शिवानी की कहानियों में स्त्री अस्मिता का संघर्ष
निधि कौशिक
शोधछात्रा, हिन्दी, पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर छत्तीसगढ़
हिन्दी की सर्वाधिक लोकप्रिय कथा लेखिका गौरा पंत ‘शिवानी’ जन्मी भले ही गुजरात में पर उनके व्यक्तित्व में कुमाऊँ एवं बंगाल का संस्कृति का अद्भुत मिश्रण रहा है। उनकी बहुत सी कथा-कहानियों में जहाँ एक ओर कुमाऊँनी अंचल के लोक-जीवन का सुन्दर और सटीक चित्रण मौजूद है वहीं उनकी रचनाओं में तत्सम, समासयुक्त शब्दावली के साथ-साथ बांग्ला साहित्य और बांग्ला भाषा का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। इस प्रभाव के पीछे शिवानी के अपने पारिवारिक तथा वे प्रारंभिक शिक्षा संस्कार थे, जो उन्हें शांति- निकेतन आश्रम में नौ वर्षों के शिक्षाकाल में मिले।
इसी पृष्ठभूमि ने उनकी लेखनी को सशक्त और रचनाओं को संवेदनशील बना दिया है। शिवानी जी ने हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में अपने बहुआयामी व्यक्तित्व का परिचय दिया है। इन्होंने उपन्यासों के साथ-साथ कहानी, संस्मरण, रेखाचित्र, निबन्ध, रिपोर्ताज, यात्रा-वृतान्त, इतिहास एवं बाल-साहित्य की रचना कर हिन्दी-साहित्य की विपुल समृद्धि प्रदान की है। अपने साहित्य-सृजन के उद्देश्य के संबंध में शिवानी जी स्वयं कहती हैं-‘‘मेरे साहित्य-सृजन का मुख्य उद्देश्य यह रहा है कि समाज के विभिन्न क्षेत्रों में फैली अराजकता, भ्रष्टाचार, अनाचार, कुरीतियों एवं विसंगतियों को आम जनता जाने और समझे। ऐसा साहित्य रचा जाए जो जन साधारण को भी ऊपर उठाये। साहित्य आदर्शोन्मुख एवं वास्तविक हो, जिनसे जन-समुदाय का कल्याण हो।’’
शिवानी जी ने अपने कथा-साहित्य में नारी को केन्द्र बिन्दु में रखा है। शिवानी जी की एक-एक कहानी चाहे कृष्णकली, कालिन्दी, ‘पूतों वाली’ कोई भी हो, नारी संवेदना की मार्मिकता अन्तर्वेदना को जिस आत्मीयता एवं गहराई के साथ महसूस किया है वह अतुलनीय है। नारी संवेदना को रोचकता से गूँथने की कला-मर्मज्ञ थी-शिवानी। नारी भावों-अनुभवों के कैनवास पर नारी मन के विविध पन्नों की अन्तरंग अनुभूतियों की अद्भुत छटा अपनी लेखनी के जरिए बिखेरती है। शिवानी नारी की विभिन्न भूमिका को स्वीकार करती हुई भी उसकी एक स्वतन्त्रचेता अस्तित्व की हिमायती दिखाई देती है। उनका मानना है-‘‘नारी को मैं रवीन्द्रनाथ के शब्दों में न केवल देवी रूप में पूजी जाना चाहती हूँ, न पूर्ण समर्पिता। उसका अपना आत्म-सम्मान अक्षुण्ण बना रहें नारी का सौष्ठव आहत न हो।’’ अपने हर चरित्र में काया प्रवेश करती शिवानी उस जिन्दगी को जैसे उसी चरित्र के साथ जी लेती है। उनकी कल्पना के धागे में मोतियों से पिरोये शब्द पाठक के हृदय पटल पर गहराई से अपनी छाप छोड़ते हैं। नारी जीवन की त्रासदियों के बीच समाज निर्धारित मानदण्ड़ों की कड़ियाँ उसके चरित्र से जोड़ती शिवानी पुरुष के साथ उसके संबंधों में एक प्राकृतिक व नैसर्गिक जरूरत को हमेशा महŸव देती हैं जिसका समावेश प्रेम के चरम बिन्दु के रूप