भारत में नियोजन का विकास पर एक नजर
रमेश प्रसाद द्विवेदी
परियोजना निदेशक व पोस्ट डाक्टोरल फैलो, श्रीनिवास बहुउद्देशीय संस्था,
81 नयनतारा, फूलमती ले आउट (जयवंत नगर), एन.आय.टी. गार्डेन के पास, नागपुर-440027, महाराष्ट्र
*Corresponding Author E-mail: dr_rdwivedi@rediffmail.com
संक्षेपिका
स्वतंत्रता के 68 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं इसके बावजूद भी हम देश को वह सब कुछ भी नहीं दे सके जिनकी आवश्यकता थी। प्रस्तुत आलेख देश के विकास व नियोजन के लिए अत्याधिक महत्वपूर्ण होगा, क्योंकि इससे भविष्य में जिला नियोजन समिति एवं पंचायती राज व्यवस्था की कार्यप्रणाली में आने वाली समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। राज्य की जिला नियोजन समितियों के माध्यम यह अध्ययन संशोधकों, नीति-निर्माताओं, सरकारी व गैर सरकारी संगठनों के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होगा। यह विद्यार्थियों के लिए ज्ञानवर्धक होगा जोकि उनके लिए अनुसंधान में नए-नए आयाम निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान करेगा।
शब्द कुंजी योजना आयोग, राज्य योजना आयोग, विकेन्द्रीकृत नियोजन ।
प्रस्तावना:
आधुनिक युग नियोजन का युग हैं। और विश्व में लगभग सभी देशों में अपने विकास व उन्नति के लिए नियोजन में जूटे हुए हैं। यह एक ऐसी विवेकपूण प्रक्रिया है, जो समस्त मानव व्यवहार में पायी जाती है। किसी भी विकासशील या अर्धविकसित देशों के लिए, जहां सीमित संसाधनों द्वारा और निश्चित समय के भीतर बहुत सा काम करना होता है, नियोजन का विशेष महत्व है। भारत में भी और विकासोन्मुख अर्थव्यवस्था वाले देशों में नियोजन ही ऐसा मार्ग है, जो अर्थव्यवस्था को पूर्ण या पूरक अवस्था तक ले जा सकता है। प्रायः यह निश्चित है कि ‘‘सभी संगठनों को, यदि वे अपने उद्देश्यों में सफलता पाना चाहते है, तो उन्हें योजना का निर्माण करना चाहिए।’’1
परिभाषा
नियोजन से अभिप्राय हैं ’उचित रीति से सोच विचार कर पग उठाना।’ ‘फेयोल के अनुसार नियोजन का आशय हैं ’पूर्व दृष्टि‘ इससे आशय आगे की ओर देखना हैं ताकि यह स्पष्ट पता चल जाय कि क्या-क्या काम किया जाना हैं? प्रत्येक वह क्रिया नियोजन क्रिया कहलाती हैं, जो दूरदर्शिता, विचार-विमर्श तथा उद्देश्यों एवं उनकी प्राप्ति हेतु प्रयुक्त होने वाले साधनांे की स्पष्टता पर आधारित हो अर्थात् किसी कार्य के लिए पूर्व तैयारी ही नियोजन हैं। भारतीय योजना आयोग के अनुसार ‘‘नियोजन साधनों के संगठन की एक विधि हैं, जिसके माध्यम से साधनों का अधिकतम लाभप्रद उपयोग निश्चित सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति हेतु किया जाता है।’’ संक्षेप में, किसी निर्धारित उद्देश्य को प्राप्त करने के किसी सर्वोत्तम मार्ग के चुनाव तथा विकास की चेतन प्रक्रिया की नियोजन कहलाती है। यह एक व्यापक शब्द है और इसके अन्तर्गत अनेक कियाएं आती है, जैसे- उद्देश्य का निश्चित करना, उद्देश्य की प्राप्ति कि लिए कार्य के संभावित मार्गों पर विचार करना एवं सर्वोत्तम कार्यवाही का चुनाव करना। इस प्रकार नियोजन एक विवेकपूर्ण, गतिशील तथा पूर्ण प्रक्रिया है।2
नियोजन की आवश्यकता व कारण
नियोजन वर्तमान काल की नूतन प्रवृति हैं। उन्नीसवीं शताब्दी में पूंजीवाद, व्यक्तिवाद एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता का बोल-बाला रहा और अधिकांश राष्ट्र ‘उन्मुक्त व्यापार नीति’ व ‘आर्थिक स्वतंत्रता’ के सर्मथक रहे हैं। किन्तु गत् अर्ध-शताब्दी में रूसी क्रांति, विश्वव्यापी आर्थिक मंदी, दो भीषण महायुद्धों, तकनीकी प्रगति, नवजात, सामाजिक-आर्थिक समस्याओं आदि के कारण राष्ट्रांे एंव अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक नियोजन के महत्व को समझा और नियोजित आर्थिक व्यवस्था अपनाने पर जोर दिया। अतः नियोजन के कारण निम्न प्रकार हैः-
ऽ देश की निर्धनता तथा अन्य समस्याएं।
ऽ विभाजन से उत्पन्न आर्थिक संतुलन एवं अन्य समस्याएं।
