छत्तीसगढ़ का भगौलिक, राजनीतिक एवं सास्कृतिक परिचय
डाॅ जया गुप्ता
अतिथि व्याख्याता, राजनीति विज्ञान, शा.जे.यो.स्व.महाविद्यालय रायपुर (छ.ग.)
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छत्तीसगढ़ के भौगोलिक विस्तार में अनेक असमानताएँ विद्यमान हैं। इसके उत्तरी भाग मे कोरिया, सरगुजा तथा जषपुरनगर जिलों में पर्वतमालाओं एवं पठार का विस्तार है। मैकल पर्वत श्रेणी कवर्धा जिले में दक्षिण-पूर्व तक विस्तृत है। पूर्वी भारत में सक्ती पर्वत लगभग महानदी कछार तक फैला है। रायगढ़ जिला छोटा नागपुर पठार का पष्चिमी छोर है। रायपुर जिला महानदी के ऊपरी कछार और पूर्वी सीमा पर पहाड़ी मैदान में विभक्त है। दुर्ग और राजनांदगाँव छत्तीसगढ़ मैदान और मैकल श्रेणी में विभक्त हैं। बस्तर का अधिकांष भाग पठारी एवं पहाड़ी है, जिसकी समुद्र तल से औसत ऊँचाई 600मीटर है।
भौगोलिक परिचय:-
स्थिति एवं विस्तार:- छत्तीसगढ़ राज्य मध्यप्रदेष के दक्षिण-पूर्व में 17046’ उत्तर अक्षांष से 2406’ उत्तरी अक्षांष तथा 80015’ पूर्वी देषान्तर से 84051- पूर्वी देषान्तर रेखाओं के मध्य स्थित है। इसका कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 1,35,194 वर्ग किलोमीटर है। इसकी उत्तर- दक्षिण में लम्बाई 640कि.मी. तथा पूर्व पष्चिम चैड़ाई 336कि.मी है। इस राज्य के उत्तर में
उत्तर प्रदेष, उत्तरी-पूर्वी सीमा में झारखंड, दक्षिण-पूर्व में उड़ीसा राज्य स्थित है। दक्षिण में मध्यप्रदेष स्थित है। इस राज्य में तीन संभागों के 18 जिले सम्मिलित हैं। इनमें बिलासपुर, कोरबा, जांजगीर-चांपा, जषपुरनगर, रायगढ़, कोरिया (बैकुण्ठपुर), पूर्व सरगुजा (अम्बिकापुर), रायपुर, महासमुंद, धमतरी, दुर्ग कवर्धा, राजनांदगांव, जगदलपुर (बस्तर), कांकेर तथा दंतेवाड़ा सम्मिलित हैं (दो नवीन जिले नारायणपुर एवं बीजापुर)। यह भारत के क्षेत्रफल का 4.11 प्रतिषत है। क्षेत्रफल की दृष्टि से छत्तीसगढ़ का क्षेत्रफल 16 राज्यों से अधिक है। यह अनेक छोटे-छोटे राज्यों से बड़ा है। छत्तीसगढ़ का क्षेत्रफल पंजाब, हरियाणा एवं केरल इन तीनों राज्यों के योग से अधिक है। इसके अलावा छत्तीसगढ़ का विषालतम संभाग बस्तर (39,114 वर्ग कि.मी.) का विस्तार केरल के क्षेत्रफल से बड़ा है।
छत्तीसगढ़ के भौगोलिक विस्तार में अनेक असमानताएँ विद्यमान हैं। इसके उत्तरी भाग मे कोरिया, सरगुजा तथा जषपुरनगर जिलों में पर्वतमालाओं एवं पठार का विस्तार है। मैकल पर्वत श्रेणी कवर्धा जिले में दक्षिण-पूर्व तक विस्तृत है। पूर्वी भारत में सक्ती पर्वत लगभग महानदी कछार तक फैला है। रायगढ़ जिला छोटा नागपुर पठार का पष्चिमी छोर है। रायपुर जिला महानदी के ऊपरी कछार और पूर्वी सीमा पर पहाड़ी मैदान में विभक्त है। दुर्ग और राजनांदगाँव छत्तीसगढ़ मैदान और मैकल श्रेणी में विभक्त हैं। बस्तर का अधिकांष भाग पठारी एवं पहाड़ी है, जिसकी समुद्र तल से औसत ऊँचाई 600मीटर है।
छत्तीसगढ़ प्रदेष की भू-वैज्ञानिक सँरचना में विभिन्न युगों की शैलें मिलती हैं। यहाँ आर्कियन से लेकर आधुनिक युग तक की शैलें विद्यमान है। प्रदेष की भूगार्भिक संरचना में आर्कियन्स, धारवाड़, कड़प्पा, गोंडवाना एवं दक्कन का पठार मुख्य हैं। इसके अतिरिक्त प्रदेष के निर्माण में रायोलाइट, फेलासाइट, लेटेराइट, पुट्टी एल्यूमिनियम एवं लमेटा बेड्स का भी प्रभाव है। इन षैलों का कृषि में विषेष महत्व है। कड़प्पा षैल समूह के विस्तृत भाग में नदियों द्वारा निक्षेपित उपजाऊ कछारी मिट्टी पायी जाती है, जो धान की कृषि के लिए सर्वोत्तम है। यही कारण है कि यहां पर धान की खेती अधिक होती है। छत्तीसगढ़ में धान उत्पादन को देखते हुए इस प्रदेष को ‘‘धान का कटोरा’’ भी कहा जाता है। दकन ट्रेप की चट्टानों के टूटने से काली मिट्टी निर्मित हुई, जो रबी फसलों के लिए उपयुक्त है। धारवाड़ क्रम की चट्टानों से हल्की तथा रेतीली मृदा मिलती है जिसमें केवल मोटे अनाज उगाए जा सकते हैं।
छत्तीसगढ़ जलवायु:-
किसी स्थान के अनेक वर्षों के मौसम के मध्यमान को जलवायु कहते हैं, अर्थात् जलवायु किसी स्थान या प्रदेष के तापमान, आर्द्रता एवं वर्षा आदि की मध्यमान अवस्था होती है, जबकि मौसम किसी समय पर किसी स्थान के वायुदाब, तापमान, वायुमण्डल, हवा की गति, धूप, बादल, वर्षा आदि की अवस्था को कहते हैं। किसी स्थान विषेष की जलवायु को निम्न बातें प्रभावित करती हैं-विषुवत रेखा से दूरी, समुद्र तल से ऊँचाई, समुद्र से दूरी, हवाएँ, महासागरीय जल धाराएँ, पर्वत श्रेणियों की दिषा, भूमि का ढाल, वनस्पति का होना या न होना एवं मिट्टी की बनावट आदि। किसी प्रदेष की भौगोलिक स्थिति विषाल क्षेत्रफल, विषम भू-रचना एवं स्थल तथा जल खण्डों के वितरण से वहाँ की जलवायु का निर्धारण होता है। जलवायु का न केवल जनसंख्या वितरण अपितु मिट्टी, वनस्पति, कृषि, ऊर्जा एवं जल स्रोतों के उपयोग पर भी प्रभाव पड़ता है।
ऽ छत्तीसगढ़ मध्य भारत में स्थित है इस कारण यहाँ की जलवायु में मानसूनी जलवायु की सभी विषेषतायें पाई जाती है।
ऽ मानसून की दृष्टि से छत्तीसगढ़ शुष्क, आर्द्र मानसूनी जलवायु के अन्तर्गत आता है।
ऽ कर्क रेखा प्रदेष के उत्तरी भाग अर्थात सरगुजा, कोरिया जिले से होकर गुजरती है।
ऋतुएँ:- प्रदेष की मौसमी परिवर्तनों के आधार पर प्रमुखतः तीन ऋतुओं में विभाजित किया जा सकता है -
1) ग्रीष्म ऋतु, 2) वर्षा ऋतु, 3) षीत ऋतु