में होता है। स्त्री-पुरुष के संबंधों में प्रेम के महŸव को वे कभी स्वार्थ से नहीं जोड़ती। उनकी नायिकाएँ प्रेम का उच्च आदर्श उपस्थित करती है। शिवानी स्मृति विशेषांक में डाॅ. अमीता श्रीवास्तव लिखती हैं-‘‘शिवानी हिन्दी की उन बड़ी कथाकारों में से हैं जिन्होंने अपने पात्रों को बड़ी ममता और संवेदना से रचा है और उन्हें करूणा का ऐसा अक्षय कोष सौंप दिया है कि वे हमें बार-बार मानवीय करूणा और विडम्बना की डबडबाई आँख के आगे ला खड़ा करते हैं। उनके पात्र अपनी संवेदना की अजस्र धारा में बहा ले जाते हैं कि उनका कोई भी उपन्यास एक बार शुरू कर देने के बीच में कहीं छोड़ देना असंभव है। हम मानों करूण नियति झेल रहे उनके पात्रों के साथ-साथ ही थपेड़े खाते हुए कथा के अंत तक पहुँचने के लिए विकल हो उठते हैं। यही शिवानी के कथा-साहित्य का जादुई सम्मोहन है, जो पाठकों की विभिन्न संवेदनाओं के द्वारा इस कदर बाँध लेता है कि शिवानी के उपन्यास पढ़ लेने के बाद बार-बार उनके अन्य उपन्यास तलाशने में जुट जाते हैं।’’ शिवानी जी को स्त्री जीवन की गहरी समझ है जो कुछ अधूरा छूटा रह गया उसे भी लेखिका ने अपनी वैचारिक चेतना के जरिए तलाशा और उनकी ये तलाश एक मुकम्मल सोच के रूप में उनकी रचनाओं में दर्ज होती चली गयी।
स्त्री अस्मिता की तलाश
नारी संवेदना की चितेरी लेखिका शिवानी स्त्री-जीवन का अद्भुत रूप अपनी कलम की जादूगरी से बिखेरती चलती है। शिवानी जी ने नारी-चित्रण में भाभियाँ, बहनें, बेटियाँ सभी को केन्द्र में रखा है। स्त्री जीवन में प्रेम के महŸव को वह बखूबी समझती है और सबसे बड़ी बात यह है कि उसे वैवाहिक बंधनों से मुक्त रखकर उसकी नैसर्गिक प्रकृति पर नाटकीयता का मुलम्मा नहीं चढ़ाती। उनकी कथावस्तु यथार्थ की चेतना पर आधारित है। शिवानी ने नारी के कमजोर पक्ष का विश्लेषण कर उसकी मार्मिक वेदना में करूणा का मिश्रण तो करती है किन्तु पुरुष के नाम पर तीव्र घृणा का संचार कर दोनों के बीच गहरी खाई का निर्माण वो नहीं करती। वह बेहद संतुलित ढंग से नर-नारी के संबंधों में सुधार की हिमायती है। पर जहाँ उद्वेग तीव्र हो वहाँ स्त्री का उग्र रूप भी सामने जरूर आता है। नारी-मन के हर रंग से चिर परिचित शिवानी हर क्षण अपने चरित्रों के साथ बोलती-बतियाती दिखायी देती है। वे अपनी कथाओं के माध्यम से स्त्री की उन विशेषताओं को रेखांकित कर, विश्लेषित देती हैं जिन्हें आम आदमी नहीं देख पाता। ‘केया’ कहानी का एक उदाहरण दृष्टव्य है, ‘‘सामान्य-सा परिचय भी एकांत के साहचर्य में दो स्त्रियों को ऐसे घुल-मिला देता है, जैसे वे वर्षों की पूर्वपरिचित हों। अपने हृदय के अन्तरतम कक्ष की कुंजी फिर दूसरी को थमाने में नारी नहीं हिचकती, ऐसा निष्कपट आत्म-निवेदन, कभी किसी पुरुष के लिए सम्भव नहीं होता। पुरुष क्या स्वभाव से ही सजग शंकालु नहीं होता? गहन मैत्री या पतिव्रता पत्नी का एकनिष्ठ प्रेम भी क्या उसे पूर्ण रूप से कभी आश्वस्त कर सका है? जहाँ प्रिय वाक्य प्रदानमात्र से ही किसी नारी का विश्वास प्राप्त किया जा सकता है, वहाँ पुरुष-हृदय की गहराई सहज में ही नहीं नापी जा सकती। नारी के इसी स्वभाव-दौर्बल्य का तो संसार आए दिन लाभ उठाता है।’’ उनके कथा-साहित्य के स्त्री पात्र स्त्री-जीवन की विराट झाँकी प्रस्तुत करते हैं। शिवानी जी ने ‘शिबी’, ‘दर्पण’, ‘लाल हवेली’, ‘अपराधी कौन’, ‘विप्रलब्धा’, ‘दो स्मृति चिह्न’, ‘चिर स्वयंवरा’, ‘करिए छिमा’, ‘मधुयामिनी’, ‘केया’, ‘भिक्षुणी’ आदि कहानियों के माध्यम से नारी-मन के हर कोने व झरोखे में झाँकने की एक सफल कोशिश की है। शिवानी जी को स्त्री जीवन की गहरी समझ है जो कुछ अधूरा छूटा रह गया उसे भी लेखिका ने अपनी वैचारिक चेतना के जरिए तलाशा और उनकी ये तलाश एक मुकम्मल सोच के रूप में उनकी रचनाओं में दर्ज होती चली गयी। और भाषा ऐसी कि बस आप मंत्रमुग्ध हो बार-बार उसकी तरफ किसी तरह खिंचते चले जाते हैं। शिवानी जी की लेखनी से हिन्दी के पाठक वर्ग सुपरिचित हैं। उनके कहानी-उपन्यासों ने समाज के जीते-जागते पात्रों को उठाकर उन्हें अमर कर दिया है। शिवानी ने कृष्णकली, सुरगंमा, और किशुनली की ‘ढांढ’ आदि उपन्यास में कुछ ऐसे पात्रों को उभारा है जो पाठकों की नजर में अनायास ही चढ़ जाते हैं और कथा समाप्त होने पर हमारे चित पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। शिवानी जी जहाँ पात्रों को कृत्रिम ढंग से भला बनाने और हृदय-परिवर्तन करने का प्रयास न करके उसे उसके अकृत्रिम और यथार्थरूप में पेश करती हैं, वही उनका चरित्र चित्रण अधिक सुन्दर बन पड़ता है। उनकी चरित्र-सृष्टि यथार्थवादी है। इनके पात्र हमारे आस-पास के जीते-जागते पहचाने जाने वाले पात्र हैं। इनके आदर्श पात्रों में भी मानवोचित दुर्बलताएँ दिखाई देती है और बुरे-से-बुरे पात्रों में भी अपनी सद्प्रवृŸिायों के आयाम अनुभव करते हैं। आन्तरिक संघर्ष एवं द्वन्द्व प्रायः सभी पात्रों में पाया जाता है। इतना ही नहीं पात्रों के चित्रण को चित्रोपम रूप प्रदान करने में शिवानी सिद्धहस्त हैं। बारीक-से-बारीक रेखाओं की मांसलता और वर्णन की सूक्षमता से प्रत्येक चरित्र प्राणवान बन उठता है और वह सहज ही नहीं भुलाया जा सकता। किशुनली, अनसूइया, हीरावती आदि ऐसे चरित्र है जो पाठक की संवेदना से जुड़कर उसकी स्मृतियों में बस जाते हैं। शिवानी ने अपने पात्रों के माध्यम से नर-नारी को भीतर से जानने की कोशिश की है।
शिवानी ने कथा-साहित्य में सामाजिक समस्याओें जैसे-दाम्पत्य जीवन, पे्रम समस्या, रखेलप्रथा, वेश्या जीवन, अवैध मातृत्व, वैवाहिक समस्याओं-दहेज प्रथा, बेमेल विवाह, बाल-विवाह, विधवा समस्या, वृद्ध समस्या आदि को वण्र्य विषय बनाया है जो दृष्टव्य है। वर्तमान में पनपने वाली गंभीर समस्या वृद्ध समस्या है। आधुनिक जमाने में वृद्धों को भार समझा जाता है। नयी पीढ़ी पढ़-लिखकर, अपनी नौकरी से जुड़ने के कारण घर-परिवार से असंपृक्त होने लगी है। विवाह होते ही माँ-बाप को छोड़कर चले जाना आम बात हो गई है। बेटों के होते भी माता-पिता को बेघर, वृद्धाश्रम में जीवन जीना होता है। शिवानी जी