प्राचीन भारत में इतिहास लेखन की समीक्षा

 

नितेश कुमार मिश्रा

सहायक प्राध्यापक, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व अध्ययन शाला, पं. रविशंकर शुक्ल विश्व विद्यालय, रायपुर (छ.ग.)

*Corresponding Author E-mail: niteshmishra2011@gmail.com

 

ABSTRACT

विश्व के प्रत्येक देश में लोगो को इतिहास की समझ एक समय पर नहीं हुयी हैं बल्कि इसका ज्ञान अलग-अलग समय पर हुआ है। किसी भी देश का अपना कुछ न कुछ इतिहास होता है जिसके विषय में सुचनाऐं हमें समकालीन मनीषियों के द्वारा लिखें गयें साहित्यों में से होती है किन्तु इस प्रकार के साहित्य में कौन सी सामाग्री इतिहास लेखन में सहायक सिद्व होगी इसका निर्धारण कर पाना कठिन कार्य है। इतिहास लेख या इतिहासिकी का शाब्दिक अर्थ इतिहास लेखन की कला है। दुनिया के विभिन्न जन समुदायों और विभिन्न कालों में अतीत का जिज्ञासु बोध यानी ऐतिहासिक बोध एक समान मौजुद नहीं रहा है।प्राचीन यूनान एवं रोम तथा यहूदी एवं इसाई धर्मों ने युरोप से शक्तिशाली इतिहास बोध विरासत में लिया हैं किन्तु प्राचीन भारत में इतिहास बोध को देखा जाये तो इस सम्बन्ध में विद्वानो में काफी मतभेद है। विद्वानों का एक बड़ा वर्ग मानता है कि प्राचीन भारत में भारतीयों को इतिहास लेखन की समझ नहीं थी। इस प्रकार की सोच रखने वाले विद्वानों में विन्टर निट्ज मैक्समूलर आदि का नाम उल्लेखनीय हैं। इस मान्यता के विपरीत विद्वानों का एक वर्ग यथा, डां. गोविन्द चन्द्र पाण्डेय, डा. विश्वम्भर शरण पाठक, नीलकंठ शास्त्री आदि ने अपनी कृतियों के माध्यम से प्रमाणित करने का प्रयास किया कि भारतीय इतिहास लेखन की कला से परिचित थे।

अतः इस शोध पत्र के माध्यम से मेरे द्वारा प्राचीन भारत में इतिहास लेखन के दोनों मतों का समीक्षात्मक लेखन प्रस्तुत शोध पत्र में किया गया है।

      

KEYWORDS इतिहास लेखन, समीक्षा

किसी भी देश का अपना कुछ न कुछ इतिहास होता है जिसके विषय में सूचनाऐं हमें समकालीन मनीषियों के द्वारा लिखे गये साहित्यों से होती है। किन्तु इस प्रकार के साहित्यों में कौन सी सामाग्री इतिहास लेखन में सहायक सिद्ध होगी इसका निर्धारण कर पाना कठिन कार्य है। इतिहास लेख या इतिहासिकी का शाब्दिक अर्थ इतिहास लेखन की कला है। यह इतिहास का इतिहास या इतिहास लेखन का इतिहास है। इतिहास लेख ऐतिहासिक लेखन के विकास क्रम की कथा कहता है। इतिहास के लेखन से सम्बधित बदलते विचारों और तकनीकों तथा स्वयं इतिहास के प्रति बदलते रूख भी इसमें शामिल हो गये है। अतः यह मनुष्य के अतीत बोध के विकास का अध्ययन है।(1)

 