ग्रीष्म ऋतु-छत्तीसगढ़ प्रदेष में ग्रीष्म ऋतु की अवधि मध्य मार्च से मध्य जून तक रहती है। 21 मार्च के बाद सूर्य के उत्तरायण हो जाने के कारण उत्तरोत्तर गर्मी बढ़ जाती है। अप्रैल एवं मई माह में पूर्णतः ग्रीष्म ऋतु की दषाएं दिखाई देने लगती है। इस ऋतु की मौसम संबंधी दषाएँ निम्नानुसार है -
(अ) तापमान-इस ऋतु में सूर्य के उत्तरायण होने से तापमान षीघ्र बढ़ता है और जून में मैदानी क्षेत्र में यह सबसे अधिक हो जाता है। मार्च से तापमान में क्रमषः वृद्धि होती जाती है तथा मई में तापमान 420 से 450 से.ग्रे.तक पहुंच जाता है। जून का तापमान कभी-कभी 370 से.गे्र. तक पहुँच जाता है। रात्रि का न्यूनतम तापमान भी पर्याप्त ऊँचा रहता है।
खनिज सम्पदा:- ‘‘खनिज प्राकृतिक, रासायनिक यौगिक होते हैं जो प्रायः अजैव प्रक्रियाओं से बनते हैं एवं पृथ्वी के धरातल एवं उसके गर्भ को खोदकर निकाले जाते हैं।’’ खनिज का एक निष्चित रासायनिक संगठन एवं विषिष्ट परामाण्वीय संरचना होती है। खनिजों को जिस स्थान से निकाला जाता है, उस स्थान को खान कहते हैं। खनिज पदार्थ विभिन्न कच्ची धातुओं के साथ मिलते हैं, जिन्हें अयस्क कहते है।
ऽ प्राकृतिक संसाधनों में खनिज सम्पदा का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। भौतिकवादी सभ्यता की आधारषिला खनिज ही है। किसी प्रदेष की समृद्धि में उसके पास उपलब्ध खनिज संसाधनों का अत्याधिक महत्व है। आर्थिक क्षेत्र में खनिज संसाधनों के महत्व की कोई सीमा नहीं है। खनन न केवल विषाल जनसमूह को रोजगार प्रदान करता है, बल्कि राष्ट्रीय आय में भी खनिज संसाधनों का महत्वपूर्ण स्थान है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि किसी राज्य या राष्ट्र की समृद्धि बहुत कुछ उसके खनिज संसाधनों की विद्यमानता, तत्संबंधी ज्ञान एवं सदुपयोग पर निर्भर करती है।
ऽ खनिज पदार्थों की महत्ता को इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है- 1. औद्योगिक विकास का आधार 2. कृषि विकास में सहायता 3. ऊर्जा का प्रमुख स्रोत 4. वृहद् जनसमूह को रोजगार प्रदान करने वाला, 5. राष्ट्रीय आय का प्रमुख साधन 6. विदेषी मुद्रा प्राप्ति का प्रमुख साधन एवं 7. परिवहन एवं संचार साधनों के विकास में सहायक है।
ऽ छत्तीसगढ़ वन-सम्पदा की भाँति खनिज सम्पदा की दृष्टि से भी सम्पन्न क्षेत्र है। खनिज पदार्थों की अधिकता के कारण छत्तीसगढ़ खनिज बाहुल्यता क्षेत्र माना जाता है। इस क्षेत्र में मूल्यवान औद्योगिक एसं सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण खनिज आधारित उद्योगों की स्थापना का श्रेय यहां उपलब्ध खनिजों का है। राज्य में उच्च कोटि के खनिजों के कारण ही भिलाई, कोरबा और बैलाडिला क्षेत्र विकसित हुए हैं।
ऽ खनिज उपलब्धता की दृष्टि से छत्तीसगढ़ का देष में द्वितीय स्थान है। राज्य में लगभग 20 प्रकार के खनिज पाये जाते हैं। इन खनिजों में कोयला, चूना-पत्थर, लौह-अयस्क, डोलोमाइट, बाक्साइट, क्वार्ट्जाइट द्वारा प्रदेष के खनिज उत्पादन मूल्य में 97.91 प्रतिषत का योगदान दिया जा रहा है। इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र में कोरण्डम, फायर क्ले, केओलिन, गेरू तथा मोल्डिंग एवं स्टोइंग का भी उत्पादन अल्प मात्रा में हो रहा है। टिन का शत-प्रतिषत उत्पादन बस्तर जिले में किया जा रहा है। स्वर्ण एवं ताम्र अयस्क के खनिजीकरण की पर्याप्त संभावनाएँ हैं। अन्य खनिज जैसे क्लोराइट, संगमरमर, सोप-स्टोन, बोरिल आदि के भी संकेत पाये गये हैं। उत्खनन से भी खनिज भंडार मिल रहे हैं जो इस क्षेत्र को सम्पन्न करने में सहायक सिद्ध हो रहे हैं।
छत्तीसगढ़ में वनों का वितरण:-
छत्तीसगढ़़ राज्य वन सम्पदा की दृष्टि से सम्पन्न राज्य है। राज्य के 59285.26 वर्ग कि.मी. अथवा कुल क्षेत्र की 44 प्रतिषत भूमि वनों से ढँकी है जो भारत के राज्यों में अधिक की श्रेणी में है। यद्यपि पिछले वर्षों में वनों के अंतर्गत भूमि कम हुई है। वर्तमान में प्राकृतिक वनस्पति राज्य की महत्वपूर्ण प्राकृतिक सम्पदा है। प्राकृतिक वनस्पति के वितरण में यहां की मानसूनी जलवायु महत्वपूर्ण कारक है। तापमान एवं वर्षा भी वनों के विकास में सहायक है। प्रदेष के वनों को उष्ण आर्द्र और उष्ण पर्णपाती प्रकार में विभक्त किया जाता है। छत्तीसगढ़ में वनों की बहुलता और उपलब्धता को देखते हुए छः वनवृत्त कार्यरत हैं, जिनका वन संरक्षण एवं युक्तिसंगत वन विदोहन में महत्वपूर्ण स्थान हैं।
1. इन्द्रावती राष्ट्रीय उद्यान-यह दंतेवाड़ा जिले में है। इसका क्षेत्रफल 1258 वर्ग कि.मी. है। सन् 1983 में यहाँ भारत षासन की बाघ परियोजना (प्रोजेक्ट टाइगर) लागू की गई है। यहाँ मुख्य रूप से बाघ, चीतल, तेंदुआ, नीलगाय, चैसिंघा, साम्भर, सुअर, बंदर, जंगली भैंसा, मोर आदि वन्य प्राणी मिलते हैं। इन्द्रावती राष्ट्रीय उद्यान जगदलपुर से 170 कि.मी. दूरी पर स्थित है। जगदलपुर से बीजापुर होकर इन्द्रावती राष्ट्रीय उद्यान पहुचा जा सकता है।
2. अचानकमार-यह बिलासपुर जिले के मुख्यालय बिलासपुर से लगभग 57 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। साल एवं सागौन के वृक्षों से आच्छादित है। वन्य प्राणी के अवलोकन का सुंदर स्थल है।
3. उदयन्ती-रायपुर जिले की अंतिम सीमा एवं उड़ीसा प्रदेष की सीमाओं के मध्य स्थित 248 वर्ग कि.मी. में फैला है। उदन्ती अभ्यारण्य रायपुर से राजिम होते हुए लगभग 170 कि.मी. है। अन्य प्रमुख वन्य प्राणियों के अतिरिक्त जंगली भैंसा (बायसन) प्रमुख आकर्षण है।