की ‘दो सखियाँ’ कहानी इस समस्या को गहराई से पूरी संवेदना के साथ रेखांकित करती है। ये कहानी वृद्धाश्रम में जीवन बिता रही विभिन्न महिलाओं के जीवन को केन्द्र बनाकर लिखी गई है। सखुबाई, आनंदी, गुरुविंदर कौर सभी पात्रों की अपनी एक अलग कहानी है, जो समाज से तिरस्कृत होकर वृद्धाश्रम में जीवन बीता रहे थे। एक बेटे और दो बेटियों की माँ होते हुए भी आनंदी जैसी वृद्ध महिला को वृद्धाश्रम में रहने को मजबूर होना पड़ता है। ‘‘सखुबाई को लगता, उसके पुत्र से भी अधिक जघन्य अपराध आनंदी की संतान ने किया था। ऐसी संत निरीह जननी को कैसे यहाँ एकदम अनजान परिवेश में ढकेल दिया। चार वर्षों में कुल दो बार उसकी बेटियाँ उससे मिलने आयी थीं-अलबŸाा चिट्ठियाँ और नववर्ष के कार्ड आ जाते। होली के दिन पŸाा भी हिलता तो आनंदी चैकन्नी हो जाती। उस दिन ‘आश्रम’ के कई भाग्यशाली बुजुर्गों के आत्मीय स्वजन उन्हें अबीर-गुलाल का टीका लगाने आते। आनंदी की बेटियाँ तीन होलियों से माँ से मिलने नहीं आयी थी। फिर भी कहीं-न-कहीं आशा की टिमटिमाती ज्योति को आनंदी हथेली की ओट से बचाए सेंत रही थी।’’ ऐसे में वृद्ध आनंदी की मौत होने पर जब आनंदी की पुत्रियों को खबर दी गई, उस समय वे दोनों परिवार सहित बैंकाक घूमने गई थी। ‘हमारी माँ का बक्सा सँभालकर रख दें-हम लौटने पर ले लेंगी।’ ‘‘एक सुखबाई ही जानती थी उस सूटकेस में क्या है-चार सूती इकलाई धोतियाँ, तीन पेटीकोट, चार कुर्तियाँ, दो चादर, एक टूटा चश्मा, वर्षों से बंद पड़ी एक अलार्म घड़ी और बैंक की पासबुक, जिसमें कुल जमा थे सŸााइस रुपये बावन पैसे!...... यह उस बेटे की माँ की विरासत थी जिसे महीने में बीस हजार का वेतन मिलता था, जिसका अपना अपार्टमेंट था, स्विमिंग पूल था, तीन-तीन गाड़ियाँ थी। उन दामादों की सास की विरासत थी जिनके घरों में कुबेर का छत्र बड़ी गहराई तक धँसा था।’’ ऐसे वृद्धजनों के प्रति शिवानी जी में अपार संवेदना दिखाई देती है। आज की युवा पीढ़ी उनकी देखभाल से उदासीन होती जा रही है बल्कि पूर्णतः विमुख हो चुकी है। शिवानी की कहानी ‘भूमि-सुता’ में अनुराधा की अपने बेटे रजत की उदासीनता के कारण स्मृतिभ्रष्ट तक हो जाती है। रजत अपने पिता की मौत की खबर सुनकर भी नहीं आता। ओर एक दिन जब रजत आता है तो घर का सारा सामान औने-पौने दामों में बेच जाता है। बीमार माँ अनुराधा को देखभाल के लिए आपने साथ ले जाने की बजाय कलकŸो के चैशायर ओल्ड होम में छोड़ आने का प्रस्ताव रखता है। निराश्रित होने का आतंक अनुराधा की निरीह आँखों में सदा के लिए जम गया था-कहाँ जाएगी वह? कभी कमरे में लावारिस लाश-सी पड़ी रहीं तो? कौन देगा उसे मुखाग्नि? यह सोच-सोच कर भंयकर बिमार हो गयी। उनकी दŸाक पुत्री सुता जब माँ की इस स्थिति को देखती है। ‘‘सुता जानती थी उस बीमारी का कारण क्या है। विदेशों में सन्तानों की उदासीनता से पीडित, निष्कासित, ओल्ड होम में डाल दिए गए बूढे़ माँ-बाप, क्या वह हाइडपार्क की बेचों पर स्वयं शून्याकाश को निहारते नहीं देख चुकी है? सन्तानप्रदत वे ही अकृतज्ञ आघात उन्हें धीरे-धीरे विस्मृति के गर्भ में डूबों देते हैं। एड्स की भाँति, अब यह बीमारी भी भारत में रेंग आई है। रजत और उसकी पत्नी के दिए गए अदृश्य आघातों के नासूर क्या एक आध थे?’’ इन पंक्तियों में शिवानी की कलम वृद्धजनों की होती दुर्दशा और संबंधों में बँटती गर्माहट को भी रेखांकित करती है।