अलग-अलग युगो और अलग-अलग लोगों के ऐतिहासिक साहित्य की प्रकृति गुणवत्ता और मात्रा में अन्तर है। ये भिन्नताऐं सामाजिक जीवन और मान्यताओं तथा इतिहास बोध की उर्पिस्थति या अनुपास्थिति से प्रतिबिंबत होती है।(2) दुनिया के विभिन्न जन समुदायों और विभिन्न कालों में अतीत का जिज्ञासु बोध यानी ऐतिहासिक बोध एक समान मौजूद नहीं रहा है। प्राचीन यूनान एवं रोम तथा यहूदी एवं ईसाई धर्मो ने यूरोप से शक्तिशाली इतिहास बोध विरासत में लिया है किन्तु यदि प्राचीन भारत में इतिहास बोध और इतिहास लेखन को देखा जाये तो इस सम्बन्ध में विद्वानों में काफी मतभेद है।विद्वानों का एक बड़ा वर्ग मानता है कि प्राचीन काल में भारतीयों को इतिहास लेखन की समझ नही थी। इस प्रकार की सोच रखने वाले विद्वानों में ए.बी.कीथ, विसेन्ट स्मिथ, लोएस डिकिन्सन, विन्टर निट्ज, प्रो.कावेल, मैक्समूलर आदि का नाम उल्लेखनीय है। इन समस्त विद्वानों ने समकालीन विश्व से तुलना के आधार पर इस प्रकार का मत बनाया है। इनके अनुसार प्राचीन भारतीयों के बौद्धिक जीवन की सबसे बड़ी त्रुटि यह थी कि उनकी सभ्यता का सुदीर्घ इतिहास और विकसित चरित्र होने के बाद भी उनके इतिहास बोध और विभिन्न घटनाओं को कालक्रम के अनुसार व्यवास्थित करने की प्रवृत्ति का पूर्णतः अभाव है। इस सम्बन्ध में बी.ए. कीथ ने लिखा है कि भारत का साहित्य पर्याप्त परिमणि में उपलब्ध होने के बाद भी इतिहास का निरूपण इतना सोचनीय है कि संस्कृत साहित्य के सम्पूर्ण महान काल में एक भी लेखक नहीं है जिसे गंभीरता के साथ आलोचनात्मक इतिहासकार के रूप में मान्यता दी जा सके।(3) प्राचीन भारतीयों में इतिहास बोध और कालक्रमानुसार ऐतिहासिक घटनाओं को व्यवास्थित प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति न होने का कारण विसेण्ट स्मिथ के अनुसार अधिकांश संस्कृत कृतियों की रचना ब्राह्मणों ने की थी जिनके भीतर इतिहास लिखने के प्रति कोई रूचि नही थी बल्कि उनकी रूचि अन्य कार्यो में थी।(4) किसी भी व्यक्ति को अच्छा इतिहास लेखक बनाने में परिवेश और घटनाक्रम की विशेष भूमिका होती है किन्तु प्राचीन भारत में लगातार कुछ न कुछ घटनाऐं यथा विदेशी आक्रमण ।

 

