भारतीय प्रजातंत्र व न्यायपालिका

 

अलेख कुमार साहू1, ए.ए. खान2

1वरिष्ठ सहायक प्राध्यापक, विधि अध्ययन शाला, पं. रविशंकर वि.वि. रायपुर

2प्राध्यापक, विधि अध्ययन शाला,    पं. रविशंकर वि.वि. रायपुर

*Corresponding Author E-mail: alekh.ku.sahu@gmail.com

 

ABSTRACT

लोकतांत्रिक समस्याओं तथा बढ़ती हुई कीमतों और बेरोजगारी को लेकर हमेशा हम न्यायपालिका से हस्तक्षेप की अपेक्षा करते है, जबकि न्यायालय स्वयं भी इस प्रभाव से ग्रसित हैं, पर सवाल यह है कि क्या न्यायालय के आदेश मात्र से इस तरह की कठिनाइयों एवं लोकतांत्रिक समस्याओं से निजात पाया जा सकता है, क्या अदालतें देश की महंगाई, भ्रष्टाचार और कानून अव्यवस्था को लेकर विधायिका को बर्खास्त कर स्वयं को विधायिका बना सकती है। परन्तु यह कटु सत्य है कि संविधान में विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका की भूमिकायें निश्चित हैं, जबकि कई मामलों में न्यायपालिका की पूर्णपीठ ने यह स्वीकार कर लिया है कि न्यायालयों को आदेश पारित करते समय स्वयं को अधिकार एवं दायित्वों के प्रति सजग रहना चाहिये, अन्यथा बनी बनायी संवैधानिक व्यवस्था पर टकराव पैदा हो सकते हैं। दरअसल विधायिका व कार्यपालिका की कार्यप्रणाली से तंग आकर लोग न्यायालय की शरण में जाते हैं और अपेक्षा करते हैं कि उन्हें अदालतें न्याय दिलाये। आज देश की अदालतों में तीन करोड़ मुकदमें लंबित है और उसकी संख्या कम होने के बजाय बढ़ती जा रही है। इसका अर्थ है कि लोकतंत्र का हर व्यक्ति न्याय के अपने हक के प्रति सजग है, वहीं दूसरा अर्थ यह है कि देश में न्याय मिल ही नहीं रहा है।

 

KEYWORDS लोकतंत्र, न्यायपालिका, न्याय व समाज, राजनैतिक लोकतंत्र

 

शोध का उद्देश्य:-

1.            लोकतांत्रिक समस्यायें एवं न्यायपालिका।

2.            सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक समस्यायें।

3.            लोकतांत्रिक व्यवस्था के आधार स्तम्भ।

 

प्रस्तावना:-

मानव ने समाज और उसकी संस्थाओं के बारे में जब से चिन्तन प्रारंभ किया है, तब से न्याय की अवधारणा दर्शनिकों के चिन्तन का विषय रहा है। आज विश्व का अत्यन्त लोकप्रिय चिन्तन का विषय ’’लोकतंत्र व सामाजिक न्याय’’ बना हुआ है, जिसके तीन आधार स्तम्भ है - स्वतंत्रता, समानता व सुरक्षा, जिसकी पृष्ठभूमि में सबसे महत्वपूर्ण ’’भय एवं तनाव से मुक्ति की ईच्छा निहित है।’’

 

वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था तीन आधार स्तम्भों पर टिकी है- वह है सामाजिकआर्थिक व राजनैतिक। प्रातः यह कहा जाता है कि मनुष्य के हृदय में अन्याय की गहन भावना ही सर्वाधिक चुभती है, बीमारी, गरीबी से तो हम निपट सकते हैं, किन्तु अन्याय हमें उग्र बना देता है। धनवान निःसन्देह विलासिता के रूप में, विधि का सुख पा सकता है और गरीब जिसको उसकी सबसे अधिक आवश्यकता है, उसे नहीं पा सकता। स्वतंत्रतालोकतंत्र के निरन्तर अस्तित्व को खतरा बिल्कुल वास्तविक है न कि काल्पनिक, क्योंकि जीवन में लोकतंत्र, न्यायतंत्र को इतना प्रभावी बनाना चाहता है कि प्रत्येक नागरिक उसकी निष्पक्षता और ईमानदरी में विश्वास कर सकें।1

 

न्याय एवं लोकतांत्रिक उद्देश्य:-

गंभीर राजनैतिक प्रश्नों पर सक्रिय न्यायधीशों की लोकहितवादी धारणा भी पूर्ण गतिरोध का कारण बनती जा रही है, सामाजिक-आर्थिक प्रश्नों को लेकर कार्यपालिका की उत्तरदायी स्थिति तथा न्यायधीशों की अनुत्तरदायी स्थिति में टकराहट होती दिख रही है। ऐसा पहले इंग्लैण्ड तथा अमेरिका में हो चुका है और हमारे न्यायाधीशों की वर्तमान में सक्रिय भूमिका को देखते हुए हमारे देश में भी इतिहास को फिर से दोहराये जाने की आशंका प्रकट होती है क्योंकि हमारे सक्रिय न्यायाधीशों ने एक ऐसे पत्र के आधार पर कार्यवाही प्रारंभ कर दी जिसमें पत्र भेजने वाले का कोई पता नहीं था। कानून की भाषा में न्यायालय के सामने कोई वादी था ही नहीं। इस न्यायिक सक्रियता ने राजनीतिज्ञो को भयभीत कर दिया है।2

