भारत में जनजातियाँ:- छत्तीसगढ़ के विषेष संदर्भ में
डाॅ. (श्रीमति) बी. एन. मेश्राम
(प्राचार्य) प्राध्यापक, राजनीति शास्त्र, शासकीय डाॅ. बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर
स्नातकोत्तर महाविद्यालय डोंगरगांव, जिला - राजनांदगांव (छ.ग.)
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शोध सारांश:
जनजाति मानव समाज के एक ऐसे अंग के सदस्य हैं, जो कि मानव संस्कृति के प्रायः आदि अवस्था में रहते हैं और इस कारण वे अत्यधिक पिछड़े हुए होते है। अगर इनकी तुलना सभ्य समाज से की जाये तो यह लोग बहुत पिछड़े हुए हैं। ये आदिकालीन धर्म, प्रथा और परम्परा को मानते हुए अपनी आदिकालीन आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत निवास करते हैं। इन्हें अनेक नामों से पुकारा जाता है - कोई इन्हें आदिवासी कहता है, तो इन्हें आदिमजाति और कोई जनजाति के नाम से इन्हें जानते हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद - 342 में इन्हें अनुसूचित जनजातियों के नाम से प्रस्तावित किया गया है। सन् 1991 के जनगणना के अनुसार भारत में आदिवासियों की संख्या 6.758 करोड़ थी। यह इंग्लैण्ड के जनसंख्या के बराबर ही थी। जनजातियों की संख्या देश के कुल आबादी की 8.08 प्रतिशत थी। जनजातियों की संख्या आफ्रीका के बाद भारत में द्वितीय स्थान पर है। भारत में ये जनजातियाँ समूचे क्षेत्र में फैली है। अलग - अलग राज्यों में इनकी संख्या अलग - अलग है। यह 100 से लेकर लाखों में है और इनकी संख्या सबसे अधिक मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में मानी जाती है।
ज्ञम्ल्ॅव्त्क्ैरू जनजाति, आदिवासी, सांस्कृति
प्रस्तावनाः-
भारत में अनुसूचित जनजातियाँ 532 है। जिनमें अबूझमाड, गोंड़, भील, बैगा, हल्बा, मुडिया, भतरा, कमार, पहाड कोरबा, बिरहोर, खरिया, अमनी, मीना, मुण्डा, नगसिया, मनिका, बटेलिया, परसा, सौर, विराट, मीर आदि प्रमुख है।
ये जनजातियाँ सरगुजा, बिलासपुर, बस्तर, अम्बिकापुर, भानुप्रतापपुर, दन्तेवाड़ा, जगदलपुर, कांकेर, कोण्डागाँव, नारायणपुर, अबूझमाड आदि क्षेत्रों में पाये जाते है। इनका जीवन सादा होता है, इनके सामाजिक जीवन में कुछ अलग परम्परायें देखने को मिलते हैं। आदिवासियों के मन में अपनी मातृभूमि को विदेशी सत्ता से मुक्त कराने की भावना परतंत्रता के प्रारंभिक काल से ही उछाल मारती रही किन्तु आदिवासी समुदाय की विप्लवगाथा प्रायः अनाम शहीदों की गाथा है। इसका एक कारण यह है कि आदिवासियों के पास शस्त्र तो थे, लेकिन शास्त्र नहीं थे। इसमें शक नहीं कि अंग्रेजों के खिलाफ आदिवासियों की लड़ाई सशस्त्र संघर्ष की गाथा है।