शिवानी अपने कथा-कहानियों में देहज जैसी सामाजिक बुराई और उसके दुष्प्रभाव पर भी प्रकाश डालती है। वो अपनी अनेक कहानियों और उपन्यास में दहेज लोलुप व्यक्तियों का चित्रण करती ही है, साथ ही ये भी बताती है कि दहेज के अभाव में या दहेज कम दिए जाने के मामले में कितनी मासूम लड़कियों को अपनी जान तक खोनी पड़ती है। दहेज के कारण ही समाज में बेमेल और बाल विवाह जैसी समस्याएँ पैदा होती है। समाज में दहेज का ये अभिशाप आज ओर भी गहराता जा रहा है। ‘श्राप’ कहानी के एक प्रसंग में लड़की के पिता शिवानी जी को कहते हैं, ‘‘हम लोगों के लिए अच्छे लड़कों के लिए अच्छी-खासी रकम देनी पड़ती है। दुर्भाग्य से हम कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं, हमारे यहाँ एक प्रकार से रटे बँधे हैं, आई.ए.एस. लड़का है तो सवा लाख, आई.पी.एस. तो एक लाख, इंजीनियर है तो अस्सी हजार और फिर साधारण नौकरीवालें के लिए भी कम-से-कम बीस हजार, उस पर दहेज अलग, डाॅक्टर लड़के तो कन्धे पर हाथ नहीं धरने देते। यानी जैसा दाम खर्च कर सको वैसी चीज लो।’ ‘‘तो आपको इस रिश्ते में भी रकम भरनी होगी?’’ मैंने पूछा। ‘‘और नही तो क्या? पर ये शरीफ हैं, इन्हें लड़की पसन्द है, कुछ नहीं माँगेंगे, हम अपनी बिटिया को जो देना चाहें दे।’ बडे़ गर्वजन्य संतोष से उनका शान्त चेहरा दमक उठा। बेचारे शायद इस कटु सत्य से अनभिज्ञ थे कि मुँह से कुछ न माँगनेवाले ही कभी-कभी मुँह खोलकर सब कुछ माँगनेवालों से भी खतरनाक होते हैं। शिवानी जी के इस कथन की अन्तिम बात में निर्मम सच्चाई थी। कहानी के अगले ही हिस्से में समधियों का लालच सामने आ जाता है। लड़की के पिता एक पल को चुप रहे फिर रूंधे गले से बोले, ‘‘कैसे विचित्र लोग हैं, पहले स्वयं कहा कि कुछ नहीं लेंगे, केवल कन्या के हाथ पीले कर, उन्हें सौंप दें। अब चलते-चलते पैंतरा बदल लिया। मुँह खोलकर कहते तो हम उनकी वह माँग भी पूरी कर देते। अब दिव्या की चिन्ता लगी रहेगी-बहुत भोली है।’’ ‘‘आप चिन्ता न करें, सब ठीक हो जाएगा, ऐसी सुन्दर लड़की है आपकी, गुण-रूप देखकर अपनी सब माँगे भूल जाऐंगे।’’ अब कभी-कभी सोचती हूँ, नारी होकर भी मैं उन्हें एक नारी के प्रति हो रहे अन्याय का विरोध करने को क्यों नहीं उकसा पाई। क्यों नहीं कह सकी कि जो सगाई में ऐसे नीच लोलुप स्वभाव का परिचय दे गया, उसे क्यों अपनी कन्या सौंप रहे हैं आप? अभी क्या बिगड़ा है, तोड़ दिजिए यह सगाई।’’ विवाह हुआ और बड़ी धूमधाम से हुआ....‘‘विवाह के चार ही महीने बाद गैस पर खाना बनाते हुए, आँचल में आग लगी-मिनटों में ही झुलस गई, दूसरे ही दिन खतम हो गई।’’ किन्तु वास्तविकता ये थी कि जली नहीं, जला दी गई थी। कहानी में त्रासदीपूर्ण ढंग से एक मासूम की मृत्यु का कारण बना समाज में फैला दहेज। खबर पाते ही उसकी माँ ने बेटी से पूछा, ‘कैसे हुआ यह?’ बोली-‘अम्मा हुआ नहीं, किया गया।’ बस, आँखे पलट दी। ‘‘वहाँ उस बयान का कोई साक्षी नहीं था, न नर्स, न डाॅक्टर-हाँ, एक साक्षी थी, स्वयं सगी बहन, वह मुकर गयी। ‘‘मैंने चीख-चीखकर कहा, ‘मेरी बेटी जली नहीं, उसे जलाया गया है, मुझसे स्वयं कह रही है।’ ‘पर मेरी ही सगी बहन ने मेरा मुँह दाब दिया, ‘क्या कह रही हो जीजी! दिव्या खाना बनाने में जली है, उसे किसी ने नहीं जलाया।’ ‘‘तू झूठी है, तेरे पति भी पुलिस के अफसर हैं और दिव्या का जेठ भी, तुम्हारी बिरादरी हमेशा अपने पेशेवर को ही बचाती है। तूने ही यह रिश्ता इन कसाईयों से पक्का किया था।’ पर मेरी सगी बहन ही मुझसे नाराज होकर घर चली गई-तब से दर-दर भटक रही हूँ। कही तो न्याय की भीख मिलेगी। हत्यारा अभी भी मूँछों पर ताव देता घूम रहा है, सुना है दूसरी जगह रिश्ते की बात चल रही है।’’ इस कहानी में कितनी मार्मिकता से शिवानी जी ने दहेज के दुष्प्रभावों को दिखाया है। शिवानी जी ने दहेज जैसी गंभीर समस्या को अपने ‘कालिन्दी’, ‘चल खुसरो घर आपने’, ‘तिलपात्र’ आदि उपन्यासों में भी उठाया है।
दहेज समस्या के अतिरिक्त शिवानी जी ने वेश्या समस्या पर बहुत कुछ लिखा है। किन मजबूरियों से स्त्रियाँ या लड़कियाँ वेश्या बनती है, उनके प्रति समाज का दृष्टिकोण, समाज में उनका स्थान आदि का वर्णन शिवानी जी ने किया है। वेश्या जीवन का चित्रण और उनके प्रति संवेदना का चित्रण प्रेमचन्द युग से आज तक होता आया है। शिवानी जी भी इससे अछूती नहीं रहीं। शिवानी का नाम उन सर्जकों में विशेष रूप से उल्लेखनीय है जिन्हांेने वेश्या-जीवन जीने के वाली स्त्री के उद्धार के लिए अपने कथा-साहित्य के माध्यम से सराहनीय कार्य किया है। शिवानी जी मानती है कि नारी का यह रूप मूलतः आर्थिक विवशता का परिणाम होता है। यह विवशता कहीं जन्म से ही उसे वेश्या-कुल से जोड़ देती है। शिवानी के कथा-साहित्य में ऐसी स्त्रियाँ दो वर्गों में विभाजित की जा सकती है। प्रथम वर्ग में उन नारियों का गर्हित रूप है, जो साधारण समाज का कंलक समझी जाती है। पुरुष की वासनापूर्ति से अपने आर्थिक अभाव की पूर्ति करना ही जिनका प्रमुख उद्देश्य रहता है। अपने भविष्य के असुरक्षा के भाव के कारण अधिकाधिक धनार्जन को अपना लक्ष्य बनाती है। दूसरे वर्ग में ‘देवियाँ’ आती है, जो अपने रूप, गुण और शील में किसी ललना से कम नहीं। इनका स्नेह, त्याग अभिजात्यवर्गीय नारी के समकक्ष रहकर भी इनकी नियति वेश्या होकर ही रहने की है। ‘कृष्णकली’ की पन्ना, ‘करिये छमा’ हीरावती ऐसी ही त्यागमयी श्रेष्ठ नारियाँ है। शिवानी जी का मानना था कि वेश्या घृणा के योग्य नहीं है, वह भी मानवी है, उनमें भी स्त्रीत्व की भावना है तथा वह प्रेम और विश्वास की भावना पाकर अन्य नारियों की भाँति जीवन व्यतीत कर सकती है। शिवानी जी ने अपने उपन्यास और कहानियों दोनों के माध्यम से वेश्याओं के जीवन की विडम्बनाओं, उनकी