छत्तीसगढ़ में कंवर जनजातिः एक सामान्य अध्ययन
डाॅ. टि के सिंह,
सहायक प्राध्यापक, भूगोल अध्ययनशाला, पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर
*Corresponding Author E-mail: indubharti28@gmail.com
ABSTRACT:
प्रस्तुत अध्ययन छत्तीसगढ़ राज्य में कंवर जनजाति का सामान्य अध्ययन से संबंधित है। इस अध्ययन का उद्देश्य कंवर जनजाति का छत्तीसगढ़ में स्थान, क्षेत्र व बसाहट, गोत्र, जनसंख्या - लिंगानुपात व साक्षरता तथा बार नृत्य का सामान्य अध्ययन करना है। प्रस्तुत अध्ययन अन्वेषणात्मक सह विवरणात्मक अनुसंधान एवं द्वितीय आँकड़ों पर आधारित है। छत्तीसगढ़ के 42 अनुसुचित जनजातियों की सूची में यह क्रमांक 22 पर सूचीबद्ध है। इस जनजाति में कुल 200 से ज्यादा गोत्र हैं। आदिवासी संस्कृति के अनुसार ही गोत्र- पशु, पक्षी, पेड-पौधे, वस्तु, कार्य आदि के टोटम पर आधारित होती है। 887477 (94 प्रतिशत) जनसंख्या छत्तीसगढ़ राज्य में तथा 59195 (6 प्रतिशत) जनसंख्या मध्यप्रदेश, झारखंड, उडीसा एवं महाराष्ट्र में है। राज्य की पांच प्रमुख जनजातियों में यह दूसरी तथा पूरे भारत मंें 20 वीं बडी जनजाति है। इस जनजाति की राज्य में ग्रामीण जनसंख्या 94.65 प्रतिशत, लिंगानुपात 1011 तथा साक्षरता दर 67 प्रतिशत है। राज्य के कुल भौगोलिक (135133 वर्ग किमी.) क्षेत्रफल से अनुसूचित क्षेत्र (81862 वर्ग किमी.) 60.6 प्रतिशत है। बार नृत्य इस जनजाति की प्रमुख नृत्य है।
KEYWORDS: कंवर, जनजाति, गोत्र, बार नृत्य, टोटम
प्रस्तावनारू
हमारे देश में कई जाति तथा धर्म के लोग निवास करते हैं। इनमें से कुछ वनाचलों में रहते हैं। इन लोगों की नगरीय समाज से इनका सम्पर्क सीमित होता है। सुदूर जंगलों में इनका निवास होने से तथा विशिष्ट जीवन शैली होने के कारण इनहे कई जातियों के नाम से भी जाना जाता है। छत्तीसगढ़ अंचल वन बहुल क्षेत्र है तथा इसमें यहां के मूल निवासी जनजाति लोग हंै।
इस जाति के लोग प्रकृति की गोद में सरल जीवन व्यतीत करते हैं। इनकी अपनी जीवन शैली, भाषा, संस्कृति तथा परम्पराएँ है। इस जनजाति लोगों की खास विशेषता है- इनका सामूहिक जीवन, सामूहिक उत्तरदायित्व और भावात्मक संबंध है। सामूहिक जीवन की चेतना तथा परस्पर के प्रति रक्षात्मक जुडाव ये दोनों बातें इतनी एकाकर हो गई है कि ये लोग अकेले जीवन या परिवार की सोच नहीं सकते हैं। यही कारण है कि वे परस्पर निःस्वार्थ व स्वभाविक रूप से मदद करते हैं। इस समाज में अपने मूल रूप में कभी व्यापारिक लेन-देन, ब्याज, साहूकार आदि की प्रथा नहीं रही है। जैसे- खेती के लिए बीज व मदद चाहिए रहता है तो सब मिलकर उसे पूरा कर लेते हैं एवं जब फसल हो जाती है, तब वह व्यक्ति उसे लौटा देता है। ये एक सहज, सरल, प्राकृतिक सहजीवन व्यतीत करने वाले होते हैं।
इस जाति की अर्थव्यवस्था उन्न्त समाज की अर्थव्यवस्था से अलग होती है। इनकी आवश्यकताएं सीमित होती है। ये अपनी सीमित आवश्यकताओं के लिए प्रकृति पर रहते हैं। ये जाति कृषि, वनोपज संग्रह तथा मजदूरी करके जीवन-यापन करती है। इनकी काफी बडी संख्या वन क्षेत्रों में निवास करती है। सरकारी नितियों व प्रयासों के कारण इस जाति की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ है। उद्योग-धंधे में विस्तार के कारण इस जाति के लोग रोजगार के लिए नगरों व शहरों की ओर आकर्षित हुए हैं तथा उत्खनन, निमार्ण कार्य, परिवहन, व्यापार और सेवाओं में भागीदारी कर रहे हैं। जिस कारण से आज अर्थ व्यवस्था को गति मिली है।
