है ।
झंझा झकोर गर्जन था,
बिजली थी नीरद माला ।
पाकर शून्य हृदय मेरा,
सबने आ डेरा डाला ।
प्रसाद जी ने यहां हृदय की वेदना, तड़पन, दाह, सन्ताप, आदि को अभिव्यक्ति देने के लिये झंझा, गर्जन, बिजली, मीरद, माला आदि प्रतीकों को अपनाते हुए हृदय को उधान मानकर उसे भावनाओं से विहीन दिखाने के लिये यह लिखा -
पत्झड़ था झाड़ खड़े थे,
सूखी सी फुलवारी में ।
किसलय दल कुसुम बिछाकर
आये तुम उस क्यारी में ।
लेकिन कोमल पक्षों का उद्घाटन करने के लिये जीवन के सुख को साकार करने के लिये प्रिया के अलकों, मुख और भुजाओं के सौन्दर्य से पाठकों को परिचित कराने के लिये उन्होंने जो शब्द योजना की है उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें भाषा का पण्डित न कहकर शब्दों का जौहरी और पदों का पारखी कहते हुए सरस्वती की वीणा की कोमल झंकार की संज्ञा भी दी जाये तो वह सर्वथा समीचीन होगी ।
प्रसाद जी ने अपने हृदय के भावों को अभिव्यक्ति देने के लिये कभी सीधी - सादी पदावली को अपनाकर हमेशा लाक्षणिक अथवा व्यंजनात्मक पदावली को ही प्रयुक्त किया है । इसलिये वे हृदय की सरस्ता के लिये ‘‘क्यारी‘‘ शब्द का प्रयोग किया करते हैं । विषाद अथवा विचारों या भावनाओं की घुमड़न को यदि वे तूफान के रूप में मानते हैं तो सरस भावोें को लघु लहरों के रूप में स्वीकार करते हुए ‘‘उठ उठ री लघु लोल लहर‘‘ के रूप में गुनगुनाने लगते हैं । इसलिये उनकी भाषा कहीं खग-कुल का ‘‘कुल कुल‘‘ सुनाती है तो कहीं कठोर लहरियों का गर्जन सुनाकर परिस्थिति की वीभत्सता को साकार कर दिया करती है ।
संदर्भ ग्रन्थ सूचीः-
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07. जयशंकर प्रसाद, स्कंदगुप्त, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-2002
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09. शेर सिंह का समर्पण- जयश्ंाकर प्रसाद
10. ’जागो फिर एक बार’ सूर्यकान्त त्रिपाठी “निराला“ पृष्ठ क्र. 15
11. आंसू- जयशंकर प्रसाद
12. “आधुनिक कवि“- महादेवी वर्मा पृष्ठ क्र. 202
13. ’अपरा’ सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला पृष्ठ क्र. 12
14. ’लहर’ जयश्ंार प्रसाद- पृष्ठ क्र. 19
15. ’कामायनी’ जयश्ंार प्रसाद- पृष्ठ क्र. 25
Received on 20.07.2015 Modified on 12.08.2015
Accepted on 13.09.2015 © A&V Publication all right reserved
Int. J. Rev. & Res. Social Sci. 3(3): July- Sept., 2015; Page 103-105