छत्तीसगढ़ की जनजातीय संस्कृति ‘‘माड़िया जनजाति के विशेष संदर्भ में‘‘

 

डाॅ. बन्सो नुरूटी

सहायक प्राध्यापक, इतिहास अध्ययनशाला पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय,रायपुर (..)     

 

 

विश्व इतिहास में जनजातीय अथवा आदिवासियों की जीवन शैली आधुनिक युग में अपना विशिष्ट महत्व रखती है। आदिवासियों की संस्कृति प्राचीनतम है और इनकी अपनी चारित्रिक विशेषताएॅ भी हैं। ये अपनी संस्कृति की अस्मिता की रक्षा के लिए सदैव जागरूक रहे हैं और अपनी स्थापित संस्कृति, परम्पराएॅ, रीति-रिवाज, खान-पान, रहन-सहन, अवधारणाओं एवं मान्यताओं को चिरकाल तक अक्षुण्ण बनाए रखना श्रेयकर समझते हैं। वे आधुनिक भौतिक वैभवों को उपलब्ध कराने की अंधा-धुंध दौड़ से कोसों दूर काफी कुछ प्राकृतिक एवं स्वाभाविक परिवेश में ही जीवन-यापन करते हैं। निष्ठा, ईमानदारी ,परिश्रम और स्वच्छंदता उन्हें धरोहर में प्राप्त हैं तथा इनकी संरक्षा के लिए वे सर्वत्र कृत संकल्प रहते हैं। उसके पारम्परिक रीति-रिवाज आज भी यथावत् हैं, यद्यपि यह नहीं कि परिवर्तन का प्रभाव उन पर लेशमात्र न हुआ हो, किन्तु आधुनिकता से वे चैक पड़ते हैं। उनका जीवन-दर्शन ,सामान्य-जीवन-शैली व जीवन-दर्शन से सदियों पीछे हैं, किन्तु उन्हें असभ्य या असंस्कृत कहना समीचीन नहीं है। वे ऐसे संस्कार धानी हैं जो अपने अमूल्य धरोहर को चिरंतन बनाए रखने के लिए सदैव तत्पर रहे हैं। माड़िया  भी आम भारतीय की तरह उत्सव प्रेमी हैं। कृषक होने के कारण इसके सभी उत्सव कृषि पर आधारित होते हैं। इनके जीवन में परम्परागत संस्कारों ,त्यौहारों एवं उत्सवों का अत्यंत महत्व है, जो इनके शुष्क, कठोर व संघर्षमय जीवन में सरसता और उत्साह का संचार करते हैं। वे लोग वर्ष भर पर्व या त्यौहार मनाते हैं और प्राय सभी त्यौहारों में नृत्य व गीत का आयोजन होता है। नृत्य इनके लिए मनोरंजन एवं तनाव दूर करने का एक सुगम साधन है। यहाॅ विभिन्न प्रकार के नृत्य प्रचलित हैं, जैसे- कक्साड़ ,गौर ,विवाह, गेड़ी ,जात्रा आदि।

 

 

सिरहा, लिगोंदेव, देवगुड़ी, गौर सींग, कक्साड़, जात्रा।

 

शोध प्रविधि:-

प्रस्तुत अध्ययन बस्तर संभाग के अबुझमाड़ क्षेत्र की माड़िया जनजाति पर केन्द्रित है यह अध्ययन अभिलेखागारीय पध्दति एवं प्राथमिक अनुभव जन्य तथ्यों पर आधारित है। तथ्य संकलन हेतु साक्षात्कार अनुसूची उपकरण का प्रयोग किया गया है। अबुझमाड़ क्षेत्र के लगभग 500 उत्तरदाताओं में से 100 अर्थात 20 प्रतिशत उत्तरदाताओं का चयन उद्देश्यपूर्ण निदर्शन के द्वारा किया गया है।

 