इनकी अपनी अलग पहचान व संस्कृति है, संगीत और नृत्य अभिन्न अंग है। कृषि कार्यों त्यौहारों आदि के अवसरों पर गाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के गीत होती है। संस्कृति से संबंधित नियमों की अवहेलना करने पर कठोर सामाजिक दण्ड दिया जाता है। निवास और व्यवसायों में समयागत परिवर्तन के कारण वर्तमान में इनकी संस्कृति में बदलाव भी होने लगा है। महिलाओं में अपने शरीर पर शुभचिन्ह, पशु-पक्षियों, गहनों के चित्र और नाम इत्यादि का शरीर पर स्थायी अंकन करवा लेना लोकप्रिय है। इस अंकन को ’गुदना’ कहते है। इनका मानना है कि गुदना उनके जीवन भर के आभूषण है।
अध्ययन के उद्देश्यरू
प्रस्तुत अध्ययन का उद्देश्य कंवर जनजाति का छत्तीसगढ़ में स्थान, क्षेत्र व बसाहट, गोत्र, जनसंख्या - लिंगानुपात व साक्षरता तथा बार नृत्य का सामान्य अध्ययन करना है।
आँकड़ों के स्रोत एवं विधितंत्ररू
प्रस्तुत अध्ययन अन्वेषणात्मक सह विवरणात्मक अनुसंधान एवं द्वितीय आँकड़ों पर आधारित है। इसके लिए सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण वर्ष 2011-12 एवं जनगणना वर्ष 2011 को आधार माना गया है।
अध्ययन क्षेत्ररू
01 नवम्बर सन् 2000 को छ.ग. राज्य म.प्र. से पृथक होकर स्वतंत्र अस्तित्व में आया। छ.ग. राज्य प्रायद्वीपीय पठार का एक भाग है। भारत के मध्य पूर्व में स्थित यह भारतीय संघ का 26 वां राज्य है जिसका अक्षांशीय विस्तार 170 00’- 230 70’ उत्तरी अक्षांश तथा 800 40’ - 830 38’ पूर्वी देशांतर के मध्य स्थित है। यह 135133 वर्ग कि.मी. क्षेत्र में फैला हुआ है। 81,861.88 वर्ग कि.मी. अनुसूचित क्षेत्र है। जो राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 60.58 प्रतिशत है।
राज्य की कुल अनुसूचित जनजाति जनसंख्या (2011) 78,22,000 है। छ.ग. के प्रमुख जनजाति गोड़ हैं। इसके विभिन्न उपजातियां माड़िया, मुरिया, दोरला आदि है। इसके अतिरिक्त उरांव, कवंर, बिंझवार, बैगा, भतरा, कमार, हलबा, सवरा, नगेशिया, मंझवार, खरिया और धनवार जनजाति बड़ी संख्या में है।
कंवरान क्षेत्रः
अविभाजित मध्य प्रदेश का दक्षिण-पूर्वी भाग, जिसे आज छत्तीसगढ़ कहा जाता है, इसमें न केवल सरगुजा, कोरिया, जशपुर, बलरामपुर, सूरजपुर, रायगढ़, कोरबा और बिलासपुर ही नहीं बल्कि कुछ उल्लेखों के अनुसार दुर्ग, राजनांदगांव, रायपुर, धमतरी, जांजगीर-चांपा, बस्तर सहित मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा और झारखण्ड के कुछ जिलों का बहुत सा भू-भाग कंवरान परिक्षेत्र में सम्मिलित था। विशेषकर आज हम जिस जगह को हम सरगुजा संभाग, बिलासपुर संभाग, धरमजयगढ़ और धमतरी क्षेत्र के नाम से अलग अलग जानते हैं, आज भी पुराने लोगों द्वारा इन जगहों को संयुक्त मिलाकर कंवर जनजाति की सांस्कृतिक बहुलता के कारण “कंवरान” कहा जाता है, प्राप्त पुरातन उल्लेखों से लेकर अंग्रेजांे तक के काल में इस क्षेत्र को कंवरान कहने का उल्लेख मिलता है। छत्तीसगढ़ के मध्य प्रांत के अंतर्गत सरगुजा, कोरबा, बिलासपुर, जशपुर, मुंगेली, रायगढ़, कोरिया, कर्वधा, आदि क्षेत्र में है और रियासतों के अंतर्गत सरगुजा, जशपुर, कोरिया, उदयपुर, चांगभखार में है।
संक्षिप्त परिचयः