परिस्थिति की विवशताओं तथा उनके मन की पवित्रताओं पर विस्तृत प्रकाश डाला है। वेश्या जीवन की तरह वैधव्य जीवन, नारी जीवन की बेहद कारूणिक स्थिति होती है। नारी जब विधवा बन जाती है तो उसका जीवन समाज में नर्क से भी बदतर बन जाता है। वह समाज-परिवार के अनेक नए नियमों से जकड़ दी जाती है। वह न अच्छे वस्त्र धारण कर सकती है, न हँस-बोलकर जीवन बीता सकती है, न किसी पर्व-त्योहार, शादी-विवाह में भाग ले सकती है। समाज द्वारा उपेक्षित जीवन स्वयं उसके लिए भी भार-स्वरूप् बन जाता हैै। सदियों से ऐसी भाग्यहीन विधवाएँ जीवन जीती रही है। शिवानी ने अपनी कहानियों-उपन्यासों में विधवाओं के अन्तर्मन में उठने वाली इच्छाओं, भावों का चित्रण अनेक सन्दर्भों के अन्तर्गत करती है। वे मानती है विधवा होना कोई पाप नहीं है कि जिसका भार एक स्त्री हमेशा अपने साथ ढोए। शिवानी ने अपने ढंग से समाज के इस दूषण को मिटाने और विधवाओं को समाज में सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत करने के लिए प्रयत्न किया है। शिवानी अपनी कथाओं में विधवाओं की करूणता का चित्रण तो करती है परन्तु विधवाओं को विवश, परवश या शोषण की शिकार न बना उन्हें शिक्षित कर, आत्मनिर्भर बनाती है ताकि वो पूरे मान-सम्मान के साथ समाज में जीने के लिए तैयार हो। पुनर्विवाह की सामाजिक स्वीकृति की अपेक्षा विधवाओं को शिक्षित और आत्मनिर्भर बनाकर गौरवपूर्ण जीवन के लिए प्रेरित करना श्रेयस्कर है। यह कार्य शिवानी जी पूरे आत्मबल से करने का प्रयत्न करती है।
शिवानी जी सामाजिक समस्या से इतर धार्मिक समस्या को भी पूरी गहराई और मार्मिकता से अपने कथा-संसार में चित्रित करती है। शिवानी जी धर्म का आडम्बर लेकर भोली-भाली जनता को बेवकूफ बनाते अघोरी साधक, धार्मिक संतों, नंगा बाबाओं आदि का वास्तविक रूप सामने रखा है। शिवानी जी की ‘निर्वाण’ कहानी धार्मिक आडम्बर और धर्म के नाम पर लोगों के जीवन को नष्ट करने वाले एक ऐसे ही चमत्कारी बाबा का चित्रण है। कहानी की पात्र मन्नू यानि मनोरमा चोपड़ा बहुत ही धार्मिक स्वभाव की महिला है और उसे अपने चमत्कारी बाबा जो उसके गुरु भी है, उन पर अटूट विश्वास है। एक दिन मन्नू लेखिका को गुरु के लिए घर पर आयोजित धार्मिक आयोजन पर आमंत्रित करती है। लेखिका मन्नू के घर पर पहुँचती है। तब उसके घर का दृश्य लेखिका कुछ इस तरह वर्णन करती है, ‘‘बरसाती से लेकर बाहर तक रंग-बिरंगी कारों की कतारें देखकर ठिठकर खड़ी रह गयी। पहले मैं समझ नहीं पाई, पर कमरे में पैर रखते ही सब स्पष्ट हो गया। जहाँ दीवान, सोफा, रेश्मी गद्दियों, रा सिल्क के पर्दों के बीच अपूर्व नग्न मूर्तियों का जमघट रहता था वहाँ सबकुछ तिरोहित हो, फर्श पर दूधियाँ चाँदनी बिछी थी। एक ओर था छोटा-सा कुशासन और बीच में धरी उसके गुरुदेव की बड़ी-सी तस्वीर के सामने अगरबŸिायों के गुच्छे का गुच्छा जलता पूरे कमरे को अपनी लच्छेदार ध्रूमरेखा से सुवासित कर रहा था। कमरे में तिल धरने की भी जगह नहीं थी। एक-से-एक समृद्ध अतिथि, सहमी मुद्रा में नतमस्तक बैठे, गुरुदेव की प्रतीक्षा कर रहे थे। सहसा गुरु का पदार्पण हुआ। स्कंध स्पर्श करते रेशमी घुँघराले बाल, स्थूलकाय प्रसन्नवदन उस दिव्यपुरुष को देखते ही जैसे सबको एकसाथ बिजली का-सा झटका लगा और सब खड़े हो गए।..... कमरे की भीड़ को आतुरता की लहर चंचल कर गई। आधुनिक जीवन के अनेक संशयों से क्षुब्ध कितने ही व्याकुल चिŸा, एकसाथ अनेक प्रश्न को लालायित हो और निकट खिसक आए।’’ कहानी के अनन्तर लेखिका महसूस करती है कि मन्नू बाबा की अंधश्रद्धा के चलते धीरे-धीरे परिवार से कटती चली गई। आए दिन उनके साथ धार्मिक गोष्ठियों में भाग लेने, देश-विदेश की खाक छानती मन्नू पति, पुत्र, पुत्री सबको भुला बैठी थी। ओर एक दिन मन्नू परिवार का त्यागकर, सब-कुछ छोड़ उस बाबा के साथ चली जाती है। महीनों उसकी कोई खबर नहीं मिलती। फिर एक दिन लेखिका ने देखा ‘एकसाथ ही देश के प्रमुख समाचार-पत्रों ने उसके गुरुदेव की धज्जियाँ उड़ाकर रख दीं। उसकी तस्करी की कहानियाँ, भोली-भाली युवतियों को ही नहीं, अनेक सुशिक्षिता आधुनिकओं को भी अपने सम्मोहन-पाश में बाँधने का रंगीन विवरण, कई विदेशी चेले-चपाटों की लूटपाट, उन्हें पथ का भिखारी बना देने का लेखा पढ़कर भी मुझे सबकुछ अधूरा-सा ही लगा था, क्योंकि उनकी जिस शिष्या ने, उन्हें दीक्षा की सबसे गहरी दक्षिणा दी थी, उस अभागिनी का नाम मुझे कहीं ढूँढने पर भी नहीं मिला।’ और इसी सस्पेंस के साथ कहानी का अंत हो जाता है। प्रस्तुत कहानी संकेत रूप से धर्म के नाम पर खिलवाड़ करने वाले बाबाओं और उन पर अगाध अंधश्रद्धा से अपने जीवन को नष्ट करने वाली युवतियों पर तीखा प्रहार करती है। शिवानी जी ने कहानियों के अलावा ‘सुरंगमा’, ‘चैदहे फेरे’ आदि उपन्यासों में भी पाखण्डी साधु-सन्तों की प्रवृŸिायों को दिखाकर उन पर चोट तो करती ही है, साथ ही वे धार्मिक आडम्बर, अन्धविश्वास, ईश्वर को दी जाने वाली बलि, जादू-टोना, चमत्कार, निर्वाण प्राप्ति हेतु की जाने वाली श्मशान पूजा एवं साधना, धार्मिक छूआछूत आदि गंभीर समस्याओं को भी दिखाती है।
सहायक ग्रंथ सूची
1़ कुषवाहा अमित कुमार, हिन्दी साहित्य में स्त्री अस्मिता-नये प्रश्न नई चुनौतियां, महात्मा गंाधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी, पृ़. 22
2. आइसेंक एच.जे., द एनसाइक्लोपीडिया ऑफ फिलोसॉफी, पृ. 385
3. सोलंकी डाॅ. गीता, नारी चेतना और कृष्णा सोबती के उपन्यास, पृ. 14
4. सोबती कृष्णा, नारी मुक्ति और नारी मुक्ति आंदोलन, पृ. 29
5. कुमार जैनेन्द्र, नारी, पृ. 44
6. अग्रवाल साधना, वर्तमान हिन्दी महिला कथा लेखन और दाम्पत्य जीवन, भूमिका
7. चतुुर्वेदी जगदीश्वर, स्त्रीवादी साहित्य विमर्श, पृ. 07
8. नागर सूर्यकांत, नारी अस्मिता सुलगते सवाल, पृ़. 39
9. पंडित सुरेश, मानव अस्तित्व के लिए लड़ती महिलाएं, पृ़. 89
Received on 14.05.2016 Modified on 25.05.2016
Accepted on 23.06.2016 © A&V Publications all right reserved
Int. J. Rev. and Res. Social Sci. 4(2): April - June, 2016; Page 121-126