जनजातीय क्षेत्र मे सामाजिक परिवर्तन लाने मे जनसंचार क्रांति की भूमिका
डा लोकेश पारगी
श्री गोविन्द गुरु राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय बाँसवाड़ा (राज.)
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विश्व आज विज्ञान की देन के कारण पाॅकेट मे तथा चीप मे समाहित हो गया है। परन्तु आज भी भारत के जनजातीय क्षेत्र अपने पंचायत, जिला मुख्यालय तथा राज्य से कटे हुए है। जनजातीय क्षेत्र अपने को बाहरी दुनिया से जोड नही पाऐ हैं, इसका मुख्य कारण इन क्षेत्रो मे व्याप्त अशिक्षा, अन्धविश्वास, बेरोजगारी, सामाजिक कुरुतियों, आवागमन के साधनो में कमी सरकार एवं राजनैताओं द्वारा अनदेखी के साथ भौगोलिक वातावरण बहुत अधिक जिम्मेदार है।
जनजातीय क्षेत्र, सामाजिक परिवर्तन, जनसंचार क्रांति
विश्व आज विज्ञान की देन के कारण पाॅकेट मे तथा चीप मे समाहित हो गया है। परन्तु आज भी भारत के जनजातीय क्षेत्र अपने पंचायत, जिला मुख्यालय तथा राज्य से कटे हुए है। जनजातीय क्षेत्र अपने को बाहरी दुनिया से जोड नही पाऐ हैं, इसका मुख्य कारण इन क्षेत्रो मे व्याप्त अशिक्षा, अन्धविश्वास, बेरोजगारी, सामाजिक कुरुतियों, आवागमन के साधनो में कमी सरकार एवं राजनैताओं द्वारा अनदेखी के साथ भौगोलिक वातावरण बहुत अधिक जिम्मेदार है। विभिन्न समाजशास्त्रियो ने आदिवासियो को अलग-अलग नामो से सम्बोधित किया है।
ऐलेन्ट्रस सेन जातिक तथा मार्टिन ने उन्हे सर्व जीववादी माना है। जी.एस.धुर्ये ने उन्हे “आदिवासी” अथवा “पिछडे हिन्दू” नाम दिया है तथा साथ ही साथ उनके लिए दुसरा सम्बोधन अनुसूचित जनजाति नाम से प्रस्तावित किया है, जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 342 के अन्तर्गत स्वीकार किया गया है।
जनजातियांे को आदिवासी पुकारे जाने के सम्बन्ध मे अलग-अलग विद्वानो ने अलग-अलग तरह से परीभाषाऐ दी है।
डी.एन.मजूमदार का कहना है कि जनजाति:- परिवारो तथा पारीवारिक वर्गो का एक सामान्य नाम होता है, एक सामान्य भाषा का प्रयोग करते है। एक निश्चित भूभाग मे निवास करते हैं विवाह आदि मे कुछ निषेधों का पालन करते है तथा पारस्परीक कर्तव्य विषयक एक निश्चित व्यवस्था का विकार कर लिया है।
20वीं शताब्दी के तीसरे दशक में एल्विन ने अपनी पुस्तक दि लाॅज आॅफ नर्व मे स्पष्ट रुप से तर्क दिया है कि आदिवासी जितना अधिक शहरी और जातीय समुदायो के निकट आएगा उतना ही वह अपनी पहचान को संकट मे डाल देगा। यह सम्पर्क उसे बिगाड देगा वह बुरी आदतो की लत मे फॅस जाऐगा और उसका सुखी जीवन विपन्नता मे बदल जाऐगा। एल्विन का आग्रह था कि सभ्य समाज अर्थात जातीय समाज से पृथक रहकर ही आदिवासी समाज अपनी प्राकृतिक अवस्था मे रह सकता है।
आत्म सरलीकरण की नीति के प्रमुख उद्घोषक डाॅ. धुरिये ने अपनी पुस्तक द शेडयूल्ड ट्राइब्स (1967) मे कहा कि “जनजातियों को आधुनिक सभ्यता के सम्पर्क मे लाने की आवश्यकता है। इससे उन्हे अपनी निम्न स्थिति और दयनीय दशा का ज्ञान होगा एवं उसे सुधारने की प्रेरणा मिलेगी।” ए.वी.ठक्कर जो ठक्कर बापा के नाम से जाने जाते है ने सुझाव दिया कि जनजातीयो की समस्याओ का समाधान जनजातीय क्षेत्रो को पुर्णरुपेण अथवा आंशिक रुप से देश के अन्य भागो से अलग कर देने से नही हो सकता । वस्तुतः जनजातियो को देश के सभ्य समुदायो का एक अंश बनाया जाना चाहिए पर इसका उद्देश्य किसी धर्म विशेष के अनुयायियों की संख्या मे वृदि करना नही होना चाहिए।