4. सीतानदी-रायपुर जिले के दक्षिण में धमतरी से 90 कि.मी. तथा रायपुर से लगभग 176 कि.मी. दूरी पर स्थित है। इसका क्षेत्रफल 553.4 वर्ग कि.मी. है। वर्षाकाल में उपयक्त सड़कों के अभाव के कारण प्रवेष पाना संभव नहीं है।
5. बारनवापारा-रायपुर जिले में सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण अभ्यारण्य बारनवापारा है। रायपुर में इसकी दूरी पिथौरा होते हुए 125 कि.मी. दूर है। अभ्यारण का सम्पूर्ण क्षेत्रफल 244.6 कि.मी. है। यह क्षेत्र सागौन के वनों से आच्छादित है।
6. कुटरू राष्ट्रीय उद्यान-यह दंतेवाड़ा जिले में स्थित है। यह जंगली भैसों के लिए प्रसिद्ध है।
7. कांग्रेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान-यह जगदलपुर जिले में 200 वर्ग कि.मी. क्षेत्र में विस्तृत है। मुख्य वन्य जीव शेर, चीतल, तेंदुआ, सांभर एवं गाने वाली चिड़िया है।
कृषि तथा पषुधन:- छत्तीसगढ़ की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि पर आधारित है। प्रदेष की जनसंख्या का लगभग 80 प्रतिषत भाग कृषि पर आश्रित है। इस प्रदेष की 44 प्रतिषत भूमि ही कृषि योग्य भूमि है, शेष भूमि पर वन एवं पठार हैं। कृषि योग्य भूमि का मात्र 16 प्रतिषत क्षेत्र ही सिंचित है। 9 प्रतिषत भूमि बंजर हैं एवं षेष भूमि वर्षा पर निर्भर है। छत्तीसगढ़ में ज्यादातर क्षेत्रफल में धान बोया जाता है, इसीलिए इस क्षेत्र को ‘धान का कटोरा’ कहते हैं।
राज्य की प्रमुख फसलें:-
1. खाद्यान्न-छत्तीसगढ़ में चावल मूल कृषि क्षेत्र के लगभग 37 प्रतिषत भाग में बोया जाता है। इसके मुख्य उत्पादक जिले हैं-रायपुर, राजनांदगाँव तथा बिलासपुर। इसके अतिरिक्त गेहूं, मक्का, ज्वार तथा कोदो-कुटकी का भी उत्पादन किया जाता है।
2. दलहन-तिलहन में अरहर अथवा तुअर एक महत्वपूर्ण फसल है। इसके उत्पादन के प्रमुख जिले हैं-दुर्ग तथा राजनांदगाँव। इसके साथ ही चना, उड़द, आदि का भी उत्पादन किया जाता है।
3. तिलहन-राज्य में तिल तथा अलसी का मुख्य उत्पादन होता है। अलसी के मुख्य उत्पादक जिले हैं-बिलासपुर तथा रायपुर। यहां सरसों, मूंगफली, आदि भी उत्पादित की जाती है।
राजनीतिक परिचय:-
छत्तीसगढ़ 1 नवम्बर 2000 को अस्तित्व में आया। 1 नवम्बर 1956 से लेकर अस्तित्व में आने के पहले तक यह मध्य प्रदेष का हिस्सा था। 1 नवम्बर 1956 के पहले यह महाकौषल क्षेत्र में शामिल रहकर सी.पी. एण्ड बरार का हिस्सा था। वर्ष 1941 में छत्त्तीसगढ़ क्षेत्र में जनगणना बिहार के साथ तथा 1951 में पुराने मध्यप्रदष (सी.पी.एण्ड बरार) में हुई थी। पहले इसमें मात्र छः जिले बस्तर, रायपुर, दुर्ग, बिलासपुर, रायगढ़ तथा सरगुजा थे। दिनांक 05.01.1973 को दुर्ग जिले से अलग कर एक नया जिला राजनांदगांव बनाया गया। तत्पश्चात् मई 1998 में सरगुजा जिले से कोरिया, बिलासपुर से कोरबा और जांजगीर-चांपा, रायगढ़ से जशपुर, रायपुर से धमतरी और महासमुंद तथा बस्तर से कांकेर और दंतेवाड़ा नए जिले बनाए गए। जुलाई 1998 में राजनांदगांव जिले से एक और नया जिला कवर्धा बना और इसमें बिलासपुर जिले का भी कुछ भाग सम्मिलित किया गया। 1991 की जनगणना के समय छत्तीसगढ़ में कुल सात जिले थे, परंतु जनगणना 2001 में राज्य में कुल जिलों की संख्या 16 हो गई। राज्य का कुल क्षेत्रफल 135,191 वर्ग कि.मी. है। सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ को 3 संभागों में विभाजित किया गया है, ये संभाग हैं-बिलासपुर, रायपुर एवं बस्तर। इन तीन संभागों के अंतर्गत 16 जिले गठित किए गए हैं, ये जिले हैं-बस्तर, दन्तेवाड़ा, दुर्ग, धमतरी, जांजगीर-चांपा, कोरबा, जशपुर, कांकेर, कबीरधाम (कवर्धा), कोरिया, महासमुंद, रायगढ़, रायपुर, राजनांदगांव एवं सरगुजा। इन जिलों के अंतर्गत 98 तहसीलें 146 सामुदायिक विकासखण्ड 20,308 ग्राम तथा 98 शहरी केन्द्र स्थापित है।
शासन का अधिकृत प्रतीक चिन्ह:-
छत्तीसगढ़ शासन का अधिकृत प्रतीक चिन्ह समस्त षासकीय प्रयोजनों के लिए समस्त शासकीय अधिकारियों, कार्यालयों, छत्तीसगढ़ षासन के समस्त कार्यपालकों तथा लोक कार्यालयों द्वारा उपयोग में लाया जा रहा है। यह प्रतीक चिन्ह छत्तीसगढ़ राज्य की गौरव षाली विरासत, इसकी वर्तमान अपार सम्पदा तथा इसके उपयोग की अनन्त संभावनाओं का प्रतीकात्मक स्वरूप है। प्रतीक चिन्ह की वृत्ताकार परिधि, राज्य की तरक्की तथा विकास की असीम संभावनाओं तथा क्षमता का प्रतीक है, साथ ही यह निरंतर सर्तकता तथा राज्य की सदैव चैतन्यता का भी प्रतीक है। ऐसा माना जाता है कि छत्तीसगढ़ नाम, इस अंचल के 36 गढ़ों अथवा बसाहटों की प्रमुख विषेषता के कारण पड़ा। इन गढ़ों का उल्लेख अनेक बार किलों के रूप में भी हुआ है। परम्परागत रूप से किले सुरक्षा तथा सुदृढ़ता के प्रतीक होते हैं। इसलिए प्रतीक चिन्ह के बाहरी वृत्त में 36 किले अंकित हैं। इन किलों का हरा रंग छत्तीसगढ़ की समृद्ध तथा जीवंत वन सम्पदा एवं नैसर्गिक सुंदरता को प्रतिबिम्बित करता है। राज्य के निवासियों की समृद्धि, राज्य की कृषि की सफलता पर ही निर्भर करती है। इसलिए बाह्य हरे कवच के भीतर स्वर्णिम आभा बिखेरती धान की बालियाँ काफी खूबसूरती से चित्रित की गई हैं। धान छत्तीसगढ़ की मुख्य फसल है ऊर्जा क्षेत्र छत्तीसगढ़ की अर्थव्यवस्था में विकास का अग्रदूत है। इसलिए धान की बालियों के बीच दोनों ओर उर्जा क्षेत्र में हमारी समर्थता, सक्षमता तथा असीम सम्भावना का प्रतीक अंकित किया गया है। ऊर्जा का यह प्रतीक राज्य में नई अर्थव्यवस्था पर अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी के प्रभुत्व पर भी प्रकाष डालता है। राष्ट्रीय स्वाभिमान तथा गौरव के प्रतीक तिरंगा झण्डा के तीन रंगों की छटा, छत्तीसगढ़ की राष्ट्र के प्रति एकजुटता तथा एकात्मकता को प्रतिबिम्बित करती है। इन तीन धारियों को राज्य के समृद्ध जल संसाधनों का प्रतीक भी माना जा सकता है। प्रतीक चिन्ह के मध्य में देष के प्रतीक लालिमायुक्त सारनाथ के तीन सिंह तथा उसके नीचे अंकित सत्यमेव जयते हमारे राज्य की सत्यनिष्ठा के प्रतीक हैं।