ऽ बेरोजगारी की समस्याएं।
ऽ औद्योगीकरण की जरूरत।
ऽ सामाजिक तथा आर्थिक विषमताएं।
ऽ देश का पिछड़ापन, ‘मंद गति से विकास’, जनसंख्या वृद्धि इत्यादि।
अतः उपरोक्त अंकित समस्त समस्याएं एक दूसरे पर आधारित हैं। इसलिए समस्याओं के निवारण व राष्ट्र के समुचित आर्थिक विकास के लिए नियोजन अति अनिवार्य हैं।3
नियोजन का उद्देश्य
नियोजन हमेशा उद्देश्य की ओर इंगित करता हैं और उद्देश्य सामाजिक, आर्थिक होते हैं। आर्थिक नियोजन के उद्देश्य के माध्यमों से ही सामाजिक एवं राजनीतिक उद्देश्य की प्राप्ति कर सकता हैं नियोजन के उद्देश्य अल्पकालीन व दीर्घकालीन हो सकते हैं। आर्थिक नियोजन को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39 के अनुसार लोक कल्याण एवं न्याय की प्राप्ति के लिए अपनी नीति इस प्रकार निर्देशित करेगा कि-
ऽ सभी नागरिक स्त्री-पुरूषांे को समान रूप से जीवन निर्वाह के लिए पर्याप्त साधन प्राप्त हो सके।
ऽ स्त्री-पुरूषों को समान कार्य के लिए समान वेतन।
ऽ सार्वजनिक हित के विरूद्ध धन के केन्द्रीकरण को रोका जाये।
ऽ जनकल्याण हेतु समाज के भौतिक साधनों का स्वामित्व एवं नियंत्रण का समुचित विवरण हो।4
आर्थिक उद्देश्य
ऽ साधनों का अधिकतम एवं विवेकपूर्ण विदोहन: राष्ट्र में उपलब्ध मानवीय एंव प्राकृतिक संसाधनों का उचित, विवेकपूर्ण एंव अधिकतम विदोहन करना आर्थिक नियोजन का प्रमुख उद्देश्य हैं।
ऽ रोजगार में वृद्धि: देश के सर्वागीण विकास के लिए कार्यक्रम तैयार करना ताकि अधिकतर लोगांे को रोजगार मिल सके एवं बेरोजगारी की समस्या का निवारण हो सके।
ऽ पिछडे़ क्षेत्रों का विकास: आर्थिक नियोजन का उद्देश्य केवल तीव्र विकास से नही, बल्कि संतुलित विकास करना भी होता हैं। इसीलिए विकसित क्षेत्रों पर नियंत्रण लगाकर पिछडे़ क्षेत्रों के विकास पर विशेष ध्यान दिया जाता हैं।
ऽ आर्थिक सुरक्षा व जीवन स्तर में वृद्धि: आर्थिक सुरक्षा से आशय मजदूरांे को पर्याप्त वेतन, विनयोजकों को ब्याज तथा साहसी को लाभ मिले, क्योंकि इसका उद्देश्य राष्ट्र के लोगों का जीवन स्तर ऊँचा उठाना होता हैं।
सामाजिक उद्देश्य
ऽ समाज कल्याण: नियोजन का उद्देश्य राष्ट्र में समाज कल्याण की सुविधाओं को बढ़ावा देना हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, समाज कल्याण, पिछडे़ वर्गों का उत्थान आदि के कार्यक्रम भी नियोजन के अंग हैं।
ऽ सामाजिक समानता: प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर उसके योग्यता के आधार पर मिले, वर्गभेद का अन्त, विषमता का अन्त आदि सामाजिक समानता के पीछे न्याय व समानता की भावना विद्यमान रहती हैं।
ऽ सामाजिक सुरक्षा: सामाजिक सुरक्षा के अन्र्तगत जनता को विभिन्न सुविधाएं प्रदान की जाती हैं बीमा, पेंशन वृद्धावस्था, मृत्यु, दुर्घटना आदि के समय सहायता पेंशन आदि की व्यवस्था की जाती हैं। रोजगार की गारंटी एवं उचित समय पर मजदूरी प्रदान कराना भी सामाजिक सुरक्षा के अन्तर्गत आते हैं।
ऽ नैतिक विकास एवं समाज सुधार: राष्ट्र की जनता का नैतिक चारित्रिक एवं शैक्षणिक उत्थान करना तथा सामाजिक कुरीतियों को दूर करना भी नियोजन का उद्देश्य हैं।
राजनीतिक उद्देश्य
ऽ शांति स्थापना: वर्तमान समय में विश्व में शांति स्थापना करने के उद्देश्य से अन्र्तराष्ट्रीय स्तर पर विकसित राष्ट्र मिलकर अविकसित राष्ट्रों को आर्थिक सहायता देते हैं।
ऽ राष्ट्र सुरक्षा: प्रत्येक राष्ट्र अपनी राजनीतिक सत्ता की सुरक्षा, शक्ति व सम्मान में वृद्धि करना चाहता हैं।
ऽ शीत युद्ध से मुकाबला: अन्य बडे़ राष्ट्रांे के बाजारों तथा कच्चा माल उपलब्ध देशों पर प्रभुत्व चाहते हैं, इसके लिए आर्थिक विकास के साथ राजनीतिक उन्नति व सम्मान प्राप्त करना भी आवश्यक हैं।5
आजादी के पूर्व भारत में नियोजन