आदिवासी समाज को सामान्यतः प्राचीनतम् माना गया है। अधिकांश आदिवासी विकास के पथ पर अग्रसर नही हो पाये और देश मुख्य धारा से जोडने शताब्दियो से कह रहा है। कालान्त्तर से ही ये समुदाय अन्य समाजो की तुलना मे सर्वाधिक पिछडे हैं आज तक भी ये अर्थिक रुप से समृद्व नही हो सके है। भारत मे इनका इतिहास सर्वाधिक पुराना है तथा इन आदिवासीयो को भारत का मूल निवासी माना गया है। पाॅचवी अनुसूची के क्षेत्र रखने वाले राज्य जो वर्तमान मे 10 है, आध्र प्रदेश, छतीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उडीसा, तेलंगाना और राजस्थान आदि पांचवी अनुसूची के राज्य है। भारतीय सविधान मे जनजाति विकास के लिये भारतीय संविधान मे विशेष प्रावधान है। भारतीय सविधान की अनुसूची मे अनुसूचित जनजातियो एवं अनुसूचित क्षेत्रो के प्रशासन और नियंत्रण हेतु राज्य की कार्यपालिका की शक्तियो का विस्तार किया गया है, इन्ही शक्तियो के आधार पर राजस्थान मे जनजाती समुदाय के समग्र विकास हेतु राज्य सरकार द्वारा वर्ष 1975 मे जनजाति क्षेत्रीय विकास विभाग की स्थापना की गयी।
राजस्थान भारत का सबसे बडा राज्य होने के साथ-साथ अपनी ऐतिहासिक एवं गौरन्वित इतिहास होने के कारण इतिहास के पन्नो पर देखा जाता रहा है। राजस्थान को भारत सरकार ने आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र माना है। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत मे कुल जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत आदिवासी का है, जबकी राजस्थान की कुल जनसंख्या का 13.48 प्रतिशत जनसख्या मे से 73.17 प्रतिशत जनजाति क्षेत्र मे आदिवासी निवास करता है।
राजस्थान के दक्षिणी भाग उदयपुर, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, प्रतापगढ़, सिरोही जिलों में बहुसंख्यक आदिवासियों का निवास होने के कारण इन जिलों को जनजाति उपयोजना क्षेत्र में शामिल किया गया है।
शोध पत्र के अध्ययन हेतु बांसवाड़ा जिले का चयन किया गया। यह गुजरात और मध्यप्रदेश दोनों राज्यों की सीमा के निकट है तथा इस जिले की कुल जनसंख्या का 76.40 प्रतिशत हिस्सा आदिवासियों का है। बांसवाड़ा की स्थापना बासिया चरपोटा ने की थी, जो एक भील राजा था। इन्हें वाहिया या बांसिया के नाम से भी जाना जाता है। बांसवाड़ा के राजा बांसिया के नाम पर ही इसका नाम बांसवाड़ा पड़ा। इसे ‘‘सौ द्वीपों का नगर‘‘ भी कहते है, क्योंकि यहां से होकर बहने वाली माही नदी में अनेकानेक से द्वीप हैं। बांसवाड़ा के आसपास का क्षेत्र अन्य क्षेत्रों की तुलना में समतल और उपजाऊ है, माही, बांसवाड़ा की प्रमुख नदी है। मक्का, गेहूं और चना बांसवाड़ा की प्रमुख फसलें है। बांसवाड़ा में लोह-अयस्क, सीसा, जस्ता, चांदी और मैगनीज पाया जाता है। फिर भी यहां के आदिवासी आज भी गरीबी के दिन देख रहे हैं क्योंकि यहां के मीडिया और राजनेताओं ने आज तक उनके सवैधानिक अधिकारों की आवाज नहीं उठाई जिस कारण गरीबी खत्म लेने का नाम नहीं ले रही है।