भूमिकाः-

भारतीय कला-परम्परा अपनी प्राचीनता एवं निरन्तरता के लिए प्रसिद्ध है। कला के लिये भारतीय परम्परा में ‘‘शिल्प’’ शब्द का प्रयोग हुआ है तथा इसका विकास शिल्पियों के सहयोग से हुआ है स्थापत्य कला, मूर्तिकला एवं चित्रकला बुद्धि की सर्जनात्मक शक्ति के विभिन्न रूप है। वास्तुकला के प्राचीनतम प्रमाण कांस्य-युग के हैं। ये प्रमाण सिंधु घाटी की सभ्यता में उपलब्ध हैं। वहाँ उपलब्ध भवन ,सड़क आदि भारत में नगरीकरण के सूचक हैं। स्तूप, चैत्य गृह एवं विहार से संबंधित वास्तुकलाओं का विकास बौद्ध धर्म के संरक्षण में हुआ। इनका निर्माण बौद्ध धर्म की आवश्यकता के अनुरूप था कला का विकास सभी धर्मों, सम्प्रदायों तथा शिल्पियों के सहयोग से हुआ है।1

 

जहाँ तक बस्तर की कला का सवाल है चित्रकला के समस्त पारम्परिक अंगों का पालन नहीं मिलता। बस्तर अंचल में निवास करने वाले माड़िया जनजाति की चर्चा तब तक अधूरी रहेगी, जब तक उनकी कला एवं संस्कृति के विषय में पर्याप्त जानकारी दी जाय। साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है, उसी तारतम्य में यह भी कहा जा सकता है कि कलाएँ समाज का प्रतिबिम्ब होती है।2

 

आदिम जातियों में नृत्य किसी त्यौहार, आनुष्ठानिक कार्यों से प्रारंभ से जुड़े रहे हैं। आदिम जनजाति के लोगों को नृत्य की प्रेरणा प्रकृति और जीवों से मिली है, बुनियादी रूप से उल्लसित मानव ने अपनी खुशी का इज़हार गीत संगीत के माध्यम से किया है। आदिम समूहों में नृत्य एक सामूहिक क्रिया-कलाप है, इसलिये नृत्य उनकी सामूहिक भावना के प्रतीक है।3 आदिवासी के लोक नृत्य एवं लोक गीत विशेष आकर्षक हैं। विवाह आदि प्रसंगों पर उनका आयोजन किया जाता है। होली उनके लिए एक महत्वपूर्ण त्यौहार है। उस दिन और उसके पूर्व भी आकर्षक नृत्य करते हुए देखे जा सकते हैं।4 आदिवासियों में अनेक उत्सव प्रचलित हैं, जिनका सांस्कृतिक महत्व है। प्रत्येक उत्सव में कुछ लोकगीत गाये जाते हैं। ये गीत प्रायः नृत्य परक होते हैं। सम्पूर्ण रात्रि रेला नामक तालबद्ध नृत्य करते हुए बीत जाती है। ‘‘घोटुल’’ इनका अत्यन्त प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय नृत्य स्थान है।5

 

भारत वर्ष में गोंड़, माड़िया, मुरिया आदि जनजातियों में युवा गृहों में नृत्य का प्रशिक्षण दिया जाता है। बस्तर की माड़िया जनजाति के लोग इन युवा गृहों में बच्चों को संगीत एवं नृत्य का ज्ञान अर्जित करने हेतु भेजते हैं, जो कि युवा गृहों का प्रमुख कार्य माना जाता है। महिला-पुरुष विभिन्न अवसर पर नृत्य में भाग लेते हैं।6

 

जनजातियों के अनेक समूहों ने अधिकांश समय युद्ध तथा संघर्ष में ही बिताया है, जिसका प्रभाव उनकी कला पर भी दिखाई देता है। युद्ध का अनेक जनजातियों में प्रचलन है। प्राचीन समय में गोंड़ राजा के दरबार में प्रस्तुत किया जाने वाला सैला नृत्य भी युद्ध नृत्य के रूप में माने जाते हैं।7

 

धार्मिक नृत्य:-

समस्त जनजातियों में धार्मिक नृत्यों का आयोजन किया जाता है। अनेक अवसरों पर सिरहा स्वयं नृत्य करता है। वेरियर एल्विन ने अपना मत प्रकट करते हुए कहा है कि‘‘सिरहा’’सर्वप्रथम नृत्यकार थे तथा उनके नृत्य उल्लास से परिपूर्ण होते हैं।8