इतिहास इस बात का साक्षी हैं कि मानव सभ्यता के साथ-साथ नियोजन का विकास हुआ है। अतीत में मानव एकाकी जीवन व्यतीत करता था वह जंगलों में कंद-मूल खाकर अपना गुजारा कर लेता था, क्यांेकि उस समय मानव की जरूरतंे अत्यंत सीमित थीं। शनैः-शनैः समय परिवर्तन के साथ मनुष्य की चेतना जागृत हुई। वह परिवार के साथ रहने लगा और उनकी आवश्यकताएं बढ़ने लगी व्यापार, व्यवसाय इत्यादि का विकास होने लगा तथा आधुनिक समाज की स्थापना हुई।6
ऽ नियोजन का विचार मानव बुद्धि में लगभग 2400 वर्ष पुराना माना गया है और सर्वप्रथम प्लुटों ने अपनी पुस्तक रिपब्लिक के माध्यम से दुनियां के सामने यह विचार रखा था।7
ऽ सन् 1910 में सर्व प्रथम नार्वे निवासी सोन्हेन्डयर ने आर्थिक क्रियाओं के नियोजन में महत्व डाला एवं सन् 1910 में ही प्रोफेसर कृषचन चोनीधर की आर्थिक नियोजन पर प्रकाशित पुस्तक ने देशों को बहुत अधिक आकर्षित किया तथा नियोजन रूप देने के लिए जर्मनी ने नियोजन को प्रथम विश्वयुद्ध में अपनाया।8
ऽ तदोपरान्त वर्ष 1928 में सोवियत संघ ने भी राज्य के आर्थिक नियोजन की पद्धति को अपनाया तथा अल्प समय में उन्नति, निर्धनता को दूर करने की सफल प्रेरणा मिली एवं कृषि में पिछड़े क्षेत्रों का सुधार करने के लिए राज्यों को सुझाव दिया की ‘‘प्रथम पंचवर्षीय’’ योजना में नियोजन अपनाया जाए।9 सन् 1930 की विश्वव्यापी आर्थिक मंदी ने पूंजीवाद की जडे़ हिला दी।10
ऽ 19 वीं शताब्दी के अन्त में समाज सुधारकों, साहित्यकारों एवं अर्थशास्त्रियांे ने पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के विभिन्न देशांे जैसे वर्ग संघर्ष, श्रमिकों का शोषण तथा आर्थिक सत्ता का केन्द्रीकरण का अन्त करने के लिए आर्थिक क्रियाओं में सरकारी हस्ताक्षेप करने के पक्ष में अपने विचार प्रकट करने लगे।
ऽ सर. एम. विश्वेश्वरैया एक जगप्रसिध्द अभियंता थे, उन्होंने आर्थिक नियोजन पर 1934 में ‘भारत में नियोजित व्यवस्था’ ; (Planned Economy for India) नामक पुस्तक प्रकाशित की। इस पुस्तक में भारत के नियोजित आर्थिक विकास हेतु एक दस वर्षीय आर्थिक विकास कार्यक्रम प्रस्तुत किया, जिसका उद्देश्य राष्ट्रीय आय को दस वर्ष के काल में दुगुना करना था।
ऽ आर्थिक नियोजन से संबंधित अन्य कृतियां भी प्रकाशित हुई जिनमंे P.S. Loknathan की कृति Principles of Planning, Prof N.S. Subharao की कृति Some Aspects of Planning and Prof. K.N. sen की कृति Economic Reconstruction विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
ऽ 1934-35 मे Indian Economic Conference की वार्षिक बैठक में इन प्रस्तावों पर विचार-विमर्श किया गया। किन्तु परिस्थितियां प्रतिकूल होने की बजह से इस योजना के आर्थिक कार्यक्रमांे की क्रियान्विति के प्रयत्न नहीं हो सके, लेकिन इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया गया कि इस योजना ने भारत में आर्थिक नियोजन की सवैधांनिक आधारशिला रखी तथा विचारकों को नियोजन की दिशा में चिन्तन के लिए प्रेरित किया।
ऽ अक्टूबर 1938 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष सुभाष चन्द्र बोस ने दिल्ली में प्रांतीय उद्योग मंत्रियांे का सम्मेलन आयोजित किया। सम्मेलन में राष्ट्र की प्रगति के लिए सुझाव प्रस्तुत किये गये। इन सुझावांे की क्रियान्विति के लिए पंण्डित जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में राष्ट्रीय समिति का गठन किया गया।
ऽ स्वतंत्रता से पहले भारत में आर्थिक नियोजन के क्षेत्र में ‘मुम्बई योजना’ का एक अनोखा प्रयास था। 1944 में भारत के आठ प्रमुख उद्योगपतियों ने जे.आर.डी. टाटा, जांन मथाई, ए. डी. श्रोफ, कस्तूर भाई लालभाई, घनश्यामदास बिड़ला, सर अर्देशीर दलाल, सर पुरूषोत्तमदास, ठाकुर दास एवं सर श्रीराम ने सामूहिक रूप से भारत के आर्थिक विकास की ‘मुम्बई योजना’ प्रस्तुत की। यह पंन्द्रह वर्षीय योजना थी। इस योजना का अनुमानित खर्च 10 हजार करोड़ रूपये था। इसका उद्देश्य योजनावधि मंे प्रति व्यक्ति आय को दुगुना अर्थात 65 रूपये से बढ़ाकर 130 रूपये करना था तथा राष्ट्रीय आय को 2200 करोड़ रूपये से बढ़ाकर 6600 करोड़ रूपये करके तिगुना करना था।