विधि:
बांसवाड़ा जिले की पंचायत समिति सज्जनगढ़ की ग्राम पंचायत गोदावाड़ा नारेंग के प्रत्येक गांव से एक-एक उत्तरदाता का चयन किया, जिसमें महिला एवं पुरुष 40 से 60 वर्ष की उम्र के थे। जनसंचार साधनों पत्र-पत्रिकाओं का प्रयोग बहुत कम गिने-चुने लोग करते हैं, इसलिए उद्देश्यपूर्ण निर्दशन द्वारा 20 उत्तरदाताओं का चयन कर उनका वैयक्तिक अध्ययन किया गया है। भीलकुआं गांव में पिछले 5 वर्षो से समाचार पत्र का आगमन हुआ है, जिसमें पुरे गांव से 3 परिवारों में ही राजस्थान पत्रिका का प्रयोग करते थे। सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि मीडियाकर्मी हमारे गांव तक कभी भी नहीं आते है। कुछ लोगों का कहना है कि समाचार न्यूज छपवाने के लिए आस-पास के शहर में जाना पड़ता है वह न्यूज भी बहुत कम छपती है, वर्तमान में मोबाइल की सुविधा होने के कारण रेडियो, समाचारों से कई योजनाओं की जानकारी मिली रही है। 48 प्रतिशत उत्तरदाताओं का मानना है कि रेडियों समाचारों से विभिन्न योजनाओं की जानकारी प्राप्त हो रही है। 30 प्रतिशत उत्तरदाताओं का मानना है कि योजनाएं कुछ शिक्षित लोगों तक ही सीमित हो जाती है। 52 प्रतिशत उत्तरदाताओं का मानना है कि जनसंचार साधनों से आदिवासी संस्कृति परम्परा, रीति-रिवाज खत्म होता जा रहा हैं।
जनसंचार:
स्ंाचार का सामान्य अभिप्राय लोगो का आपस मे विचार, आचार, ज्ञान तथा भावनाओ का कुछ संकेतो द्वारा आदान-प्रदान है। संसार की मुख्य क्रिया है मानव व्यवहार पर असर डालना। इसलिए व्यवहार परिवर्तन की तह मे संचार निहीत है। संचार की परिभाषाऐ कई है, लेकिन व्यापक परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है- डेविड बार्ले के अनुसार “जनसंचार बिखरे हुए जनो को उन प्रतिको का पे्रषण है जो अवैयक्तिक साधनो से अज्ञात गंतव्य को भेजे जाते है। जनसंचार क्रांति ने समाचार रेडीयो टी.वी. इलेक्ट्रोनिक मीडीया फिल्म स्लाइड शो प्रोजेक्टर आदि साधनो द्वारा सदियो से वृहत समाज से पृथक रहे जनजातिय समाज का सम्पर्क अन्य संस्कृति के लोगो से कराया, वही इसकी अन्तः क्रियाओ के दायरे को भी बढाया। इनके बावजूद जनजातीय समाज मे जनसंचार क्रांति के कई दुषपरिणाम भी सामने आए है। रेडियो व टेलिविजन ने जनजातीय लोगो के सिनेमाई संस्कृति की और आकर्षित किया व इस समाज को उपभोक्तावादी बना दिया। सिनेमा, संस्कृति के प्रभाव से जनजातिय लोक संगीत व लोक नृत्य संक्रमण के दौर से गुजर रहा है जिससे जनजातीय लोगो का झुकाव आधुनिक फिल्मी संगीत व नृत्य की और हुआ है। आज कई जनजातीय लोकनृत्य व लोकगीत पतन के कगार पर है। वर्तमान मे आदिवासी क्षेत्रो झारखण्ड, छतीसगढ़, महाराष्ट्र, गुजरात, एवं राजस्थान मे आदिवासीयो के कई संगठन अपनी मुल भाषा एवं संस्कृति को बचाए रखने के लिए बडे-बडे कार्यक्रमो का आयोजन कर रहे है। जनसंचार साधनो द्वारा उनके कार्यक्रमो को प्रकाशित नही करने के कारण उनके द्वारा जय जौहार नाम की पत्रिका प्रकाशित की जा रही है। बहुत कम चैनलो पर आदिवासी समाज और उनके कुछ पहलुओ की अलग-झलग दिखाई देती है।