छत्तीसगढ़:
आर्थिक परिदृष्य राज्यिय आय:- राज्यीय आय, अर्थात साधन लागत के आधार पर षुद्ध राज्य घरेलू उत्पाद, राज्य की भौगोलिक सीमा के अंतर्गत एक सांख्यिकी संगठन द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय आय घरेलू उत्पाद की श्रृंखला पुनरीक्षित कर नवीनतम वर्ष 1993-94 आधार वर्ष पर अनुमान जारी किए गए हैं। छत्तीसगढ़ राज्य के षुद्ध राज्य घरेलू उत्पाद एवं प्रति व्यक्ति आय के अनुमान विभिन्न क्षेत्रों की उपलब्ध एवं संगृहीत अभिलेखित जानकारी तथा उपयुक्त सूचकांक 1 संकेतक के आधार पर तैयार किए गए हैं। निम्न अनुच्छेदों में राज्य घरेलू उत्पाद के अनुमानों के आधार पर वर्ष 2001-02 में राज्यीय अर्थव्यवस्था का विष्लेषण प्रस्तुत किया गया है। स्थिर (1993-94) भावों के आधार पर छत्तीसगढ़ राज्य का षुद्ध राज्य घरेलू उत्पाद वर्ष 2000-01 में 13,593.51 करोड़ रूपए से बढ़कर वर्ष 2001-02 में 15,983.23 करोड़ रूपए अनुमानित है।
राजनीतिक परिचय:-
छत्तीसगढ़ 1 नवम्बर 2000 को अस्तित्व में आया। 1 नवम्बर 1956 से लेकर अस्तित्व में आने के पहले तक यह मध्यप्रदेष का हिस्सा था। 1 नवम्बर 1956 के पहले यह महाकौषल क्षेत्र में शामिल रहकर सी.पी. एण्ड बरार का हिस्सा था। वर्ष 1941 में छत्तीसगढ़ क्षेत्र में जनगणना बिहार के साथ तथा 1951 में पुराने मध्यप्रदेष (सी.पी.एण्ड बरार) में हुई थी। पहले इसमें मात्र छः जिले बस्तर, रायपुर, दुर्ग, बिलासपुर, रायगढ़ तथा सरगुजा थे। जनगणना 2001 में राज्य में कुल जिलों की संख्या 16 हो गई। राज्य का कुल क्षेत्रफल 135,191 वर्ग कि.मी. है। सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ को 3 संभागों में विभाजित किया गया है, ये संभाग हैं-बिलासपुर, रायपुर एवं बस्तर। इन तीन संभागों के अंतर्गत 16 जिले गठित किए गए हैं, ये जिले हैं-बस्तर, दन्तेवाड़ा, दुर्ग, धमतरी, जांजगीर-चांपा, कोरबा, जषपुर, कांकेर, कबीरधाम (कवर्धा), कोरिया, महासमुंद, रायगढ़, रायपुर, राजनांदगांव एवं सरगुजा। इन जिलों के अंतर्गत 98 तहसीलें 146 सामुदायिक विकासखण्ड 20,308 ग्राम तथा 98 शहरी केन्द्र स्थापित है।
1. राज्यपाल-राज्यपाल राज्य का सर्वोच्च अधिकारी होता है। राज्यपाल की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। राज्यपाल का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है, परन्तु राष्ट्रपति द्वारा इस अवधि से पहले ही इसे हटाया जा सकता है। राज्यपाल राज्य का प्रधान होता है। संविधान के प्रावधानानुसार राज्यपाल राज्य का राष्ट्रपति होता है। इसलिए राज्यपाल को राष्ट्रपति का अभिकर्ता या केन्द्रीय सरकार का प्रतिनिधि माना जाता है। श्री दिनेषनन्दन सहाय को छत्तीसगढ़ के प्रथम राज्यपाल होने का गौरव प्राप्त है।
2. व्यवस्थापिका-छत्तीसगढ़ में विधानसभा ही राज्य की व्यवस्थापिका है। इस समय छत्तीसगढ़ में 90 विधानसभा क्षेत्र है। विधानसभा का प्रमुख अधिकारी विधानसभा अध्यक्ष होता है।
3. मंत्रिपरिषद-राज्य की विधानसभा के सदस्यों में से निर्मित मंत्रिपरिषद राज्य की वास्तविक कार्य पालिका है।
मंत्रिपरिषद की संरचना इस प्रकार है-
मुख्यमंत्री मंत्रीपरिषद का मुखिया होता है। विधानसभा के बहुमत दल के नेता को राज्यपाल द्वारा मुख्यमंत्री चुना जाता है। इसका कार्यकाल 5 वर्ष का होता है।
अन्य मंत्रियों की नियुक्ति मुख्यमंत्री की सलाह पर राज्यपाल करता है। छत्तीसगढ़ की प्रथम विधानसभा का उदय 14 दिसम्बर, सन् 2000 को हुआ।
4. न्यायपालिका-इसके अन्तर्गत छत्तीसगढ़ में उच्च न्यायालय की स्थापना की गई। यह भारत का उन्नीसवाँ उच्च न्यायालय है। यह न्यायालय बिलासपुर में स्थित है।
ऽ छत्तीसगढ से राज्यसभा सीट - 5
ऽ छत्तीसगढ में लोकसभा सीट - 11
(अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित- 1)
(अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित - 4)
(अनारक्षित -6)
छत्तीसगढ में विधानसभा सीट - 90
(अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित - 10)
(अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित -29)
(अनारक्षित -51)
प्रतिनिधित्व न होने पर राज्यपाल एक विधायक एंग्लो इंडियन समुदाय से मनोनीत कर सकते है। इस स्थिाति में सदन की सदस्य संख्या 91 हो जाती है।
ऽ वर्तमान संभाग एवं उनसे संबद्व जिले निम्नानुसार है‘-
जिले:- राज्य निर्माण के समय छत्तीसगढ में 16 राजस्व जिले थे. 1 मई 2007 को नारायणपुर एवं बीजापुर जिलों के निर्माण से राजस्व जिलों की संख्या 18 हो गई।
1 जनवरी 2012 से 9 नए जिले अस्तित्व में आ गए जिससे जिलों की संख्या बढकर 27 हो गई है।
अनुविभाग:- राजस्व प्रषासन में जिले से छोटी प्रषासनिक इकाई अनुविभाग है. अनुविभाग का प्रमुख अनुविभागीय अधिकारी होता है. यह राज्य प्रषासनिक सेवा संवर्ग (डिप्टी कलेक्टर) का अधिकारी होता है।
तहसील:- जिला अनेक राजस्व तहसीलों में बटाँ है। तहसील का मुख्य राजस्व अधिकारी तहसीलदार होता है। राज्य में तहसीलों की संख्या 149 है.