 

विवाह नृत्य:-

विवाह नृत्य अक्सर अत्यंत हर्षोल्लास का होता है। अतः समस्त आदिवासी इस मांगलिक अवसर पर नृत्य में मग्न हो जाते हैं। परन्तु ऐसे अवसरों पर मदिरापान अधिक बढ़ जाता है जिसकी वजह से अनेक लोगों ने जनजातीय संगीत कला की कुरीतियों की भत्र्सना की है, कि सामूहिक नृत्य के अवसरों पर मदिरापान किये जाने से चरित्र हीनता की भावनाएँ बढ़ जाती हैं। मदिरा पान की इसी बुरी आदत को नृत्य से सम्बद्ध मानकार संगीत एवं नृत्य की पवित्रता को बनाये रखने का प्रयास किया जाना आवश्यक है।9

 

बस्तर का जनजीवन, जंगल, जानवार, जनजाति जितने आकर्षक और लुभावने हैं उससे कहीं अधिक मोहक और आकर्षक उनका नृत्य और संगीत है। लगता है जीवन यहीं है। प्रकृति और मनुष्य (आदिवासी) दोनों के कार्यों अविरल से चलायमान है। यहाँ के हल्बा, भतरा, परजा, गोंड, माड़िया, मुरिया और धुरवा प्रत्येक जनजाति अपने-आप में एक संस्था है और इसी कड़ी में दण्डामी माड़िया के नृत्य और संगीत अद्भुत है।10

 

मनोरंजन के साधनों में नृत्य का प्रमुख स्थान रहा है। वात्सायन ने 64 कलाओं में नृत्य कला को भी एक कहा माना है। आदिवासी जनजीवन में नृत्य का महत्वपूर्ण स्थान है। श्रीमती कमला देवी चट्टोपाध्याय ने लिखा है - जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी सामाजिक अवसरों पर नृत्य का आयोजन किया जाता है। वस्तुतः समाज के किसी अवसर को ऐसे समारोहों के लिए कम महत्वपूर्ण नहीं कहा जा सकता। ऋतु परिवर्तन, धार्मिक त्यौहार, विवाह और आखेट आदि में शायद ही नृत्य के बिना कोई काम चल पाता है। विशेष अवसरों के अलावा दिन भर के कठिन परिश्रम के बाद संध्या को मनोरंजन के रूप में भी नृत्य आयोजित किए जाते हैं। ये नृत्य गानों तथा ढोल की ताल के साथ चलते हैं और इनके शरीर झूमते हैं और थिरकते हैं।11

 

आदिवासी बाहुल्य अंचल बस्तर अपने लोक नृत्यों के कारण भी प्रसिद्धि प्राप्त की है। गणतंत्र दिवस स्वतंत्रता दिवस के अलावा विशिष्ट अतिथियों के स्वागत में बस्तर के नृत्य शासन द्वारा आयोजित किए जाते हैं। जहाँ तक आम आदिवासी का सवाल है उसके लिए नृत्य जीवन का एक अंग है। भोजन, पानी, हवा जैसे उसके लिए नृत्य भी अनिवार्य आवश्यकता है, ‘‘जो जाति नाचती नहीं वह मरती है, जो जाति नाचती है वह मरती नहीं, यह आदिवासी अंचलों की मान्यता है। जहाँ तक बस्तर के आदिवासी प्रश्न है नृत्य उसके लिए तनाव दूर करने का, मनोरंजन का एक सुलभ साधन है। सामूहिक नृत्य बस्तर की विशेषता हैं, नृत्य यहाँ एकता के सूत्रों को मजबूत करने वाला एक महत्वपूर्ण उपादान है।12

 

आदिवासियों को उसके प्राकृतिक रूप में देखना हो तो मस्ती में झुमते हुए, नाचते हुए देखिये। तनावमुक्त, उसकी चेहरा आप कभी नहीं भूलेंगे। महिला-पुरुष मिलकर नाचते हैं, लिंग आयु का व्यवधान आदिवासी नृत्य में नहीं है। जीवन के लिए नृत्य और नृत्य के लिए जीवन को यहाँ आवश्यक माना जाता है।13