आदि होते रहे पर इनका प्रभाव भी किसी भारतीय के ऊपर संभवतः नही पड़ा क्योंकि भारतीय साहित्यों से विदेशी आक्रमण आदि के विषय में बहुत कम सूचना मिलती है इसके विपरित होमर एवं हेरोडोटस जैसे इतिहासकारों को इसी प्रकार की घटनाओं ने प्रभावित किया और इन लोगों ने अपनी लेखनी उठायी और अपनी वेदना को अभिव्यक्त किया। इतिहास बोध का होना न होना अनिवार्यतः किसी जनसमुदाय के विश्वासों और मनोवृत्तियों पर निर्भर है जिन कारकों ने सही अर्थो में प्राचीन भारतीयों में ऐतिहासिक चेतना को अवरूद्ध किया है वे धर्म और दर्शन में निहित हैं। प्राचीन भारतीय प्रमुख धर्मो यथा ब्राह्मण जैन एवं बौद्ध की मान्यता है कि सब कुछ नियति द्वारा निर्धारित है जो कुछ भी हो रहा है वह हमारे पूर्व जन्मों का फल है इस प्रकार की सोच ने निश्चित रूप से ऐतिहासिक चिन्तन को प्रभावित किया ।(5) इसके अलावा प्राचीन भारत में जीवन को नकारने का दर्शन प्रबल था। यहाँ इस बात पर बल दिया जाना चाहिये कि ऐतिहासिक अनुसन्धान के कार्य में व्यवस्त होने के लिये अर्थात अतीत का ज्ञान हमारी दृष्टि से प्राप्त करने के उदेश्य से एक अनिवार्य शर्त वर्तमान और भविष्य की समस्याओं में रूचि है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन भारतीयों में यह रूचि उस सीमा तक या उस अर्थ में नही थी जिस सीमा तक या जिस अर्थ में यह अन्य मानव समुदायों के सन्दर्भ में दिखाई देती है। भारतीय मानते थे कि वर्तमान जीवन और उसके सभी घटक नश्वर और अस्थायी तथा जन्मों और पुनर्जन्मों की अनंत श्रंखला की एक कड़ी मात्र हंै, उन्होंने जीवन चक्र से मुक्ति को इसका सबसे बड़ा लक्ष्य माना है विभिन्न संसारिक वस्तुओं और घटनाओं की क्षण भंगुरता या नस्वरता में विश्वास ने एक घोर निराशावादी दृष्टि कोण को जन्म दिया। इस प्रकार मानव अपने इहलौकिक जीवन को नश्वर मानने लगा और इस अस्थायी जीवन के ज्ञान की तुलना में शाश्वत आध्यात्मिक ज्ञान अर्थात ब्रह्मविद्या को सर्वोत्कृष्ट ज्ञान के रूप में प्रतिष्ठा मिली। यह दृष्टि कोण लोगों के मन में समाहित था ऐसी किसी भी धारणा जो शाश्वत जीवन के ज्ञान में वृद्धि करती थी को महत्वपूर्ण माना गया। अतः इतिहास जिसकी प्रवृत्ति इहलौकिक थी, केवल ऐसे ही परिवेश में पनप सकता था जहाँ जीवन के प्रति स्वीकारात्मक दृष्टिकोण होता अतः पारलौकिक चिन्तन में विश्वास इतिहास विरोधी प्रवृत्तियाँ है। इन सबके अलावा भारतीय इतिहास की एक और समस्या कालक्रम निर्धारण की है। कालक्रम व्यवस्था की चेतना के अभाव के कारण प्राचीन इतिहास की घटनाओं की तिथियों का सही निर्धारण कठिन हो जाता है। इतिहास का महत्त्व तभी होगा जब किसी घटना का तिथि के साथ उल्लेख किया जाये। भारत में कालक्रम निर्धारण सम्बन्धी यह कठिनाई दो प्रकार की देखी गयी है पहली कठिनाई तिथि का उल्लेख एकदम न होने की स्थिति में है जबकि दूसरी में तिथि का उल्लेख यदि किया भी गया है तो वह तिथियाँ ईसाई या हिज्री संवत जैसे हर जगह प्रयोग होने वाले संवतो के अनुसार नहीं है बल्कि प्राचीन भारत में विक्रम, शक, गुप्त, आदि संवतो का प्रयोग किया गया है अतः इस प्रकार की तिथियों को वैाश्विक स्तर पर प्रचालित तिथियों, के साथ तुलना कर पाना कठिन कार्य है। प्राचीन भारत में तिथि को लेकर एक और बात देखी गयी है अपने धार्मिक एवं रीति-रिवाजों के पालन के लिये एक हिन्दू समय को लेकर जितनी सतर्कता बरतता है वह इतिहास के परिप्रेक्ष्य में काल चेतना से एकदम अलग है मापदण्ड के एक सिरे पर कालक्रम की गणना यम, नादिक, विनादिक, मुहूर्त आदि जैसे सूक्ष्म मानकों के रूप में की गयी है, तो वही ऐतिहासिक घटनाओं के लिये यह गणना युगों अर्थात सतयुग, द्वापर, जेता एवं कलियुग के रूप में की गयी है इस प्रकार के तिथि निर्धारण से कभी भी इतिहास सही तरीके से निर्मित नही किया जा सकता है। इस मान्यता के विपरित विद्वानों का एक वर्ग यथा डा. गोविन्द चन्द्र पाण्डेय, डाँ. विश्वम्भर शरण पाठक, डाँ. एस.पी.सेन, नीलकण्ठ शास्त्री, ए.के.बार्डर, एवं आर.सी. मजूमदार ने अपनी कृतियों के माध्यम से प्रमाणित करने का प्रयास किया है कि भारतीय इतिहास लेखन की कला से परिचित थे।(6) इन विद्वानो के अनुसार भारतीय इतिहास शास्त्र की अपनी विशिष्ट परम्परा रही है जिसे आधुनिक दृष्टि कोण से देखकर एक पक्षीय घोषणा की गयी है। इतिहास शब्द का प्रथम उल्लेख वैदिक वाड.मय में हुआ है कि इसकी एक परम्परा विद्यमान थी। वेदों के अर्थ ज्ञान के लिये निरूक्त की परम्परा रही है वैदिक अर्थो को ऐतिहासिक संन्दर्भ में प्रस्तुत करने वाले का निरूक्त में कही इत्याख्यानम तथा कही इत्यैतिहासिका कहा गया है। निरूक्तकार ने स्वंय ही लिखा है -