विकासखण्डः-प्रदेष में विकासखंडो की संख्या 146 है इसमें से 85 आदिवासी विकासखण्ड है।
पुलिस प्रषासन:- परित्राणाय साधुनाम छत्तीसगढ पुलिस का आदर्ष वाक्य है। प्रदेष में शीर्ष पुलिस अधिकारी का पद पुलिस महानिदेषक (डी.जी.पी.) का है। पुलिस प्रषासन की दृष्टि से प्रदेष निम्न रेंजों में विभाजित है। हर रंेज के प्रमुख पुलिस महानिरीक्षक होते है।
पंचायतांे की संख्या
जिला पंचायतों की संख्या - 18 (2012 में बनें 9 जिला को छोडकर सभी में
जनपद पंचायतों की संख्या - 146 (प्रत्येक विकासखण्ड में )
ग्राम पंचायतों की संख्या - 9734 (एक या अधिक गाँवों को मिलाकर )
छत्तीसगढ़ राज्य के समाज कल्याण विभाग के द्वारा वरिष्ठ नागरिकों, निषक्त व्यक्तियों महिलाओं, बच्चों एवं वृध्दजनों को समाजिक सुरक्षा दी जा रही है। तथा समाज कल्याण विभाग अपनें दायित्वों के अनुरूप राज्य में वंचित एवं पीड़ित वर्ग के लिए कार्य कर रहा है। जिसके अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के योजनाएॅ संचालित की जा रही है।
1. सामाजिक सुरक्षा पेंषन योजना।
2. सुखद सहारा योजना।
3. इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वृध्दावस्था पेंषन योजना।
4. इंदिरा गांधी राष्ट्रीय विधवा पेंषन योजना।
5. इंदिरा गांधी राष्ट्रीय विकलांग पेंषन योजना।
6. राष्ट्रीय परिवार सहायता योजना।
7. किषोर बालकों के लिए समाज रक्षा योजना।
8. वरिष्ठ नागरिकों के लिए कार्यक्रम।
9. नषाबंदी कार्यक्रम।
10. निषक्त कल्याण योजना।
11. शरणार्थियों को संरक्षण एवं रोजगार प्रदान करना।
12. शरणार्थियों के लिए पी.एल.होम एवं राषन प्रदान करना।
13. जिला पुनर्वास केन्द्र की स्थापना।
14. जननी सुरक्षा योजना।
15. बाल संरक्षण एवं विकास योजना।
16. खाद्य सुरक्षा योजना।
17. कला पथक योजना।
आदि लोक कल्याणकारी योजनाएॅ संचालित है।
सांस्कृतिक परिचय :-
छत्तीसगढ़ के लोकगीत:-
सर्वप्रथम ष्यामचरण दुबे 1940 में तथा दानेष्वर वर्मा ने 1962 में लोक-गीतों का स्वतंत्र संग्रह क्रमषः छत्तीसगढ़ी लोक-गीतों का परिचय व छत्तीसगढ़ के लोग-गीत आदि प्रकाषित कर, छत्तीसगढ़ी लोक-गीत को एवं नयी दिषा दी इस संदर्भ में हेमंत नायडू का छत्तीसगढ़ी-लोकगीत संग्रह भी महत्वपूर्ण है।
छत्तीसगढ़ी लोकगीतों का वर्गीकरण:-
1. संस्कारों के गीत-सोहर गीत, बिहावगीत, पठौनी गीत।
2. ऋतुओं में संबंधित गीत-फाग गीत, बारहमासी गीत, सवनाही गीत।
3. उत्सव गीत - छेर-छेरा गीत, राउत नाचा के दोहे, सुआ गीत।
4. धर्म व पूजा गीत-गौरी गीत, माता सेवा गीत, जवांरा गीत, भोजली के गीत, धनकुल के गीत, नागपँचमी के गीत।
5. लोरिया व बच्चों के गीत-खेल गीत-बइठे फुगड़ी, खड़े फुगड़ी, खुडुवा, डांडी-पौहा।
6. मनोरंजन गीत-करमा गीत, डंडा गीत, नचैरी गीत, ददरिया, बाँस गीत, देवार गीत।
7. अन्य स्फुट गीत-भजन और पंथी लोकगीत तथा सतनामियों व कबीर पंथियों के पद।
प्रमुख छत्तीसगढ़ी लोकगीत- एक दृष्टि में:-
सुआ गीत - प्रमुखतः गोंड आदिवासी स्त्रियों का नृत्य गीत है।
सेवा गीत - छत्तीसगढ़ में चेचक को माता माना जाता है। इसकी शांति के लिये माता सेवा गीत गाया जाता है।
जवांरा गीत- छत्तीसगढ़ में दुर्गा माता की आरती,विभिन्न देवताओं की स्तुति आद का वर्णन होता है।
भोजली गीत- इसमें तांत का बना एक वाद्य बनाकर नारियों द्वारा गीत गाया जाता है।
करमा गीत- नृत्य आदिवासियों को अत्याधिक प्रिय है। करमा-गीतों का मुख्य स्वर श्रृंगार है।
बांस गीत - राउत-जाति का प्रमुख गीत है।
देवार गीत - प्रमुख गीत है-गुजरी, सीताराम नायक, यसमत, ओडनि व बीरम।
गौरा गीत - मां दुर्गा की स्तुति में गाये जाने वाले लोक-गीत हैं, जो नवरात्रि के समय गाया जाता है।
ददरिया गीत- ददरिया गीतों को छत्तीसगढ़ी लोक-गीत का राजा कहा जाता है। इन गीतों में सौन्दर्य व श्रृंगार की बहुलता होती है।
लेंजा गीत - बस्तर के आदिवासी बाहुल क्षेत्र का लोकगीत है।
रेला गीत - मुरिया जनजाति का प्रसिद्ध गीत है।
भड़ौनी गीत- विवाह के समय हंसी मजाक को मूल लक्ष्य बनाकर बनाया गया लोकगीत है।
नचैनी गीत- नारी की विरह-वेदना, संयोग-वियोग के रसों से भरपूर प्रसिद्ध लोकगीत है।
बैना गीत - छत्तीसगढ़ में तंत्र-साधना से संबंधित लोकगीत जो देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए गाया जाता है।
राउत गीत - छत्तीसगढ़ी यादव समाज में दस दिनों तक चलने वाला प्रसिद्ध नृत्य गीत है।
लोरिकचन्दौनी-छत्तीसगढ़ के ग्रामीण क्षेत्रों में, लोक-कथाओं पर आधारित यह लोकप्रिय गीत है।
नागमत गीत- नागदेव के गुण-गान व नाग-दंष से सुरक्षा की प्रार्थना में गाये जाने वाला लोकगीत है, जो नाग पंचमी के अवसर पर गाया जाता है।
डण्डा गीत- यह छत्तीसगढ़ का प्रसिद्ध नृत्य गीत है। यह प्रतिवर्ष पूर्णिमा से पूर्व गाया जाता है।
दहकी गीत- छत्तीसगढ़ में होली के अवसर पर अष्लीलतापूर्ण परिहास में गाया जाने वाला लोक-गीत है।