 

 

अपने निर्णयों एवं आदेशों में न्यायालय कुछ देने की अपेक्षा वायदे ज्यादा करते हैं, कई प्रकरणों में न्यायालय के आदेशों को सरकर ने लागू नहंी किये अथवा न्यायपालिका अपने बहुत से निर्णयों को क्रियान्विति में समर्थ नहीं रही। बहुत कम लोकहित याचिकाएँ अंतिम निर्णय पर पहुंची है या परिणित हुई है। यह भी देखा जा रहा है कि न्यायालयों ने बिना किसी देरी के निर्धनों को न्याय देने की आशा तो जगा दी लेकिन यथार्थ में निर्णय बहुत देरी से प्राप्त हुए।3

 

यदि लोगों को न्याय प्राप्ति के लिए वास्तव में कोई वैकल्पिक मंच सुलभ नहीं होगा तो मानव अधिकारों की संविधान में दी गई गारंटिया निष्फल हो जायेगी। कानूनी अधिकार वायदे बनकर रह जायेंगे, यदि न्याय निर्णयन में इतना विलम्ब हो कि वह निरर्थक हो जाये अथवा दावे का मूल्य मुकदमें में ही खर्च हो जाये।

 

न्याय एवं वर्तमान स्वरूप:-

वर्तमान में खर्चीली न्याय व्यवस्था से निपटने के लिए जिस प्रकार निःशुल्क विधिक सहायता योजना का प्रादूर्भाव हुआ है उसी प्रकार विलम्बकारी न्याय व्यवस्था से निपटने के लिए लोक अदालतें अस्तित्व में आई। लोक अदालत संस्कृति भारतीय लोकतांत्रिक परम्परा के अनुरूप है, ये अदालतें इस विश्वास पर आधारित है कि न्यायालयों के समक्ष सभी मामलों में न्यायिक निर्णय आवश्यक नहीं हैं। बहुत से विवाद गलतफहमी, अहमभाव की टकराहट, जानकारी का अभाव आदि के कारण होते है, उनमें कोई मुद्दा नहीं होता और यह माना जाता है कि ऐसे विवाद अनौपचारिक मंच पर आसानी से सुलझाये जा सकते है। ऐतिहासिक मंच पर देखा जाय तो ये अनौपचारिक मंच हर काल में विद्यमान रहे है। वर्तमान न्याय व्यवस्था से पूर्व देश में मंच परमेश्वर एवं पंचायती न्याय व्यवस्था विद्यमान थी।

 

आजादी के समय विदेशी सहायता व उत्पादों के आयात पर निर्भर करना वाला भारत आज विश्व की एक बड़ी ताकत है, हम विश्व की बारहवीं बड़ी आर्थिक शक्ति है तथा विश्व आर्थिक मंदी का हमने बखूबी सामना किया। आज भी असमानता, आर्थिक प्रगति व स्वायत्ता के नाम पर नक्सलवादी, गणतंत्र व लोकतंत्र की जड़े खोद रही हैं।

बढ़ती हुई कीमतों और बेरोजगारी को लेकर हमेशा हम न्यायपालिका से हस्तक्षेप की अपेक्षा करते हैं, जबकि न्यायालय स्वयं भी इस प्रभाव से ग्रसित है, पर सवाल यह है कि क्या न्यायालय के आदेश मात्र से इस तरह की कठिनाइयों एवं लोकतांत्रिक समस्याओं से निजात पाया जा सकता है। क्या अदालतें देश की महंगाई, भ्रष्टाचार और कानून अव्यवस्था को लेकर विधायिका को बर्खास्त कर स्वयं को विधायिका बना सकती है, परन्तु यह कटु सत्य है कि संविधान में विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका की भूमिकायें निश्चित है, जबकि कई मामलों में न्यायपालिका की पूर्णपीठ ने यह स्वीकार कर लिया है कि न्यायालयों को आदेश पारित करते समय स्वयं के अधिकार एवं दायित्वों के प्रति सजग रहना चाहिये, अन्यथा बनी बनायी संवैधानिक व्यवस्था पर टकराव पैदा हो सकते है। दरअसल विधायिका व कार्यपालिका की कार्यप्रणाली से तंग आकर लोक न्यायालय की शरण में जाते हैं और अपेक्षा करते हैं कि उन्हें अदालतें न्याय दिलायें। आज देश की अदालतों में तीन करोड़ मुकदमें लंबित है और उसकी संख्या कम होने के बजाय बढ़ती जा रही है। इसका एक अर्थ यह है कि लोकतंत्र का हर व्यक्ति न्याय के अपने हक के प्रति सजग है, वहीं दूसरा अर्थ है कि देश में न्याय मिल ही नहीं रहा है।4