 

तत्कोवृत मेघ इति नैरूक्ताः त्वाष्ट्रो असुर इत्यैतिहासिका: (निरूक्त 2/16)

 

इसके अलावा कई स्थानों पर निरूक्त कार न मात्र तैत्र्रेतिहास माच्क्षते इत्याख्यानम का उल्लेख कर इतिहास पक्ष को प्रस्तुत किया गया है। डाँ. विश्वम्भर शरण पाठक का कथन है कि भारत में प्राचीनतम ऐतिहासिक साहित्य के रूप में कुछ बिखरे हुये मन्त्र है जो तत्कालीन राजाओं के सैनिक अभियानों की प्रशंसा में लिखे गये है।(7) ऋगवेद के सूक्तों में कुछ मन्त्र ऐसे है जिन्हे दानस्तुति कहा जाता है। इन दान स्तुतियों में ऋगवैादिक कालीन राजाओं के प्रशस्त दान की इस्तुति की गयी है इन सब में ऐतिहासिकता समाहित है।(8) इसके अलावा ऋगवेद के मण्डलों के ऐतिहासिक अनुशीलन से यह ज्ञात होता है कि इसके प्रत्येक मण्डल का सम्बन्ध किसी ऋषि या उनके वैशजों से है। अतः वंश मण्डल के आधार पर ऋषि वंश के ऐतिहासिक वंश परम्परा का ज्ञान होता है।(9) वैदिक इतिहास शास्त्र के निर्माण में गाथा परम्परा का विशेष योगदान है। ऋगवेद में गाथ (9/99/4), गाथा, (8/71/14), गाथानी (1/43/4) ऋजुगाथ (8/92/2) आदि अनेक रूपों में उल्लेखित है और गाथा अवेस्ता का भी प्राचीनतम अंश है। गाथा से तात्पर्य बीरों के गुणगान से है। गाथा का गान अनुष्ठान आदि के अवसरों पर किया जाता था। ऋगवेद में गाथा, (10/85/6) नाराशंसी तथा रैंभी का एक साथ वर्णन हुआ है। डा. बलदेव उपाध्याय इसे वैदिक कालीन लौकिक धारा का ऐतिहासिक अंग स्वीकारते हंै जिसमें लोक में ख्याति प्राप्त महान व्यक्तियों का तथा लोक प्रसिद्ध वृत्त का वर्णन करना ही अभीष्ट प्रतीत होता है।(10) उत्तर वैदिक काल में और उसके बाद आख्यान, इतिवृत्त, वंश और वंशानुचरित, पुराण और इतिहास जैसे अन्य रूपों का आविर्भाव हुआ इन सभी से कुछ न कुछ ऐतिहासिक सामाग्री प्राप्त होती है उत्तर वैदिक काल में राजकीय आधिकारियों का एक महत्वपूर्ण वर्ग सूत था इनका प्रमुख कार्य राजाओं एवं पुरोहितों की वंशावलियों की रचना और संकलन करना था।(11) राष्ट्रवादी विचारकों की एक और अवधारणा रही है कि प्राचीन भारत के समृद्ध इतिहास का प्रतिनिधित्व पुराण करते है। पुराण का अर्थ है प्राचीन जनश्रुति ऐसा प्रतीत होता है कि वाचिक परम्परा के सबसे आरम्भिक रूपो अर्थात गाथा, नाराशंसी आरव्यान, इतिवृत्त और वंशानुचरित को पुराण में समविष्ट कर लिया गया था। पुराण के विषय में नामलिंगअनुशासनम् में वर्णित है -