पंथी गीत- छत्तीसगढ़ में सतनाम-सम्प्रदाय के लोगों द्वारा अध्याय-महिमा से रचा-बसा प्रसिद्ध नृत्य गीत हैं।
छत्तीसगढ़ के लोक नृत्य:- छत्तीसगढ़ लोक नृत्यों की अनेक विविधताएं हैं। यहां का जनजातीय क्षेत्र हमेषा अपने लोक नृत्यों के लिए विष्व प्रसिद्ध रहा है। अनेक तरह के लोक नृत्य इस क्षेत्र में प्रचलित हैं। विभिन्न अवसरों, पर्वों से संबंधित भिन्न-भिन्न नृत्य प्रचलित है, जिनमें स्त्री-पुरूष समान रूप से भाग लेते हैं। छत्तीसगढ़ के प्रमुख नृत्यों का वर्णन इस प्रकार हैं-
पंथी नृत्य- यह छत्तीसगढ़ का प्रसिद्ध लोक नृत्य है, जो कि सतनाम पंथियों द्वारा किया
जाता हैं। यह नृत्य माघ-पूर्णिमा पर जैतखाम की स्थापना पर उसके चारों ओर किया जाता है। पंथी नृत्य में गुरू घासीदास की चरित्र गाथा को बड़े ही मधुर राग में गाया जाता है। यह बड़ा ही आकर्षक नृत्य है।
करमा नृत्य- छत्तीसगढ़ के आदिवासियों का प्रमुख लोक नृत्य हैं। करमदेवता को प्रसन्न करने के लिए सामूहिक रूप से आदिवासी स्त्री-पुरूष इस नृत्य को करते हैं। करमा नृत्य के मुख्यतः चार रूप हैं-करमा खरी, करमा खाय, करमा खुलनी व करमा हलकी।
गौरा नृत्य- छत्तीसगढ़ की मड़िया जनजाति का यह प्रसिद्ध लोक नृत्य है। नयी फसल पकने के समय मड़िया जनजाति के लोग गौर नामक पषु के सींग को कौड़ियों में सजाकर सिर पर धारण कर अत्यन्त ही आकर्षक व प्रसन्नचित मुद्रा में यह नृत्य करते हैं। यह छत्तीसगढ़ ही नहीं बल्कि विष्व के प्रसिद्ध लोक नृत्यों में एक है। एल्विन ने तो इसे देष का सर्वोत्कृष्ट नृत्य माना है।
माँदरी नृत्य- माँदरी नृत्य घोटुल का प्रमुख नृत्य है। इसमें माँदर की करताल पर नृत्य किया जाता है। इसमें गीत नहीं गाया जाता है। पुरूष नर्तक इसमें हिस्सा लेते हैं। दूसरी तरह के माँदरी नृत्य में चिटकुल के साथ युवतियाँ भी हिस्सा लेती हैं। यह घोटुल का प्रमुख नृत्य है। इसमें कम से कम एक चक्कर माँदरी नृत्य अवष्य किया जाता है। माँदरी नृत्य में शामिल हर व्यक्ति कम से कम एक थाप के संयोजन को प्रस्तुत करता है, जिस पर पूरा समूह नृत्य करता है।
सरहुल नृत्य- यह छत्तीसगढ़ की उराँव जनजाति का प्रसि़द्ध लोक नृत्य है। इसे जनजाति द्वारा अपने देवता को प्रसन्न करने के लिए साल वृक्ष के चारों ओर घूम-घूम कर उत्साहपूर्वक किया जाता है। वस्तुतः उराँव जनजाति का मानना है कि इनके देवता साल वृक्ष में निवास करते हैं।
ददरिया नृत्य- यह छत्तीसगढ़ का प्रसिद्ध प्रणय नृत्य है। यह एक गीतमय नृत्य है जिसमें युवक गीत गाते हुए युवतियों को आकर्षित करने के लिए नृत्य करते हैं। छत्तीसगढ़ में यह काफी लोकप्रिय है।
परघौनी नृत्य- बैगा जनजाति का यह लोकप्रिय नृत्य है जो कि विवाह के अवसर पर बारात पहुंचने के साथ किया जाता है। वर पक्ष वाले उस नृत्य में हाथी बनाकर नृत्य करते हैं।
गेंड़ी नृत्य- यह मुड़िया जनजाति का प्रिय नृत्य है जिसमें पुरूष लकड़ी की बनी हुई उंची गेंड़ी पर चढ़कर तेज गति से नृत्य करते हैं। इस नृत्य में षारीरिक कौषल व संतुलन के महत्व को प्रदर्षित किया जाता है। सामान्यतः घोटुल के अंदर व बाहर इस नृत्य को विषेष आनंद के साथ किया जाता है।
हुलकी नृत्य- हुलकी पाटा घोटुल का सामूहिक मनोरंजक लोक नृत्य हैं। इसे अन्य सभी अवसरों पर भी किया जाता है। इसमें लड़कियाँ व लड़के दोनों भाग लेते हैं। हुलकी पाटा मुरिया संसार के सभी कोनों को स्पर्ष थोड़ा बहुत अवष्य करते हैं। हुलकी पाटा मुरिया जगत की कल्पनाओं का व्यावहारिक गीत है।
दण्डामी नृत्य- माड़िया नर्तकियों के दांहिने हाथ में बांस की एक छड़ी होती है, जिसे ‘तिरूडुडी’ कहते हैं। नर्तकी इसे बजा-बजा कर नृत्य करती है।
डंडारी नृत्य- यह नृत्य प्रतिवर्ष होली के अवसर पर आयोजित होता है। विषेष रूप सेराजा मुरिया भतरा इस नृत्य में रूचि लेते हैं। नृत्य के प्रथम दिवस में गांव के बीच एक चबूतरा बनाकर उस पर एक सेलम स्तंभ स्थापित किया जाता है और फिर ग्रामवासी उसके चारों ओर घूम-घूम कर नृत्य करते हैं। बाद में डण्डारी नृत्य-यात्रा कर गांव-गांव में नृत्य प्रदर्षित करते हैं।
गेंड़ी नृत्य- प्रति वर्ष श्रावण मास के हरेली अमावस्या से लेकर भादों मास की पूर्णिमा तक गेंड़ी का मौसम चलता है। गेंड़ी लोक नृत्य के समय दो प्रमुख लोक वाद्य यंत्र, मोहरी और तुड़बुड़ी बजाये जाते हैं।
छत्तीसगढ़ के लोक नाट्य:- छत्तीसगढ़ में लोक नाट्य की परम्परा सैकड़ों वर्ष पुरानी है, यह छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक आत्मा है। लोक नाट्य में गीत, संगीत और नृत्य होते हैं जिसे कथा सूत्र में पिरोकर प्रेरणादायी और सरस बनाया जाता है। छत्तीसगढ़ के प्रमुख लोक नाट्य निम्नलिखित हैं-
छत्तीसगढ़ के लोक नाट्य
1) नाचा 2) भतरानाट 3) ककसार
4) चंदैनी गोंदा
5) हरेली 6) सोनहा-बिहान 7) लोरिक चंदा 8) नवा बिहान
9) गम्मतिहां 10) कारी 11) रहस