महाभारतकालीन कौरवों का वंशज मानने वाली यह जाति अपने धार्मिक आचरण, सामाजिक मर्यादा और धार्मिक विश्वास के पालन में किसी न किसी रूप में क्षात्र-धर्म का पालन करती है। यही कारण है कि इस जाति के लोग अस्त्रों-शस्त्रों की पूजा और सैनिक कर्म को प्रधानता देते हैं। लोकनाथ ने लिखा है कि कवंर जाति की उत्पति महाभारत के कौरवों से बताई जाती है, यद्यपि वे सैन्य सेवा को अपना पारंपरिक व्यावसाय मानते हैं, अधिकांश ने सैन्य जीवन छोड दिया है और किसान या मजदूर बन गए हैं। उनकी भाषा कवंरी, एक इंडो-आर्यन भाषा है, जिसे हल्बी की एक बोली माना जाता है। आज कुछ कवंर छत्तीसगढ़ी और हिंदी बोलते हैं, अपने पडौसियों की भाषा और साथ ही अपनी संस्कृतियों को अपनाना शुरू कर दिया है। कवंर जाति के लोग आसपास के लोगों की संस्कृतियों से इतने अधिक प्रभावित हो गये हैं कि अब असली कवंर नहीं माना जाता है। उनहोने अपनी भाषा और पूर्व संस्कृति को पूरी तरह से खो दिया है और अब एक अलग बोली बोलते हैं।
छत्तीसगढ़ के 42 अनुसूचित जनजातियों की सूची में यह क्रमांक 22 पर सूचीबद्ध है। इनकी चार प्रमुख उपजातियां पैकरा, राठिया, चेरवा और तवंर है। इसके आलावा कौर, चांटी, कमलवंशी और छत्री है। कंवर जनजातियों में अलग-अलग क्षेत्रों में देवी-देवताओं के सम्बन्ध में मान्यता भी भिन्न भिन्न है, किन्तु पूरे कंवरान भू-भाग के कंवर जाति के लोग दुल्हादेव, ठाकुरदेव, झगराखांड, मूढ़वा देव, कंकालिन दाई, को ही अपना आराध्य देव मानते हैं। शीरिंग के अनुसार इस जाति के लोग भू-स्वामी है। अपनी संपति और प्रतिष्ठा के कारण वे राजपूत के महत्व और गौरव को प्रभावित करते हंै।
गोत्रः
कंवर जनजाति में कुल 200 से अधिक गोत्र है। जनजाति संस्कृति के अनुसार ही ये अपना गोत्र- पशु, पक्षी, पेड-पौधे, वस्तु, कार्य आदि के टोटम के आधार पर रखते है। जैसे- अंडिल, करछूल, तेलासी, बिच्छी, बाघ, बकार, भैंसा, सिक्टा, मुर्गी, दर्पण, बैंजार, खूंटा, गोबरिला, कुकुर, ठाठ, चाक, ठसरा, जतरा, एडवा, कुर्री, कपाट, कसौदी, चंदरमा, बेलवाती, छतर, घसिया, बिरतिया, ढेकी, दुध कौरा, झांप, पखना, बिलवा, बंदरा, मैना, पडकी, धनकुटटा, लोढा, रघरा, सिंगसर, हंडार, भुईघरिहा, बरगाह, सरजाल, सुगा, जांता, लांजा आदि कंवर जाति के गोत्र के उदाहरण है।
अधिवासः
अधिवास से तात्पर्य मानव द्वारा रचित उस स्थान से है, जो उसके रहने या कार्य करने या अन्य आवश्यकता की पूर्ति के लिए बनाई गई है। ये अधिवास मानव के सांस्कृतिक वातावरण का अभिन्न होते हैं। छत्तीसगढ़ राज्य में 94 प्रतिशत कवंर जनजाति हैं। ये बिलासपुर संभाग के बिलासपुर, कोरबा, रायगढ़ एवं जांजगीर-चांपा तथा सरगुजा संभाग के कोरिया, सूरजपुर, सरगुजा, बलरामपुर एवं जशपुर में मुख्य रूप से हैं। रायपुर संभाग के महासमुंद व धमतरी तथा दुर्ग संभाग के दुर्ग व राजनांदगांव में हैं। इसके अतिरिक्त सभी जिलों में छिटपुट रूप में हैं (आर व्ही. रसेल, 1916)। 6 प्रतिशत आबादी मध्यप्रदेश, झारखंड, बिहार, उडिसा एवं महाराष्ट्र में हैं। कुछ आबादी स्थानांतरित होकर असम, राजस्थान में चले गए हैं।
छत्तीसगढ़ में स्थान:
छत्तीसगढ़ की एक तिहाई जनसंख्या अनुसूचित जनजाति की है। यहां प्रदेश की कुल जनसंख्या का 31.76 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति का है। मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, उडीसा, गुजरात और झारखंड के बाद छत्तीसगढ़ की जानजातियों की जनसंख्या के आधार पर छठवें स्थान पर आता है। जबकि कुल जनसंख्या के आधार पर छत्तीसगढ़ का मिजोरम, नागालैंड, मेघालय और अरूणाचल प्रदेश के बाद पांचवें स्थान पर है।