ऽ 1948 में ‘भारत में नियोजन’ पर समिति के कुछ प्रतिवेदन समक्ष आ सके। इन प्रतिवेदनांे में औद्योगीकरण सार्वजनिक क्षेत्र के विस्तार, श्रमिक मजदूरांे के लिए उचित प्रतिफल, निजी उद्योगांे का राष्ट्रीयकरण, सहकारिता को प्रोत्साहन, सिंचाई व विद्युत सुविधाओं के लिए विस्तार, भू-संरक्षण आदि से संबंधित सुझाव प्रस्तुत किये गये।
ऽ इस योजना के अन्र्तगत 1944 के आंकड़ों के अनुसार कृषि-प्रदान (Agriculture output) में 50 प्रतिशत (Industrial output) में 50 प्रतिशत और सेवाओ के उत्पादन Output of Service में 200 प्रतिशत की वृध्दि के लक्ष्य निर्धारित किये गये थे। इस योजना ने कृषि व उद्योगांे के अलावा यातायात के विकास पर 453 करोड़ रूपये के खर्च से 400 मील लम्बीं रेल लाइनों को 6200 मील तक बढ़ाने का उद्देश्य रखा गया। इसके अलावा 2,26,000 मील कच्ची सड़कांे को पक्का बनाने, मुख्य गाँव के व्यापारिक मार्गांे से जोड़ने, और बंदरगाहांे की संख्या में वृध्दि करने का भी प्रस्ताव था।
ऽ बम्बई योजना के तीन माह पश्चात् ही Indian Fedration of Labour ‘इण्डियन फैडरेशन आॅफ लेबर’ की ओर से एम.एन.राय द्वारा ‘जन-योजना’ प्रकाशित की गयी। यह दस वर्षीय योजना थी, जिसके लिए अनुमानित खर्च की राशि 15,000 करोड़ रूपये निर्धारित की गयी। इस योजना के पहले पांच वर्षों में कृषि पर तथा अगले पांच वर्षो में उद्योगांे के विकास पर बल दिया गया था। कृषि उत्पादन में वृद्धि के लिए भूमि में 10 करोड़ एकड़ की वृध्दि, सिचाई के साधनों में 400 प्रतिशत की वृद्धि तथा अत्याधिक मात्रा में खाद और बीज के उपयोग के लक्ष्य निर्धारित किये गये थे। औद्योगिक उत्पादन में 600 प्रतिशत की वृद्धि, निजी उद्योगांे में लाभ की दर को 3 प्रतिशत तक सीमित करने का प्रस्ताव किया गया था। यातायात के अन्र्तगत सड़कों व रेलों की लम्बांई में क्रमशः 15 प्रतिशत एवं 50 प्रतिशत की वृद्धि का लक्ष्य था। इस योजना में ग्रामीण इलाकांे की आय में 300 प्रतिशत व औद्योगिक इलाकांे की आय में 200 प्रतिशत वृद्धि का अनुमान किया गया था।11
ऽ ‘‘महात्मा गांधी के विचारों पर आधारित इस योजना के निर्माता कामार्शियल काॅलेज के प्राचार्य श्री एस. एन. अग्रवाल थे। योजना का कुल प्रस्तावित खर्च 10 वर्षों में 3600 करोड़ रखा गया था। इस योजना के लिए 200 करोड़ रूपये की राशि को सरकारी उपक्रमों तथा 1500 करोड़ रूपये की राशि आन्तरिक मुद्रा प्रसार और कारारोपण द्वारा किया जाना था। 175 करोड़ रूपये के अनावर्तक और 5 करोड़ रूपये की आवर्तक राशि सिंचाई कार्यक्रमांे को दुगुना करना था। इस योजना में ग्रामीण उत्थान व विकास के लिए महत्वपूर्ण उद्योगों को स्थान दिया गया था।12
ऽ 1946 में भारत की अन्तरिम सरकार ने विभिन्न विभागांे द्वारा की गयी परियोजनाओं पर विचार करने तथा उनके संबंध में प्रतिवेदन प्रस्तुत करने के लिए एक ‘योजना सलाहकार मण्डल’ की स्थापना की जिसके अध्यक्ष के. सी. नियोगी नियुक्त हुए। इस मण्डल का मुख्य उद्देश्य जन-जीवन स्तर को उंचा उठाना और रोजगार पर बल देने का सुझाव रखा गया। इस मण्डल ने योजना आयोग की स्थापना का सुझाव दिया।13
आजादी के पश्चात् भारत में नियोजन
भारत में प्रशासन की संघात्मक व्यवस्था है। 1947 में आर्थिक और सामाजिक न्याय के लिए मार्ग प्रशस्त किया। कृषि, सिंचाई और खनिज सम्पंदा के अनदोहित साधनों और उपलब्ध संसाधनों का आवंटन करने की आवश्यकता थी। नवम्बर 1947 में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति ने पंडित जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में आर्थिक कार्यक्रम समिति का गठन किया गया। इस समिति ने अपने सुझाव में एक स्थाई योजना आयोग की स्थापना के लिए सिफारिश की। भारत में आर्थिक नियोजन का शुभारंभ 1951 में प्रथम पंचवार्षिक योजना के प्रारंभ होने से पूर्व हुआ, लेकिन सैद्यांतिक प्रयास स्वतंत्रता से पूर्व ही प्रारंभ हो गये थे।14
योजना आयोग