ऽ छत्तीसगढ़ में विश्व की प्रथम नाट्यषाला होने का गौरव प्राप्त है। सरगुजा जिले के मुख्यालय अंबिकापुर से 50 किमी. दूर रामगढ़ की पहाड़ी पर तीसरी षताब्दी ई.पू. एक नाट्यषाला का निर्माण किया गया था। इस प्रकार छत्तीसगढ़ में लोक नाट्य प्राचीन धरोहर का प्रतिनिधित्व करते हैं।
ऽ छत्तीसगढ़ में लोक कला का मर्मज्ञ दाउ रामचंद्र देषमुख को माना जाता है। उनके दिषा-निर्देषन में सन् 1971 में प्रमुख लोक नाट्य ‘चन्दैनी के गोंदा’ की प्रस्तुति हुई जिसमें सैकड़ों प्रदर्षन किये और उसे लाखों लोगों ने देखा।
ऽ छत्तीसगढ़ में लोक कला के पुजारी दाउ मंदार सिंह चन्द्राकर के सोनहा बिहान व लोरिक चन्दा की प्रस्तुति ने लोक नाट्य का सफलतम इतिहास बनाया।
ऽ रहस-यह छत्तीसगढ़ की आनुष्ठानिक नाट्य विद्या है। यह लगभग 300 वर्ष पूर्व छत्तीसगढ़ में आयी थी, यह 9 से 3 दिनों तक रात्रि 8.00 बजे से प्रारंभ होकर प्रातः 6 बजे तक चलती है। यह बिलासपुर, रतनपुर, मुंगेली, जांजगीर व बिल्हा में अत्यधिक लोकप्रिय है।
प्रमुख संगीतकार:-
छत्तीसगढ़ राज्य के राजनांदगाँव जिले की खैरागढ़ तहसील में स्थित इंदिरा गांधी संगीत विष्वविद्यालय भारत में नहीं वरन् एशिया का एकमात्र संगीत विष्वविद्यालय है। छत्तीसगढ़ में संगीत के प्रति विषेष लगाव रहा है। छत्तीसगढ़ में रायगढ़ घराना ने पर्याप्त प्रतिष्ठा प्राप्त की है।
ऽ राजा चक्रधर सिंह-रायगढ़ के महाराजा चक्रधर सिंह संगीत के क्षेत्र में सुप्रसिद्ध विभूति हैं। इन्होंने राग रत्न मंजूषा, नर्तन सर्वस्व व तालतयो निधि जैसे महत्वपूर्ण संगीत ग्रंथों की रचना की। आप तबला वादन के श्रेष्ठ वादक थे।
छत्तीसगढ़ के मेले:-
मेला भारतीय संस्कृति का प्रमुख अंग है। छत्तीसगढ़ में मेला यहाँ की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक विविधताओं का अपूर्व संगम है। यहाँ सर्वाधिक मेले फरवरी, मार्च और अप्रैल तथा मई माह में लगते हैं। सन् 1961 में मेलों की गणना के अनुसार बिलासपुर संभाग में 79 मेले व रायपुर संभाग में 78 मेले लगते हैं।
छत्तीसगढ़ के प्रमुख मेले:-
राजिम का मेला - फरवरी-मार्च के माह में महानदी के तीर्थस्थान के नाम से प्रसिद्ध राजीव लोचन व षिवमंदिर के पास एक माह तक लगने वाला यह प्रख्यात मेला है, महाशिवरात्रि मेले का प्रमुख दिन है।
बस्तर का मड़ई मेला - दीपावली के बाद बस्तर के अनेक गांवों में मड़ई मेला लगता है, इसके आस-पास समस्त आंगा देव एकत्रित होते हैं।
षंकरजी का मेला - बिलासपुर में कनकी स्थान पर 130 वर्षों से यह मेला लगरहा है। सात दिन तक चलने वाला यह मेला महाषिवरात्रि के अवसर पर लगता है।
खल्लारी मेला - नवरात्र के समय महासमुंद में लगता है।
बस्तर का दषहरा मेला - यह विष्व प्रसिद्ध आदिवासी मेला हैं जो अक्टूबर माह में आयोजित होता है। इसमें लकड़ी के विषाल रथ बनाये जाते हैं, जिन्हें हजारों आदिवासी श्रद्धापूर्वक खींचते हैं। यह उत्सव कई महीनों पूर्व प्रारंभ हो जाता है।
माँ बमलेष्वरी मेला- यह राजनांदगांव जिले में दोनों नवरात्रि के अवसर पर डोंगरगढ़ की पहाड़ी पर लगता है। यह अत्यधिक भव्य मेला है। यहां बड़ी दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं, यहां ज्योति भी जलती है।
षिवरीनारायण मेला - प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा से महाषिवरात्रि फरवरी तक षिवरीनारायण में विषाल मेले का आयोजन किया जाता है।
सिहावा का श्रृंगी ऋषि का मेला - यह मेला माघी पूर्णिमा को लगता है। यह महानदी का उद्गम स्थल है, अतः इस मेले में हजारों की संख्या में लोग पहुंचते हैं।
छत्तीसगढ़ के अन्य प्रमुख मेले:-
सिरपुर का मेला सिरपुर (महासमुंद)
रतनपुर का मेला रतनपुर (बिलासपुर)
दशहरा मेला जगदलपुर (बस्तर)
कर्णेश्वर का मेला देउरपारा, बुनेसर (सिहावा)
बम्हनी का मेला बम्हनी (महासमुंद)
चम्पारण का मेला चम्पारण, राजिम (रायपुर)
छत्तीसगढ़ की फिल्में:- छत्तीसगढ़ की अपनी विषेश बोली और संस्कृति की परम्परा है। छत्तीसगढ़ में फिल्मों का निर्माण इसी संस्कृति विकास का प्रयास है। छत्तीसगढ़ी बोली में फिल्में बनाने का प्रयास पहली बार सन् 1965 में किया गया था। सन् 1969 में द्वितीय छत्तीसगढ़ी फिल्म घर-द्वार का निर्माण किया गया जिसके गायक मो. रफी थे। 1991 में वीडियो फिल्म जय मां बम्लेष्वरी का निर्माण राजेन्द्र तिवारी व श्रीचंद सुुंदरानी ने किया।
छत्तीसगढ़ फिल्म उद्योग का नाम छालीवुड रखा गया है।
छत्तीसगढ़ की फिल्मों में प्रथम -
प्रथम छत्तीसगढ़ी फिल्म -कहि देबे संदेष
प्रथम फिल्म निर्माता-मनु नायक
प्रथम गीतकार -हेमंत नायडू
प्रथम संगीतकार -मलय चक्रवर्ती
ऽ छत्तीसगढ़ की प्रथम रंगीन व सर्वाधिक सफल फिल्म ‘मोर छईयां भुईयां’ रही हैं। निर्देषक कांकेर निवासी सतीष जैन। यह पांच षो में दिखाई जाने वाली प्रथम फिल्म भी है।
ऽ छत्तीसगढ़ी फिल्म निर्माण में दिल्ली दूरदर्षन द्वारा दो टोली फिल्मों का निर्माण किया गया है-
हरेली
लोरिक चंदा