छत्तीसगढ़ में जो जनजातियाँ पाई जाती हैं वे गोंड़, बैगा, कमार, मुडिया, पहाडी कोरबा, भतरा, माडिया, भुंजिया, पारथी, खरिया, गड़वा आदि। इन जनजातियों की अपने सस्कृति होती है, अपने रीति-रिवाज होते हैं जिसका पालन उनके द्वारा पूरी ईमानदारी से किया जाता है। इनका जीवन सीधा - सादा होता है। इनका रहन-सहन अपने तरीके का होता है। ये अपनी जीविका को चलाने के लिए जिस प्रकार के कार्य करते हैं इनकी परम्परायें निम्न प्रकार की है -
(1) वैवाहिक प्रणाली
(2) युवा गृह
(3) धार्मिक स्थिति
(4) सांस्कृतिक विशेषताऐं
(5) मुर्तिकला, चित्रकला, संगीत व नृत्यकला
(6) खान-पान आदि।
जीविका के स्रोत:-
विभिन्न जनजातियाँ अपनी जीविका को चलाने के लिए कृषि, पशुपालन, आखेट और वनोपज संचय आदि के माध्यमों से अपनी आजीविका चलाते है। धनुष-वाण के द्वारा पशु-पक्षियों का शिकार करना, मछली पकड़ना आदि कार्य करते हैं। संचयन की प्रवृत्ति इनमें अधिक देखी जाती है। जंगली पदार्थो में तेन्दू, आचार, महुआ, चिरौंजी, शहद, गांेद, कुकुरमुत्ता, आदि संग्रहित कर अपना परिवार चलाते हैं और अब ये श्रम भी करने लगे हैं। यह हस्तशिल्पी भी होते है।
वैवाहिक प्रणाली:-
जनजातियों में विवाह प्रथा का विशेष महत्व है। इनके विवाह के अनेक तरीके होते हैं - कहीं अपहरण विवाह या राक्षस विवाह का प्रचलन है, लेकिन अधिकाँश विवाह क्रय - विवाह होते है। इनमें कन्या का मूल्य देकर विवाह सम्पन्न होता हैं जो निर्धन होते हैं, मूल्य नहीं दे पाते है वे कन्या के जाकर नौकर के रूप में कार्य करते हैं। अपहरण विवाह में युवक जिस युवती से प्रेम करता है उसे लेकर भाग जाता है और पत्नी स्वीकार करता है। बाद में समाज के द्वारा उसे स्वीकार कर लिया जाता है।
युवा गृह:-
यह एक ऐसी सामाजिक संस्था है जो जनजाति समाजों के अतिरिक्त कहीं नही पाई जाती। जनजातियों में अविवाहित युवक - युवतियों के लिए पृथक - पृथक या मिश्रित निवास स्थान होते हैं। जिन्हें युवा गृह कहते हैं। ये भिन्न जातियों में भिन्न - भिन्न नाम से पुकारे जाते हैं, जैसे - किशोर गृह, शयनागार और कुमार गृह आदि। ये युवा गृह उराव, गोंड़, मड़िया आदि जनजातियों में पाया जाता है।
बस्तर में घोटुल युवागृह के नाम से जाना जाता है। यह एक मकान होता है, जो गाँव से बाहर होता है। इसमें 15-16 वर्ष तक युवक - युवतियाँ रात्रि में इकट्ठा होते हैं और पूरी रात्रि यहीं रहते हैं। घोटुल में युवकों को चेनिक व युवतियों को मुनियारी कहा जाता है। युवक-युवतियाँ शाम को घर के कार्य से निवृत्त होकर श्रृंगार करके यहँा पहुँचते हैं फिर छोटे - छोटे समूह में विभन्न होकर समूह गान व नृत्य करते हैं। इनके विविध कार्यक्रम देर रात्रि तक चलते रहते हैं। वे वहीं सोते है और प्रातः अपने - अपने घरों को चले जाते है। ये युवा गृह जनजातीय सामाजिक संगठन की प्रमुख इकाई है। ये आमोद - प्रमोद के साथ ही सामाजिक जीवन की शिक्षा ग्रहण करते हैं। यौन ज्ञान के साथ इन्हें यहाँ अनुशासन के लिए शिक्षा मिलती है।