 

कक्साड़ नृत्य:-

माड़िया जनजाति का एक प्रमुख नृत्य कक्साड़ है। इस नृत्य का स्वरूप धार्मिक है। कक्साड़, ‘कर्सशब्द से निर्मित हुआ है कर्स-नृत्य में सामूहिक रूप में गाते-बजाते माड़िया अपने आंगा देव के पास पहुँचते हैं। इस नृत्य में शामिल युवक कमर से पाँव के पँजे तक घाघरा के समान लहंगा पहने रहते हैं। घाघरा के अनुरूप कमीज अंगरखा पहनते हैं। घाघर अंगरखा दोनों की किनारी का रंग लाल होता है। पगड़ी में पक्षियों के बहुरंगी पंख सजाये रहते हैं, तथा पगड़ी के साथ दर्पण, फुंदरा, फीता, कंघी आदि खोचते हैं। हाथ में कड़ा, गले में मूंगा की माला पहने रहते हैं। उस अवसर पर कमर में पहना जाने वाला पट्टा उल्लेखनीय है। लगभग पाँच किलो वजन के असंख्य छोटे-बड़े घुंघरू इस पट्टे में बंधे रहते है। नृत्य की भाव-भंगिमाओं में ये कमर के इस पट्टे को विशेष प्रकार से झटकते हैं जिससे मधुर आवाज निकलती है। वे कंधे में कुल्हाड़ी रखते हैं इसे नाचने के लिए विशेष प्रकार का बनाया जाता है।14

 

युवतियाँ अपने पोशाक में एक सफेद धोती रखती हैं जिसे कमर से घुटने तक पहना जाता है। इसके अतिरिक्त सिक्कों की माला, सूता, फुंदरा, बनुर्यांग, छल्ला आदि आभूषण हाथों और पैरों में पहनती है।

 

कक्साड़ नृत्य एक पूजा नृत्य है। गाँव के धार्मिक स्थान (देवगुड़ी) में वर्ष में एक बार कक्साड़ पूजा का आयोजन किया जाता है, जिसमें माड़िया जनजाति के लोगलिंगोदेवको प्रसन्न करने के लिए रात भर नृत्य गायन करते हैं। पुरूष कमर में घण्टी बाँधते है और महिलाएँ विभिन्न फूलों और मोतियों की माला पहनती है।15

 

अबुझमाड़ में कक्साड़ पर्व श्रृंगार पर्व है जिसकी प्रतीक्षा वर्ष भर की जाती है यह एक ऐसा पर्व है, जिसमें प्रेमी तथा प्रेमिकाओं का उन्मुक्त मिलन होता है। इस अवसर पर कई अपरिचित तथा अजनबी युवक-युवती निकट आकर एक-दूसरे को पसंद करते हैं और उनके बीच भविष्य में सुदृढ़ होने वाले प्रेम की नींव पड़ती हैं यहीं पर अधिकांश विवाहों की भूमिका बनती है लगभग 90 प्रतिशत दाम्पत्य जीवन का सूत्रपात भी यहीं से होता है।16

 

विशेषताएँ:-

नृत्य की पूरी वेशभूषा में सजने के लिए प्रत्येक नर्तक अधिक से अधिक समय लगता है। नाच की पूरी पोशाक पहिनाना, गले मेें माला-मूंगों का ढेर, सिर की पगड़ियों में मयूर अथवा मुर्गा पंखों की सजावट और कमर के नीचे बड़े-बड़े घुंघरूओं की ऐसी सजावट कि नाचने के दौरान अधिक से अधिक जोर से झन्न-झन्न की आवाज हो।17 इस तैयारी में हर नव युवक एक-दूसरे की सजावट के लिए पूरी सहायता करता है, इसके लिए हर एक को दूसरे से प्रतिस्पर्धा करनी होती है।

 