यह बडी अफसोस की बात है कि ये हमारे देश समाज के महत्वपुर्ण आदिम समाज है उनकी अपनी भाषा, संस्कृति, धर्म प्रकृति से जुडा हुआ है। जनसंचार माध्यम जो आदिवासी समाज के विकास मे सशक्त भूमिका निभा सकते है, लेकिन इसके लिए मीडिया को आदिवासी समाज पर सकारात्मक सोच के साथ कार्य करने की आवश्यकता है। जनसंचार माध्यमो द्वारा केन्द्र एवं राज्य सरकार की योजनाओ को आमजन तक पहुचाने का प्रयास तो किया जा रहा है, लेकिन जितना होना चाहीए नही हो रहा है उन्हे आदिवासी कस्बो की और नजर रखने की आवश्यकता है देश के 75 प्रतिशत लोग गाॅव एवं कस्बो मे निवास करते है। इसलिए मीडिया मे आदिवासी समाज के बदलते मन विचार अधिकार विकास योजनाओ और कार्यक्रमो की पुर्ण जानकारी स्वरोजगार के नये क्षेत्र, स्वास्थ्य शिक्षा आदिवासी के सामने चुनौतिया उनमें व्याप्त बुराईयो के बारे मे जागृति पैदा तो की है परन्तु उनके द्वारा प्रसार-प्रचार करने से जो बदलाव आना चाहीए वह नही आ पाया है। इसलिए संचार माध्यमो द्वारा आदिवासी क्षेत्र मे नगरो एवं महानगरो के समाज जैसे स्थान एवं भूमिका देना ही पडेगा।
सुझाव:
1. जनसंचार माध्यमोें से आदिवासी क्षेत्र में जागरुकता तो आई लेकिन आदिवासियों तक पूर्ण रूप से जनजागृति लाने हेतु संचार साधनों को उन तक पहुंचाने की और अधिक आश्यकता है।
2. जनजाति क्षेत्र में प्रत्येक ग्राम पंचायत स्तर पर एक सार्वजनिक पुस्तकालय खोला जाए एवं केन्द्र सरकार, राज्य सरकार की विभिन्न योजनाओं की जानकारी सुनिश्चित करने हेतु पुस्तकें, समाचार, पत्र-पत्रिकाऐं उपलब्ध कराई जाएं।
3. ग्रामीण क्षेत्र में बिजली कनेक्शन, प्रत्येक परिवार तक किया जाए, ताकि वे रेडियो, टेलीविजन के माध्यम से कृषि शिक्षा, राजनीतिक व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक व्यवस्था को समझ पाये।
4. जनजाति क्षेत्र में उच्च शिक्षा प्राप्त बेरोजगार के लिए सरकारी नौकरी हेतु मीडिया को आवाज उठाने की आवश्यकता है।
सन्दर्भ सूची:
1. उदय सिंह राजपूत (2010) आदिवासी विकास एवं गैर-सरकारी संगठन रावत पब्लिकेशन, जयपुर, नई दिल्ली, बेंगलोर, हैदराबा, गुवाहटी, पृष्ठ स.-3
2. गोपाल त्रिपाठी (1973) भारत की जनजातियो का एकीकरण वन्यजाति वर्ष 21, ंअंक। पृष्ठ स. 8-13
3. राकेश भट्ट (1995) जनजातीय उद्यमिता का विकास हिमांशु पब्लिकेशन जयपुर पृष्ठ स. 8-13
4. जनजातीय क्षेत्रीय विकास विभाग, उदयपुर (राज.)
5. राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग, भारत सरकार नई दिल्ली।
6. हितेन्द्र सिंह राठौड़ (2010) जनसंचार साधन और ग्रामीण समुदाय हिमांशु पब्लिकेशन 464 हिरण मगरी सेक्टर-11 उदयपुर। पृष्ठ स.-3
Received on 11.12.2017 Modified on 19.12.2017
Accepted on 28.12.2017 © A&V Publication all right reserved
Int. J. Rev. and Res. Social Sci. 2017; 5(4): 203-206 .