योजना आयोग का भारतीय संविधान में कोई उल्लेख नही है। अतः इसका गठन परामर्शदात्री व विशेषज्ञ संस्था के रूप में एक प्रलेख द्वारा हुआ। फलस्वरूप इसके स्वरूप् व संगठन में सरकार द्वारा समसय-समय पर परिवर्तन किया जाता रहा है।15 राष्ट्र के सर्वागीण विकास करने के लिए केन्द्रीय शासन ने 15 मार्च 1950 को योजना आयोग की स्थापना की गई, जिसे आयोजन मशीनरी का हदय (Core of The Planning Machinery) कहा जाता हैं।16 1 जनवरी 2015 से भारत में योजना आयोग का अस्तित्व समाप्त कर हटया गया है तथा इसके स्थान पर ‘नीति आयोग’ संस्था बनाई गई है। जिसे अब राष्ट्रीय भारत परिर्वतन संस्थान ‘नीति आयोग’ (National Institute for Transforming India) “NITI” के नाम से जाना जाता है।17
योजना आयोग उद्देश्य
ऽ राष्ट्र के उत्पादन में वृद्धि करना एवं जीवन स्तर को उपर उठाना।
ऽ सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था का विकास करना जिसमें राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाआंे को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय प्राप्त हो। राष्ट्र की सामाजिक आर्थिक परिस्थितियां।
ऽ रूस की नियोजन प्रगति से प्रेरित होकर।
ऽ स्वतंत्र भारत की रक्षा करना।
ऽ राष्ट्रीय योजना समिति के प्रस्ताव को लागू करना।
ऽ समिति साधनांे का अधिकतम उपयोग।
ऽ Planned Economy for India से प्रेरित होकर।18
योजना आयोग के कार्य
योजना आयोग एक राष्ट्रीय योजना का निर्माण करता है जो संघीय सरकारें अपने-अपने प्रदेशों के विकास के लिए योजना मंडल योजनाओं का निर्माण करता है। योजना आयोग यह ध्यान रखता है कि विभिन्न स्तरों पर बनाई गई योजनाओं में पारस्परिक सामन्जस्य हो और इनका विनियोग केन्द्रीय स्तर पर निर्धारित विनियोग की सीमा में हो, तथा योजना निर्माण एवं क्रियान्वयन का दायित्व केन्द्र के साथ-साथ राज्य सरकारों पर भी है। योजना आयोग इस बात के प्रति जागरूक रहता है कि राष्ट्रीय स्तर पर जो उद्देश्य निर्धारित किये गये हैं उनके अनुरूप योजनाएं बनाई जाए।19 राज्य स्तर पर नियोजन तंत्र राज्य योजना का प्ररूप बनाकर केन्द्रीय सरकार के समक्ष प्रस्तुत करता है। यद्यपि राज्य योजना आयोग का निर्माण राज्य सरकार का नियोजन विभाग करता है लेकिन वह समय-समय पर योजना आयोग से राज्य योजना मंडल राज्य की योजना के बारे मेे विचार विमर्श करता रहता है।
ऽ देश के भौतिक, मानवीय एवं पूंजीगत संसाधनों का अनुमान लगाना।
ऽ आर्थिक विकास की बाधाओं से शासन को अवगत करना ।
ऽ योजनाओं की अवस्थाओं व प्राथमिकताओं का निर्धारण करना।
ऽ नियोजन के लिए आवश्यक कार्य प्रणाली का निर्धारण करना ।
ऽ परिस्थितियांे के अनुसार नीतियों में परिवर्तन लाने का सुझाव देना।20
राष्ट्रीय विकास परिषद
योजना संबंधी मामलों में केन्द्र तथा राज्य सरकारांे के मध्य समायोजन (Co-ordination) की स्थापना के लिए योजना आयोग की सिफारिश पर 6 अगस्त 1952 में ‘राष्ट्रीय विकास परिषद’ की स्थापना की गयी। राष्ट्रीय विकास परिषद में राज्यों के मुख्यमंत्री की सदस्यता तथा योजना आयोग द्वारा निर्धारित कार्यक्रमांे पर उनकी स्वीकृति के कारण योजना आयोग को राज्यांे की ओर से एक प्रकार की स्वीकृति प्राप्त हो जाती है। योजना के निर्माण में राष्ट्रीय विकास परिषद से परामर्श लिया जाता है। योजना आयोग द्वारा केन्द्रीय मंत्रियों व राज्य सरकारों से सलाह-मशविरा करने के पश्चात् योजना का प्रारूप केंन्द्रीय मंत्रिमंडल की स्विकृति के पश्चात् राष्ट्रीय विकास परिषद जो सहयोगी संघ के सिद्यांतांे का प्रतिनिधित्व करती है, के समक्ष सुझाव के लिए प्रस्तुत किया जाता है। तत्पश्चात् परिषदांे की सिफारशांे के अनुसार नियोजनांे एवं कार्यक्रमों में आवश्यक परिवर्तन किया जाता है। इसके बाद मंत्रालयांे, तथा राज्य शासन के पास संबंधित निर्देशों सहित भेज दिया जाता है। योजना निर्माण को अंतिम प्रारूप प्रदान करने के लिए सर्वप्रथम परिषद की सिफारिश प्राप्त की जाती है और योजना अपना वास्तविक स्वरूप व आकार धारण करती है। अन्त में संसद की अनुमति मिलने के पश्चात् प्रकाशित कर दिया जाता है। इस परिषद की अंतिम योजना निर्माण में निर्णायक की भूमिका निभाने के कारण इसे सर्वाेपरि कॅबिनेट (Super Cabinet) की ख्याति प्राप्त कर ली है। इसके उच्च स्वरूप के कारण ही इसके सलाह-मशविरा केंन्द्रीय तथा राज्य सरकार महत्व प्रदान करती है। परिषद में योजनाओं को एक सच्चा राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया है तथा योजना निर्माण में योजना आयोग तथा मंत्रिमंडल द्वारा परिषद के दृष्टकोणों की अहवेलना नहीं की जा सकती है।21