कक्साड़ नृत्य की सबसे बड़ी विशेषता तथा विचित्रता यही है कि वहाँ आकर्षण का केन्द्र युवक होता है, युवती नहीं। नृत्य के दौरान प्रत्येक नर्तक इसी बात पर प्रयत्नशील रहता है कि ज्यादा से ज्यादा आकर्षक वहीं दिखे, ताकि युवती ही आकर्षित होकर पास चली आए, नाच के लिए उसके साथ की कामना करें।18 उल्लेखनीय है कि कक्साड़ नृत्य में आस-पास के गाँवों के लोग भी अपने गाँव के आंगादेव के साथ उपस्थित रहते हैं और देव स्थल में सभी नर्तक दल समूह में नाचते-गाते सात फेरा देव स्थल का लगाकर अपने-अपने निवास स्थान में लौट जाते हैं। रात्रि भर नाच-गाना चलता है जिसमें ढोल, टिमकी, आदि वाद्य यंत्रों का प्रयोग होता है। इस समय विभिन्न प्रकार के मादक पेय सेवन किए जाते हैं।19

 

गौर नृत्य:-

गौर नृत्य या गंवर नृत्य माड़िया आदिवासियों का प्रमुख लोक नृत्य है। इस लोक नृत्य के अवसर पर माड़िया युवक सिर पर गंवर का सींग धारण करते हैं, इसी गौर सींग धारण करने के कारण ही माड़ियों की एक शाखा गौर सींग माड़िया (बायवन हार्न माड़िया) के नाम से जानी जाती है। गौर नृत्य बस्तर की पहचान बन गया है। बस्तर की माड़िया जाति अपने इस नृत्य के कारण चर्चित भी है।20 इस नृत्य को दण्डामी माड़िया शादी के अवसर पर तथा मेले मड़ई में भी करते हैं।  इस नृत्य के समय पुरूष अपने सिर पर जंगली भैंस जिसे गौर, माओं अथवा परेमा कहा जाता है की सींग को धारण करते हैं, इसीलिए इसे गौर नृत्य के नाम से जाना जाता है। युवक नर्तकों के कंधों में मांदरी होता है इसे एक ओर  डंडे से तथा दूसरी ओर हाथ से बजाते हुए नृत्य करते है। युवतियाॅ सिर पर पीतल की पट्टी धारण करती हैं तथा हाथ में लोहे की छड़ी जिसके उपरी भाग में सेंम की आकृति के खोखले फलियाॅ, लोहे की बनी बंधी होती है, छड़ी को भूमि पर पटकने से खन-खन की आवाज होती है जो युवतियों के थिरकते पैरों को और गति देती है।21

 

जात्रा नृत्य:-

इस नृत्य को माड़िया जनजाति वार्षिक पर्व के रूप में मनाते हैं। जात्रा के दौरान गाॅव के युवक-युवतियाॅ रात भर नृत्य करते हैं। इस नृत्य के समय भी माड़िया युवक गौर सींग को कौड़ियों से सजाकर अपने सिर पर धारण करते हैं और युवतियाॅ सिर पर पीतल की मुकुट पहनती हैं एवं नृत्य के दौरान  युवतियाॅ गीत गाती हुई सुन्दर मुद्राएॅ बनाती हैं।

 

गेड़ी नृत्य:-

हरेली अमावस्या के दिन गेड़ी बांस या लकड़ी को दो डण्डों में लगभग 1 फुट की ऊचाई पर बांस की खपचियों से पैर रखने के लिए पायदान बनाया जाता है, जिसे डण्डे से बांधा जाता है। इस गेड़ी पर चढ़कर नृत्य किया जाता हैं। गेड़ी युवकों का नृत्य है युवतियों का नहीं।

 

विश्लेषण एवं निष्कर्ष:-

माड़िया जनजाति के परिवार में धार्मिक उत्सव के अवसर पर नृत्य करने की परम्परा का होना

 

 

प्रस्तुत अध्ययनगत् समूह के शत प्रतिशत सर्वेक्षित माड़िया जनजातियों के परिवार में धार्मिक उत्सव अवसर पर नृत्य करने की परम्परा रही है।

 

यदि हाॅ तो इस नृत्य का विवरण

 

प्रस्तुत तालिका से स्पष्ट होता है कि 72 प्रतिशत उत्तरदाताओं के परिवार में धार्मिक उत्सव के अवसर पर कक्साड़, जात्रा, गेड़ी, गौर नृत्य किया जाता है तथा 28 प्रतिशत उत्तरदाताओं के परिवार में कक्साड़, जात्रा, गेड़ी नृत्य किया जाता है।