जनसंख्या प्रतिरूपः
जनसंख्या वितरण के स्वरूप का नियंत्रित करने में सामाजिक संरचना की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, क्योंकि प्राकृतिक तथ्यों की अपेक्षा सामाजिक संरचना अधिक प्रभावशाली होती है। आज वैज्ञानिक युग में प्राविधिक शिक्षा का विकास भौगोलिक कारकों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण होता जा रहा है, क्लार्क, (1972) ने इस प्रकार व्यक्त किया है कि वैज्ञानिक एवं तकनिकी प्रगति के कारण जनसंख्या वितरण पर भौगोलिक कारकों का प्रभाव कम एवं सांस्कृतिक कारकों का प्रभाव बढ़ता जा रहा है।
नवगठित छत्तीसगढ़ राज्य की कुल जनसंख्या वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार 2,55,45,198 है। जिसमें अनुसूचित जनजाति 78,22,902 है, जो कि राज्य की जनसंख्या का 30.62 प्रतिशत है, तथा देश की अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या का 8.61 प्रतिशत है।
देश में इस जाति की कुल जनसंख्या 9,46,672 है। छत्तीसगढ़ पांच प्रमुख जनजातियों में यह जाति दूसरी बडी जनजाति है। इसकी कुल जनसंख्या 8,87,477 (11 प्रतिशत) हैं। प्रदेश में सबसे बडी जाति गोंड 42,98,404 (55 प्रतिशत) तीसरी उरांव 7,48,789 (10 प्रतिशत), चैथी हल्बा 3,75,182 (5 प्रतिशत) और पांचवीं बडी जाति भतरा 2,13,900 (3 प्रतिशत) है।
जनसंख्या वृद्धिः
किसी भी क्षेत्र की जनसंख्या वृद्धि वहां की विकास संबंधी योजनाओं के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण होती है, जो कि उस क्षेत्र में उपलब्ध संसाधनों, आर्थिक विकास एवं पर्यावरण संतुलन को अनेक प्रकार से प्रभावित करती है। जनसंख्या वृद्धि से तात्पर्य जनसंख्या के अंतर्गत समय विशेष के अंतराल पर जनसंख्या में होने वाले परिवर्तन से है, जो ऋणात्मक एवं धनात्मक दोनों रूपों में परिलक्षित किया जाता है (सिंह एवं राय, 2010)। वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार इस जाति की कुल जनसंख्या 8,12,770 थी, जो 2011 में बढ़कर 8,87,477 हो गई। इस तरह से दशकीय जनसंख्या वृद्धि 16.47 प्रतिशत हुई। प्रदेश बनने के पश्चात् इस क्षेत्र में सामाजिक एवं आर्थिक विकास, स्वास्थ्य एवं स्वच्छता की सुविधाओं में वृद्धि तथा उद्योगों का प्रसार था, विकास के साथ ही साथ नगरीकरण एवं परिवहन व संचार सुविधाओं में विस्तार हो रहा है जिसके परिणाम स्वरूप जनगणना में जनसंख्या वृद्धि हो गई।
लिंगानुपातः
किसी भी क्षेत्र के जनसंख्या की भौगोलिक विश्लेषण में लिंगानुपात महत्वपूर्ण होता है, क्यांेकि यह न केवल स्थल रूप का महत्वपूर्ण लक्षण है अपितु अन्य जनसांख्यिकीय तत्वों को भी महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करता है। जनसंख्या की लिंग संरचना को सामान्यताः स्त्री-पुरुष अनुपात के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। लिंगानुपात किसी भी क्षेत्र की वर्तमान सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति का द्योतक है। 2011 के जनगणना के अनुसार कवंर जाति में लिंगानुपात 1011 है। छत्तीसगढ़ में लिंगानुपात 991 है तथा अनुसूचित जनजाति में यह अनुपात 1019 है, जो राज्य की कुल जनसंख्या की 30.6 प्रतिशत है। देष में अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या की दृष्टि से छत्तीसगढ का 7 वां स्थान है, जबकि अनुसूचित जनजाति प्रतिशतता की दृष्टि से 10 वें स्थान पर है।