अन्तर्राज्यीय
परिषद (Interstate Council):
योजना आयोग एवं राष्ट्रीय विकास परिषद जहां संविधानोत्तर संस्थाएं हैं वहीं अन्र्तराज्यीय परिषद संवैधानिक संस्था है। केन्द्र एवं राज्यों के मध्य समन्वय स्थापित करने के लिए राष्ट्रपति ऐसी परिषद का गठन कर सकता है। यह परिषद पूर्ण सलाहकारी संस्था है। अनुच्छेद 263 में ऐसी परिषद की स्थापना एवं कार्यों के संदर्भ में वर्णन किया गया है। यह परिषद का अध्यक्ष केन्द्रीय गृह मंत्री होता है, जबकि राज्य के मुख्यमंत्री तथा राज्य के राज्यपाल द्वारा जो नामित अन्य मंत्री गण होते है। राज्य पुर्नगठन अधिनियम 1951 के अन्तर्गत केन्द्रीय, उत्तरी, दक्षिणी, पूर्वी तथा पश्चिमी क्षेत्रीय परिषदों का गठन किया गया है। सकारिया आयोग ने एक स्थायी परिषद के गठन का सुझाव दिया था। परिणामतः अप्रैल 1990 में परिषद की स्थापना की गई। सकारिया आयोग ने यह भी सुझाव दिया था कि धारा 356 का प्रयोग परिषद की सलाह-मश्विरा पर हो।22
राज्य नियोजन आयोग
प्रशासनिक सुधार आयोग (1967) की रिपोर्ट के काफी पहले विभिन्न राज्यों के प्रशासनिक सुधार समितियों ने राज्यों में योजना मंडल अथवा आयोग की स्थाना की अनुसंशाएं की थीं। राजस्थानी की भांति अन्य राज्यों ने भी राज्य स्तर पर योजना तंत्र को मजबूत बनाने हेतु उचित योजना संस्थाओं की सथापना की दिशा में पहल की। इसके पहले कि राज्य योजना में प्रशासनिक सुधार की दृष्टि से सुझाव दें, योजना आयोग राज्य-तंत्र को सदैव सशक्त बनाने के पक्ष में रहा है, जिससे योजना की प्रक्रिया एकीकृत, वास्तविक एवं प्रभावशाली बन सके। योजना आयोग ने अपने प्रारंभिक सुझाव में राज्य के योजना विभागों को शसक्त करने की अनुसंशा की थी परन्तु बाद में राज्य बोर्ड की स्थापना का सुझाव दिया। 1962 में योजना आयोग ने प्रत्येक राज्य में योजना आयोग की स्थापना की अनुशंसा की। प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी राज्यों में पंचवार्षिक योजना निर्माण एवं मूल्यांकन के लिए राज्य योजना बोर्ड की स्थापना की अनुशंसा की। योजना आयोग में अपना स्वयं का सचिवालय होना चाहिए, जो अपने कार्यों को सुचारू रूप से संपन्न कर सके। आज समस्त राज्यों मे ंयोजना आयोग स्थापित है, किन्तु आयोग की स्थिति और योजना प्रक्रिया की प्रभावशीलता विभिन्न राज्यों में अलग-अलग है।23
सांकेतिक नियोजन
सांकेतिक या प्रतीकात्मक नियोजन फ्रांस के देन है। इसके जनक पियरे मैस माने जाते है। इन्होने ‘सूचना संग्रहण‘ की अवधारणा प्रदान की जिसमें नियोजनकर्ता सामान्यीकृत बाजार अनुसंधान करते है। तथा भविष्य के एक सामान्य दृष्टकोण विकसित करते हैं। फ्रांस में 1946 में योजना आयोग का गठन हुआ। सांकेतिक नियोजन अपनाने का श्रेय 1946 में जनरल चाल्र्स डी गाल को जाता है। 1946-1952 के बीच फ्रांस की प्रथम योजना प्रारंभ हुई। इस अवधारणा के प्रतिपादक जीन मोने थे। योजना के क्षेत्र में फ्रांस ने विश्व को एक नवीन योजना व्यवस्था ‘सांकेतिक नियोजन’ प्रदान की है। यह नियोजन आदेशात्मक न होकर लचीला होता है। यह क्रियात्मक व निर्देशन के संबंध में विकेंन्द्रकरण पर आधारित है। इस योजना का मुख्य उद्देश्य आर्थिक स्थिति में सुधार लाना है। इस योजना की बजह से ही फ्रांस आर्थिक व औद्योगिक आदि क्षेत्रों में विकास कर रहा है।24
विकेन्द्रीकृत नियोजन की अवधारणा