 

अतः उपरोक्त आॅकड़ों से स्पष्ट होता है कि अधिक उत्तरदाताओं के परिवार में धार्मिक उत्सव के अवसर पर कक्साड़, जात्रा, गौर एवं गेड़ी नृत्य किया जाता है। उत्तरदाताओं ने नृत्य को समूह में वर्णित किया हैं प्रथम समूह में कक्साड़, जात्रा, गौर एवं गेड़ी और द्वितीय नृत्य समूह में कक्साड़, जात्रा, गेड़ी है। द्वितीय नृत्य समूह में गौर नृत्य नहीं है, क्योंकि सर्वेक्षित कोहकामेटा क्षेत्र के अबुझमाड़िया गौर नृत्य नहीं करते है। जबकि पिड़ियाकोट, डंूगा, बेड़मा, आदेर, टोण्डाबेड़ा और मण्डाली के अबुझमाड़िया और दण्डामी माड़िया दोनों ही गौर नृत्य करते हैं, इसलिए प्रथम समूह की संख्या अधिक है।

 

संदर्भ ग्रंथ

1.   वर्मा, भगवानसिंह, छत्तीसगढ़ का इतिहास (प्रारंभ से 1947), मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी, भोपाल चैथा संस्करण, वर्ष 2003. पृ. 23

2.   बघेल, विजय कुमार , ‘‘बस्तर के नारायणपुर तहसील की मुरिया जनजाति का सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास’’, (1857-1965 .), वर्ष 1992, पृ. 129

3.   निरगुणे, बसन्त, लोक संसकृति, मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी, भोपाल, 2005, पृ. 92

4.   गुप्त, नत्थूलाल , विदर्भ का सांस्कृतिक इतिहास, विश्व भारतीय प्रकाशन, नागपुर, प्रथम संस्करण, 1997, पृष्ठ 57

5.   पूर्वोक्त, पृष्ठ 53

6.   उप्रेती, हरिश्चन्द्र ,भारतीय जनजातियाँ सामाजिक विज्ञान हिन्दी रचना केन्द्र जयपुर, 1970, पृष्ठ 146

7.   पूर्वोक्त, पृष्ठ 147

8.   सच्चिदानंद, प्रोफाइल्स आॅफ ट्राइबल कल्चर इन बिहार , प्रथम संस्करण, 1965, पृ. 52

9.   उप्रेती, हरिश्चन्द्र , पूर्वाेक्त, पृष्ठ 147

10. नायडू, पी.आर., भारत के आदिवासी विकास की समस्याएँ, राधापब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1997, पृ. 449

11. पूर्वोक्त, पृ. 422

12. बेहार, रामकुमार , आदिवासी बस्तर इतिहास और परम्पराएँ, जगदलपुर, 1992, पृ. 84

13. पूर्वोक्त, पृष्ठ 34

14. पूर्वोक्त, पृष्ठ 58

15. नुरूटी, चन्द्र्रेश, उम्र 30 वर्ष, मुरनार (कोहकामेटा) द्वारा दिनांक 15/03/2008 को प्राप्त जानकारी से।

16. शानी , साल वनों का द्वीप, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1967, पृष्ठ 55

17. पूर्वाेक्त, पृष्ठ 58

18. गोटा, सुन्दरी, उम्र 35 वर्ष, ओरछा, द्वारा दिनांक 5/12/2007 को प्राप्त जानकारी से।

19. बेहार, रामकुमार - पूर्वोक्त, पृष्ठ 86

20. नायडू, पी.आर. - पूर्वोक्त, पृष्ठ 449

21. कोर्राम, विजय ,उम्र 25 वर्ष ,ओरछा, द्वारा दिनांक 13/09/2007 को प्राप्त जानकारी से।

 

 

 

 

Received on 10.05.2019            Modified on 28.05.2019

Accepted on 16.06.2019            © A&V Publications All right reserved

Int. J. Rev. and Res. Social Sci. 2019; 7(2): 497-501.