साक्षरताः
संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कमीशन (1974) ने किसी भी भाषा में साधारण संदेश को समझने के साथ पढ़ने एवं लिखने की योग्यता को साक्षरता माना है। किसी भी क्षेत्र की समस्त भौतिक व सांस्कृतिक समृद्धि का आधार साक्षरता होती है। साक्षरता का सीधा संबंध जन्मदर, मृत्युदर, प्रवास, विवाह, अन्य जनांकिकी, विशेषताओं से होता है। साक्षरता ऐसा गुणात्मक तथ्य है, जो क्षेत्रीय आधार पर परिवर्तनशील सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक प्रवृत्तियों की ओर अप्रत्यक्ष रूप से संकेत करता है। वस्तुतः साक्षरता के विकास से मनुष्य सीमित परिवेश से उन्मुक्त होकर अपने चतुर्दिक सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व राजनैतिक प्रवृत्तियों से अन्योन्याश्रित संबंध स्थापित कर लेता है, जिससे एक इकाई के रूप मंे मानव ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानव समाज विकासक्रम में शीर्ष की ओर गतिशील हो जाता है। साक्षरता का प्रभाव समस्त जनांकिकीय तथ्यों पर विशिष्ट रूप से परिलक्षित होता है। कवंर जाति में साक्षरता 67 प्रतिशत जो कि अनुसूचित जनजाति 59 प्रतिशत से अधिक है। तथा छत्तीसगढ़ की साक्षरता (70.3 प्रतिशत) से कम है।
बार नृत्यः
बायर या बार नृत्य को कवंर जनजाति द्वारा शुरू किया गया नृत्य माना जाता है। यह नृत्य सामान्यतः 12 (बारह) दिनों तक चलता है। कभी-कभी यह नृत्य लगातार 2 से 3 महिनों तक भी किया जाता है। यह नृतय “बार पूजा“ के समय किया जाता है। बार पूजा गांव के समस्त जागृत और परालौकिक शक्तियों को एक साथ रिझाने, मनाने और नचाने के लिए किया जाता है। बार नृत्य का गीत रसदार होता है और संगीत नृत्य लोगों को नाचने के उत्साहित कर देता है। बार नृत्य के आलावा शैला, करमा व सुगा नृत्य भी कवंर जाति की प्रमुख नृत्य है।
निष्कर्षः
अध्ययन क्षेत्र में कवंर जाति का इस प्रदेश में संस्कृति - भाषा, जीवन शैली, परंपराएं, सामूहिक जीवन, बसाहट, अधिवास, गोत्र, बार नृत्य एवं जनसंख्या - लिंगानुपात, साक्षरता में अपनी एक अलग पहचान एवं स्थान रखती है।
संदर्भसूची
1. Chopra, P. N. (Ed.),1968, The Gazetteers of Indian Current History, Vol. 54, pp. 421.
2. Clark, J. I., (1972), Population Geography, Oxford Press, London, p. 14.+9*-
3. Goyal, Mukul Ranjan, 2004, Kanwar Janjati Sanskriti aur Sangathan, Hindi Granth Acadami, Bhopal,
4. Raza, M., 1971, et. Al, The Tribal Population of India, Occasional Paper, Central of Regional Development Studies JNU.
5. Russell, R. V., The Tribes and Castes of the Central Provinces of India, Vol. III, pp, 390.
6. Singh, Ajit Kumar & Rai, V. K. (2010), Mirzapur Janpad me Jansankhya Vridhi Evam Bhu-Jaliya Paryavaran Par Uska Prabhav- Ek Bhaugolik Adhyayan, Uttar Bharat Geographical Journal, Vol. 5, pp. 91-106.
7. Tiwari, V. K., 2001, Chhattisgarh Janjatiyan, Himalaya Publishing House Vol. I,
8. Verma, R. V. 1977, Bharat ka Bhougolik Vivechan.
Received on 15.03.2019 Modified on 21.04.2019
Accepted on 27.05.2019 © A&V Publications All right reserved
Int. J. Rev. and Res. Social Sci. 2019; 7(2): 486-490.