प्रासंगिक तथ्य और आंकड़े एकत्रित करना, प्राथमिकताएं निर्धारित करने के लिए उनका विश्लेषण करना, निर्धारित प्राथमिकताओं का उपलब्ध बजट के साथ मिलान करना, कार्यान्वयन की प्रक्रियाओं को परिभाषित करना और लक्ष्य निर्धारित कर उनका अनुश्रवण करना। विकेन्द्रीकृत जिला नियोजन में वह सब शामिल होता है जिसे जिले की विभिन्न आयोजना इकाईयां सामूहिक रूप से परिकल्पना करके अपने-अपने बजटों और कौशलों का उपयोग करके और अपनी पहलकदमियों को आगे बढ़ा कर मिलजुल कर हासिल कर सकती है। एक अच्छी विकेन्द्रीकृत जिला योजना के अन्तर्गत हर योजना इकाई जैसे जिला, मध्यवर्ती और ग्राम स्तरों पर पंचायतें, नगरपालिकाएं लोगों के साथ परामर्श करके अपने कार्य और उत्तरदायित्व पूरा करने के लिए एक योजना बनाती है। एक दूसरे के साथ सहयोग और समन्वय करते हुए वे सामान्यतः एक दूसरे की जिम्मेदारी वाले क्षेत्र में तब तक दखल नहीं देगी जब तक कि इससे निश्चित रूप में कोई लाभ प्राप्त न हो और इसे लेकर आपसी सहमति न हो।25
सरकार का अन्तिम उद्देश्य जनता का विकास करना है परन्तु देश की अधिकतर जनसंख्या गांवों व कस्बों में रहती है जो सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से पिछड़ी हुई है। इसलिए यदि उनका वास्तविक विकास करना है, तो विकेन्द्रीकृत नियोजन को अपनाना होगा। विकेन्द्रीकृत नियोजन में योजना का निर्माण एवं उसका क्रियान्वयन केन्द्र से न होकर विभिन्न क्षेत्रों द्वारा संचालित होता है। इसके अन्तर्गत योजना निर्माण एवं संचालन में स्थानीय क्षेत्र के लोगों की सक्रिय भागीदारी रहती है।26
लोकतांत्रिक
नियोजन विकेन्द्रीकृत
नियोजन का एक प्रमुख
रूप है। इस प्रकार
नियोजन में योजनाओं
को बनाने तथा उनका
क्रियान्वयन करने
में जन सामान्य
की भागीदारी रहती
है। पंचायती राज
प्रणाली में हम
लोकतांत्रिक नियोजन
का स्वरूप देख
सकते हैं। भारत
में योजनाआंे की
नीति, लक्ष्य
आदि का निर्धारण
योजना आयोग करता
रहा है। साथ ही
क्षेत्र विशेष
की समस्याओं पर
अपनी सलाह देता
रहा है। यहाँ पर
राजनीति का रूप
तो लोकतांत्रिक
है, लेकिन
इसका स्वरूप लोकतांत्रिक
नहीं रहा है। यही
कारण है कि भारत
में सरकार एवं
जनता का विश्वास
दिन-प्रतिदिन कम
होकर दोनों के
मध्य अविश्वास
की खाई बढ़ती जा
रही है। किसी भी
आयोजन की सफलता
इस बात पर अधिक
निर्भर करती है
कि आज जनता की भागीदारी
उसमें किस सीमा
तक विद्यमान है।27
पंचायती राज व्यवस्था एवं नियोजन
लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण अथवा पंचायती राज संस्थाओं की योजना प्रस्तुत करते हुए तीन स्तर क्रमशः ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत, खंड स्तर पर पंचायत समिति एवं जिला स्तर पर जिला परिषद का गठन किया गया है। वास्तव में त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था द्वारा देश के ग्रामीणों में एक चेतना सौपने का प्रयास किये जाने का प्रस्ताव किया गया ताकि राष्ट्रीय जनतंत्र का आधार व्यापक व मजबूत हो सके। पंचायती राज की संरचना में ग्राम पंचायतों, पंचायत समितियों एवं जिला परिषदों का गठन किया गया है, जिसे पंचायती राज के नाम से संबोधित किया गया है। पंचायती राज व नियोजन का उद्देश्य प्रारंभ से लेकर आज तक विकास योजनाओं से संबंधित करना एवं प्रशासन के प्रत्येक स्तर पर जनता को सक्रिय रूप से भागीदार बनाना है।28 वर्तमान समय में देश के लगभग सभी राज्यों में जिला नियोजन समितियों का गठन किया गया है। 73वें तथा 74वें संविधान संशोधनों को दिसम्बर 1992 में पारित करने के पश्चात जब आधे से अधिक राज्य विधानसभाओं द्वारा इसका अनुसमर्थन किया गया तो इन्हें राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा गया। राष्ट्रपति द्वारा अप्रैल 1993 में स्वीकृत किए जाने के पश्चात इन्हें भारतीय संविधान में लागू किया गया तथा इन्हीं संशोधनों के माध्यम से जिला नियोजन समिति का प्रावधान 243 जेड डी में वर्णित है। इन राज्यों की सरकार ने भी 74वां संविधान संशोधन के तहत 243 जेड डी में किया गया है।