 

निष्कर्ष:-

न्याय प्रत्येक सभ्य समाज का अंतिम उद्देश्य है जो अपने समय की मांग को और आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए प्रत्येक युग में एक अच्छा माध्यम रहा है, विधि के अनुसार न्याय स्वतंत्रता, समानता और मातृत्व ऐसे सर्वोत्तम लोकतांत्रिक स्थापित करने के लिए आवश्यक है, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता प्राप्ति की पूर्व संध्या पर कहा था कि ’’स्वतंत्रता का अभिप्राय ब्रिटिश दासता से मुक्ति नहीं है बल्कि भारतीय लोकतंत्र में अमीरी व गरीबी में समान न्याय व्यवस्था स्थापित करना है तथा आगे ऐसे लोकतांत्रिक जीवन की स्थापना करना है जो विधि के नियम को सक्रिय बनाने के लिए समाज के सामाजिक न्याय व आर्थिक समानता को बनाये रख सकें।5

 

 

इक्कीसवीं सदी का विकासवादी चेहरा को न्यायिक क्षेत्रों में हमें शीर्ष पर ले जाना है, हम सब भारतीय सपने देखने लगे हैं, हमं ’’भूख व भय से विजय मिलेगी।’’ अपने देश के न्यायिक स्तर को देखे तो पिछली सदी से इस सदी का अन्तर दिखता अवश्य है, सन्देह नहीं है कि हमारी न्यायिक व्यवस्था काफी कुछ बदला है, हमारी नयी न्यायिक सोच ने पूरी सशक्तता से अपने उपस्थिति का अहसास दुनिया को करा दिया है। 90 के दशक तक न्यायपालिका ये सिर्फ संविधान के प्रावधानों एवं कानूनी किताबों, साक्ष्यों एवं सबूतों के आधार पर अपने फैसले देते रही हैं, परन्तु 21वीं सदी की न्यायपालिका का बदला हुआ स्वरूप यह सिद्ध कर रहा है कि न्यायपालिका अपने फैसले विशेषकर लोकतांत्रिक व सामाजिक हितों के मामलों में दिव्य दृष्टा हो रहा है। वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था की हर भाग राजनीतिकरण का शिकार हो गया है, ऐसे किसी सामाजिक कार्यकर्ता को ढूंढना अत्यंत कठिन है जिसकी राजनैतिक पहुंच न हो।6

 

सुप्रीम कोट द्वारा जिस प्रकार भ्रष्टाचारियों को दंडित किया गया है वह सामाजिक परिवर्तन को एक नई दिशा दे सकता है। सुप्रीमकोर्ट के कठोर निर्णय के कारण ही आज देश के कई बड़े-बड़े बाहुबलीय धनाढ्य लोग जेलों में बंद है। देश की तात्कालिक ज्वलंत समस्या, हत्या, बलात्कार व भ्रष्टाचार पर न्यायपालन सशक्त भूमिका निभा सकता है।

 

संदर्भ, पाद टिप्पणी एवं न्याय निर्णयन की सूची:-

1.            अग्रवाल वी.के.-कन्जुमर प्रोटेक्शन लाॅ एण्ड प्रेक्टिस बी. आई.एच. पब्लिशर्स, नई दिल्ली 1993

2.            अल्तेकर ए.एस.-स्टेट एण्ड गवर्नमेन्ट इन ऐक्शियेन्ट इंडिया मोतीलाल बनारसी लाल, दास, वाराणसी 1972

3.            बार्कर, अर्नेस्ट-प्रिंसिपल्स आॅफ सोशल एण्ड पोलिटीकल थ्योरी आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस लन्दन, 1951

4.            बन्धुआ मुक्ति मोर्चा बनाम भारत संघ, ए.आई.आर. 1982 एच.सी.-803

5.            महर्षि दयानन्द युनिवर्सिटी बनाम, शकुन्तला चैधरी 1992 सीपीसी 14

6.            बाधवा बनाम बिहार राज्य ए - (1987) एस.सी. 579.

7.            सचदेव बनाम यू.ओ.आई. 1991(1) एन.सी.सी. 349

8.            एस.पी. गुप्ता बनाम भारतसंघ, ए.आई.आर. 1982, सी.सी. 349

9.            सरल मुद्गल बनाम भारत संघ, ए.आई.आर. 1995(3), ए.सी.सी. 635.

 

 

Received on 25.03.2016       Modified on 26.04.2016

Accepted on 13.05.2016      © A&V Publication all right reserved

Int. J. Rev. and Res. Social Sci. 4(2): April - June, 2016; Page 112-114