ऽ रायपुर दूरदर्षन द्वारा टेली फिल्मों का निर्माण किया गया जैसे - परबुधिया, चांदी के दोना, रेमटा कहे पोछले अंजोर, पर्रा भंावर।
ऽ छत्तीसगढ़ में आर.पी. फिल्म द्वारा ‘छत्तीसगढ़ फिल्मफेयर अवार्ड की परम्परा ‘आरंभ की गई है।
ऽ इसके तहत प्रथम सर्वश्रेष्ठ फिल्म ‘मोर छईयां भुईयाँ’ को घोषित किया गया है।
छत्तीसगढ़ की प्रमुख जनजातियाँ:-
ऽ हलबा जनजाति:- हलबा जनजाति का उपविभाजन है-बस्तरिया, छत्तीसगढ़िया तथा मरेठिया तथा हलबा जनजाति में कई उपषाखाएँ हैं। जैसे-नायक, भण्डारा, परेत, सुरेत तथा नरेवा। जिसमें सुरेत हलबा अधिक प्रगतिषील है। ये अपने को षिव-पार्वती द्वारा उत्पन्न मानते हैं तथा इनकी बोली हल्बी है। बस्तर में टोटम को बरग कहते हैं।
ऽ हलबा जनजाति में कई वर्ग कबीरपंथी होते हैं। इनका दूसरा सम्प्रदाय सेवता है, जिसमें प्रमुख रूप से दुर्गा पूजा की जाती है। ये अधिकांष कृषि करते हैं।
ऽ गोंड़ जनजाति:- छत्तीसगढ़ की सबसे बड़ी जनजाति गोंड़ हैं, जो कि राज्य के दक्षिणी हिस्से में मुख्यतः निवास करती है। गोंड़ अधिकांषतः बस्तर के पठार तथा छत्तीसगढ़ बेसिन तक विस्तृत हैं। प्राचीन काल में इनका राज्य गोंड़वाना लैण्ड के लागों तक फैला था। इसी कारण गोंडवाना लैण्ड के निवासी गोंड कहलाते हैं।
ऽ मरिया गोंड़ मुरिया गोंड़ों से अधिक विकसित हैं। इनकी मुख्य विषेषता यह है कि अविवाहित पुरूषों/लड़कियों को युवा गृह होता है। इनकी भाषा गोंडी है जो द्रविड़ भाषा से संबंधित है।
ऽ माड़िया जनजाति:- यह जनजाति प्रमुख रूप से बस्तर में निवास करती है। अबूझमाड़ की पहाड़ियों में रहने के कारण इन्हें अबूझमाड़िया भी कहते हैं। माड़ियों का एक वर्ग गौर माड़िया कहलाता है, क्योंकि ये लोग जंगली भैंसे के सींग की बनी टोपी पहनते हैं। यह मुख्यतः दक्षिण दन्तेवाड़ा, बीजापुर व जगदलपुर में पाया जाता है।
ऽ मुरिया जनजाति:- यह गोंड़ों की एक उपजाति है। इनकी विषिष्ट पहचान कोंडागांव एवं नारायणपुर तहसील में दिखलायी देती है। ये गोंड़ी तथा हल्बी बोलियाँ बोलते हैं। घोटुल मुरिया जनजाति में युवा गृह जिसे घोटुल कहते हैं, का विषेष महत्व है। घोटुल गुड़ी में अविवाहित बालक, बालिकाएं सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, परम्पराओं व सहयोग के साथ-साथ षिकार कौषल का प्रषिक्षण पाते रहे हैं। ठाकुरदेव तथा महादेव की पूजा करते हैं। इनके प्रमुख त्यौहार- जात्रा, नवाखानी तथा उत्सवों में पारम्परिक ‘ककसार’ होता है।
ऽ वेरियर एल्विन ने अपनी पुस्तक ‘‘मुरिया एण्ड देयर घोटुल’’ में इस जनजाति का अध्ययन किया है। बस्तर की नारायणपुर तहसील में मेले के अवसर पर जनजातियों द्वारा प्रसिद्ध ‘एबालतोर’ नृत्य किया जाता है। गड़ाबा या गड़वा-यह जनजाति बस्तर, रायगढ़ और बिलासपुर जिले में पाई जाती है।
ऽ धनवार:-यह आदिम-जनजाति प्रमुख रूप से बिलासपुर के पहाड़ी क्षेत्र में निवास करती है। ये धनुहर के नाम से भी जाने जाते हैं। ये षिकार के लिए धनुष बाण का प्रयोग करते हैं। प्रत्येक घर में धनुष की पूजा होती है और विवाह के समय भी वर धनुष लेकर आता है।
ऽ बैगा:- द्रविड़ समुदाय की यह जनजाति छत्तीसगढ़ में विषेषकर बिलासपुर और राजनांदगांव जिले में निवास करती है। इनकी आजीविका का साधन कृषि व वनोपज संग्रहण है।
ऽ मंझवार:-ये मांझी या मांझिया के नाम से जाने जाते हैं। यह एक मिश्रित जनजाति है जिसकी उत्पत्ति गोंड, मुंडा और कंवार जनजाति से हुई है। ये प्रमुख रूप से रायगढ़ तथा सरगुजा जिले में निवास करते हैं।
ऽ खैरवार:-ये खरवार या खरिया या खैरया के नाम से जाने जाते हैं। ये प्रमुख रूप से बिलासपुर और सरगुजा जिले में निवास करते हैं। इनकी कई उप जातियाँ हैं जिनके नाम प्राणियों व पौधों पर रखे गए हैं। ये उप जातियाँ बर्हिविवाही हैं।
ऽ भुंजिया:-इसकी दो उप जातियाँ हैं-छिंदा भुंजिया और चैखटिया भुंजिया। छिंदा भुंजिया बैगा के वंषज माने जाते हैं, जबकि चैखटिया भुंजिया की उत्पत्ति गोंड़ स्त्री और हलबा पुरूष से मानी जाती है। भुंजिया चारों ओर से गोंड़ जनजाति से घिरे होने के बावजूद गोंडी नहीं बोलते बल्कि छत्तीसगढ़ी बोली बोलते हैं। रोगों का उपचार वे अंगों को तपते लोहे से दाग कर करते हैं।
ऽ पारधी:-इनके आठ उपभेद हैं। इनके से एक उप वर्ग कारगर कहलाता है जो केवल काले रंग के पक्षियों का षिकार करते हैं। इनके गोत्र राजपूतों से मिलते हैं।
ऽ खरिया:- यह आदि कोलारियन जनजाति बिलासपुर, रायगढ़ और सरगुजा जिले में निवास करती है। रायगढ़ जिले में इनकी दो उप जातियां हैं-दूध खरिया और डेलकी खरिया। इनमें से डेलकी खरिया मिश्रित प्रकार के माने जाते हैं। इनके प्रमुख देवता बंदा हैं।
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Received on 24.12.2018 Modified on 10.01.2019
Accepted on 20.02.2019 © A&V Publications All right reserved
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