धार्मिक स्थिति:-
धर्म के प्रति आस्था किसी भी समाज में मुख्य रूप से दिखाई देता है। धर्म किसी भी समाज की महत्वपूर्ण संस्था है। ये जनजातियाँ मानावाद, प्रकृतिवाद, टोटकवाद, आत्मा की अमरता में विश्वास रखते है।
मानावाद:-
अलौकिक तथा अप्राकृतिक शक्ति में विश्वास करते हैं जो मनुष्य से परे हैं।
प्रकृतिवाद:-
इसे मानने वाले प्राकृतिक वस्तुओं की पूजा - उपासना करते हैं।
टोटकवाद:-
टोटक प्रथाओं तथा विश्वासों पर वंश की उत्पत्ति के संबंध में कल्पनाएँ स्वीकारते हैं।
कुछ जनजातियाँ आत्मा की अमरता को स्वीकारती है, कुछ जनजातियाँ जादू - टोना को संस्कार के रूप में ग्रहण कर मानव इच्छा को संतुष्ट करती है।
सांस्कृति विषिष्टता:-
सांस्कृतिक दृष्टि से जनजाति समुदाय में थोड़ा परिवर्तन देखा गया
है:-
1. प्रथम स्तर में वे जनजातियाँ है जो आज भी आदिम अवस्था में है। जो धमे जंगलों में रहते हैं और खेती तथा शिकार करते हैं। मड़िया इस श्रेणी में आते हैं। ये सभ्य समाज से दूर रहकर अपनी सुरक्षा का अनुभव करती हैं।
2. दूसरे स्तर पर अर्द्ध जनजातीय समुदाय आते हैं जो जंगलों मंे रहते हैं। जो खेती करते हैं और सभ्य समाज से भयभीत नहीं होते। इसमें अमीर-गरीब होते हैं। भील जनजाति अन्य जनजातियों से अपना संबंध जोड़ते हंै। ये अपने को प्रशासक वर्ग का मानते हैं और कुछ जनजातियाँ आधुनिक सभ्यता के संपर्क में पूरी तरह आ चुकी हैं। जिनकी परम्पराएँ, प्रथाएँ, कलाएँ, विश्वास तथा सामाजिक संगठन के स्वरूप भी बदल चुके है।
साहित्यिक स्थिति:-
जनजातियों का साहित्य मौखिक ढंग से चलता है। अशिक्षा के प्रभाव में होने के कारण ये जनजातियाँ अपने मौखिक साहित्य को लिपिबद्ध नहीं कर पाते हैं। आधुनिक सभ्यता के संसर्ग में आने के बावजूद भी अपने साहित्य को संग्रहित नहीं किया लेकिन इनके साहित्य के विभिन्न रूप दिखाई देते हैं। जैसें:- पौराणिक कथाएँ, देवी-देवता व प्राकृतिक घटनाओं से संबद्ध है। अनेक जनजातियाँ कल्पित तथा दन्त कथाओं को नाटक के रूप में भी प्रस्तुत करती हैं। परन्तु ये आधुनिक नाटक से भिन्न होते हैं।
मूर्ति एवं चित्रकला:-
जनजातियों में मूर्ति एवं चित्रकला के प्रति आकर्षक देखने को मिलता हैं। ये लोग पत्थर, लकड़ी व मिट्टी की मूर्तियाँ बनाते हैं। हाथी, घोड़ा, मानव की मूर्ति बनाकर देवताओं को अर्पित करते हैं। इनके द्वारा निर्मित मूर्तियाँ इनके जीविका के स्रोत भी है।
संगीत एवं नृत्यकला:-
जनजाति समाज में संगीत का विशेष महत्व है। ये धार्मिक एवं सामाजिक अवसरों पर नगाड़े, ढोल, बंशी आदि बजाते हैं। संगीत कला को जीवित रखने के उद्देश्य से ये जनजातियाँ इन्हें महत्वपूर्ण मानती हैं। विवाह नृत्य, सभी जनजातियों में विवाह के अवसर पर प्रस्तुत किया जाता है।
वर्तमान शैक्षणिक व सामाजिक स्थिति:-