नियोजन की प्रक्रिया
जिन उद्देश्यों को प्राप्त करना है उन्हे समझना, स्थिति या परिस्थिति का मूल्यांकन करना, संभावित कार्यवाई पर विचार करना एवं सर्वोत्तम कार्यवाई का चयन करना आदि। सेक्लर-हडसन के अनुसार नियोजन प्रकिया को पूरा करने के लिए विविध चरणों से होकर गुजरना होता है, जो निम्न प्रकार हैः-
ऽ संभावित सीमा तक सावधानी से की गई समस्या की परिभाषा तथा उसकी सीमा।
ऽ समस्याओं से संबंधित सभी उपलब्ध सूचनाओं की खोजबीन।
ऽ समस्या से निपटने के लिए संभावित विभिन्न समाधान या रीतियां निश्चत करना।
ऽ एक या अधिक काम चलाऊ साधनों की व्यवहारिक रूप की जांच करना।
ऽ अनुभव निरन्तर अनुसंधान तथा नवीन विकासों के प्रकाश में परिणामों का मूल्यांकन करना।
ऽ समस्या तथा परिणामों पर पुर्नविचार व यदि न्यायसंगत हो तो उस पर पुर्ननिर्णय।29 संक्षेप में, नियोजन की प्रक्रिया में तीन चरण होते है-नियोजन का निर्धारण, निष्पादन व मूल्यांकन।
निष्कर्ष व सुझाव
भारत में भी नियोजन के लिए वर्ष 1956 में योजना आयोग की स्थापना की परन्तु यह केवल केन्द्र स्तर पर ही नियोजन करता है लेकिन भारत की भौगोलिक स्थिति असमान होने के कारण योजना आयोग द्वारा बनायी गयी योजनाएं सभी क्षेत्रों में समान रूप से लागू नहीं हुई और देश को विकेन्द्रीयकृत नियोजन की आवश्यकता महसूस हुई। जिसके परिणामस्वरूप अनेकों समितियों का गठन किया गया परन्तु किसी भी प्रकार की सफलता नहीं मिली अन्त में 73वें तथा 74वें संविधान संशोधन पारित किया और स्थानीय निकायों का गठन करके उनकों कुछ अधिकार एवं दायित्व सौपें जिनके माध्यम से स्थानीय निकाय अपने स्तर की विकासकारी योजनाओं को तैयार करके अपनी समस्याओं का निपटारा कर रही है।30
संदर्भ ग्रंथ सूची
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2. मित्तल वी. पी. (1987): विकास का अर्थशास्त्र व नियोजन, संजीव प्रकाशन मेरठ, पृ. 6-7.
3. उपरोक्त पृ. 5.
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5. मिततल वी. पी. (1987): विकास का अर्थशास्त्र व नियोजन, संजीव प्रकाशन मेरठ, पृ. 6-7.
6. देशमुख नीलिमा (2000): आर्थिक नीति और प्रशासन, काॅलेज बुक डिपो, जयपुर, 2000 पृ. 41-42.
7. सेथ, एम. एल., (1971): थियोरी एण्ड पै्रस्टी आॅफ इकोनाॅमिक प्लानिंग, एस . चन्द कम्पनी, नई दिल्ली, पृ. 31
8. उपरोक्त, पृ. 31.
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10. देशमुख नीलिमा (2000): आर्थिक नीति और प्रशासन, काॅलेज बुक डिपो, जयपुर, 2000 पृ. 42-43.
11. देशमुख नीलिमा (2000): आर्थिक नीति और प्रशासन, काॅलेज बुक डिपो, जयपुर, पृ. 43-44
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13. देशमुख नीलिमा (2000): आर्थिक नीति और प्रशासन, काॅलेज बुक डिपो, जयपुर, पृ. 47.
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20.
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22. प्रतियोगिता दर्पण (2004)ः भारतीय अर्थव्यवस्था, पृ. 204
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24. अवस्थी एवं अवस्थी(16 वां संस्करण 2014): भारतीय प्रशासन, लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, आगरा, पृ. 290
25. गर्वमैन्ट आॅफ इण्डिया मैनयुवल फाॅर, इन्टीग्रेटिड डिस्ट्रीक प्लानिंग, दिल्ली, 2008, पृ . 9
26. शर्मा, के. के., भारत में पंचायती राज, कालेज बुक डिपो, नई दिल्ली, 2006, पृ . 68
27. उपरोक्त, शर्मा, पृ. 69
28. अवस्थी महेश्वरी -भारत में पंचायती राज ,लक्ष्मीनारायण अग्रवाल प्रकाशन आगरा 2002. पृ. 175.
29. उपरोक्त, पृ. 290-91
30. मलिक, उपेश, हरियाणा राज्य में विकेन्द्रीयकृत नियोजन: नियोजन प्रक्रिया एवं समस्याएँ, परमान, रोहतक, 2011, पृ. 224-229
Received on 14.08.2015 Modified on 20.09.2015
Accepted on 29.09.2015 © A&V Publication all right reserved
Int. J. Rev. & Res. Social Sci. 3(3): July- Sept., 2015; Page 141-149