 

सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वंतराणि चा ।

वंशानुचरितम चैव पुराणम पंचलक्ष्णम।।

 

अर्थात् बह्माण्ड की उत्पत्ति, प्रत्येक कल्प के अन्त में बह्माण्ड का धीरे - धीरे चरणबद्ध विकास और पुनर्रचना, देवर्ताओं आैर ऋषियों की वंशावलियाँ, युगों के चक्र जिसमें मानव जाति का नए सिरे से सृजन होता है और प्राचीन कालों से शासन करतेे आ रहे लोगों की वंशावलियाँ ये पुराण के पाँच लक्षण है। अतः इसे इतिहास की श्रेणी में रखा जा सकता है। इस प्रकार हम देखते है कि प्राचीन भारत में इतिहास बोध के प्रश्न पर विद्वानों का दो वर्ग स्पष्ट रूप से दिखाई देता है एक वर्ग भारतीयों के ऐतिहासिक बोध पर प्रश्न चिन्ह लगाता है जबकि दूसरा वर्ग प्राचीन भारत के लोगों की ऐतिहासिक चेेतना को स्वीकार करता है किन्तु इन दोनो मतों की समीक्षा की जाय तो ऐसा प्रतीत होता है कि आधुनिक काल में जो इतिहास होने के मानक निर्धारित किये गये है उस आधार पर प्राचीन भारत की अधिकांश कृतियों को इतिहास की श्रेणी में नही रखा जा सकता, किन्तु प्राचीन भारतीय साहित्यों में ऐतिहासिक सामाग्री निश्चित रूप से उपलब्ध है परन्तु उनका प्रयोग करने के लिये नीर क्षीर विवेकी होना अति आवश्यक है।

 

संदर्भ ग्रन्थ सूची

(1) बटरफील्ड, हिस्टोरियोग्राफी इन डिक्सनरी आफ हिस्ट्री आफ आइडियाज, बाल्यूम -2, 464

(2) ई. श्रीधरन, इतिहास - लेख, पृष्ठ -2

(3) कीथ, हिस्ट्री आॅफ संस्कृत लिट्रेचर, 144

(4) स्मिथ, आक्सफोर्ड हिस्ट्री आफ इण्डिया, ग्पपप

(5) ई. श्रीधरन, इतिहास लेख, 279

(6) कुँवर बहादुर कौशिक, इतिहास दर्शन एवं प्राचीन भारतीय इतिहास लेखन पृष्ठ - 98-99

(7) पं. रविशंकर मिश्र, वैदिक इतिहासार्थ निर्णय, पृष्ठ - 124

(8) मणिलाल पटेल, भारतीय अनुशीलन, पृष्ठ .109

(9) बी. एस. पाठक, एन्शियण्ट हिस्टोरियन्स आॅफ इण्डिया, पृष्ठ - 16

(10) बलदेव उपाध्याय, पुराण विमर्श, पृष्ठ - 10

(11) ई. श्रीधरन, पूर्वोद्धत, पृष्ठ - 283

 

 

 

Received on 01.06.2016       Modified on 10.06.2016

Accepted on 28.06.2016   © A&V Publications all right reserved

Int. J. Rev. and Res. Social Sci. 4(2): April - June, 2016; Page 89-92