वर्तमाना समय में अनेक जनजातियों में शैक्षणिक विकास तेजी से हो रहा है। आधुनिक समाज के संसर्ग मंे आकर गोंड़, उराव, मुड़िया, हल्बा आदि का शैक्षणिक स्तर उन्नति कर रहा है। लेकिन इन्हें व्यापक पैमाने पर विकसित करने की आवश्यकता है। जिससे वे अशिक्षा के अंधकार से मुक्ति पा सकें। कुछ जनजाति जिनमें अबूझमड़िया पहाड़ी कोरबा, बैगा, शहरिया आदि है इनके विकास के लिए विशेष सामाजिक संगठनों का निर्माण कर इन्हें लाभ पहुँचाने का प्रयास किया जा रहा है। सरकार के द्वारा इनके कल्याण के लिए अनेक योजनाएँ बनाये जाने चाहिए। जिसका लाभ प्राप्त कर ये जनजातियाँ अपना विकास कर सकेंगे। जिससे वे अपनी सांस्कृति धरोहर को समेटे हुए उन्नति की ओर आगे बढ़ सकेंगे।
समस्याएँः-
आदिवासियों की कुछ समस्याएँ हैं:-
1. इनके पास छोटे व अनार्थिक जमीन के टुकडे होते हैं। जिसके कारण उपज कम होती है। ये बुरी तरह ऋण ग्रस्त होते हैं।
2. जनजातियों में सारक्षरता दर बहुत कम है।
3. जनजातीय क्षेत्रों में भूमि का एक अच्छा अनुपात कानूनी रूप से गैर जनजातीय लोगों को स्थानांतरित कर दिया गया है। ये लोग इस भूमि को लौटाने की माँग करते हैं।
4. सरकारी जनजातीय कार्यक्रमों ने जनजातीय लोगों की आर्थिक स्थिति को उठाने में अधिक मदद नहीं की।
5. जनजातीय लोगों में बैंकिंग सुविधाएँ इतनी कम है कि इन्हें महाजनों पर निर्भर रहना पड़ता है।
6. लगभग 50 प्रतिशत जनजातीय लोग कृषि में लगे हैं, जिनमें अधिकतर भूमिहीन है।
7. जनजातीय लोगों का इसाई मिशनरियों द्वारा भी शोषण किया जाता है।
अनुसूचित जनजातियों के लिए संविधन में कुछ संवैधानिक व्यवस्थाएँ की गई है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद स्वाधीन भारत में इनके हितों की रक्षा के लिए व्यवस्था की गई है। संविधान के बारहवें भाग के 275 अनुच्छेद के अनुसार केन्द्र सरकार, राज्यों को जनजातीय कल्याण एवं उनके उचित प्रशासन के लिए विशेष धनराशि देगी। इनकी उन्नति व विकास के लिए विभिन्न नियम बनाकर इन्हें लाभ दिया जायेगा और ये लाभ सहीं रूप में दिये जाये केवल कागजों तक सीमित न रहे।
हमारी मान्यता है कि जब तक आदिवासी स्वयं ही अपनी भीतर से आदिवासी होने की भावना और सीमाओं का त्याग नहीं करते, जब तक वे अहं व आत्मविश्वास विकसित नहीं करते तब तक सरकारी नीतियाँ उनके लिए कारगर नहीं होगी। आदिवासी स्वयं को भारतीय समाज में अपनी
संस्कृति से बंधे रहकर नहीं बल्कि नए अवसरों को खोज कर ऊपर उठ सकते हैं।
संदर्भः-
1. जनजातिय समाज का समाजषास्त्र - प्रो.पुखराज जैन
2. जनजातिय समाज - डाॅ.डी.एस.बघेल
3. भारत में जनजातिय विकास - डाॅ.विभा सिंह
Received on 04.08.2018 Modified on 21.08.2018
Accepted on 25.09.2018 © A&V Publications All right reserved
Int. J. Rev. and Res. Social Sci. 2018; 6(4): 521-524.