छत्तीसगढ़ी लोकनाट्य नाचा का ऐतिहासिक विष्लेषण
डाॅ. अर्चना झा1, श्रीमती भगवती साहू2
1सहायक प्राध्यापक, शंकराचार्य महाविद्यालय, जुनवानी, भिलाई (छत्तीसगढ़)
2षासकीय वि.या.ता.स्वषासी महाविद्यालय, दुर्ग
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कहते हैं कि जो जातियाँ अधिक नाचती और गाती हैं, उनमें जीवन संघर्षों को झेलने की क्षमता उतनी ही अधिक होती है। यही कारण है कि सभ्यता के प्रारंभिक काल में ही लोकलाओं के उद्भव की प्रक्रिया शुरू हो गई थी। विष्व की अन्य प्राचीन सभ्यताओं के समान ही भारत की प्राचीन सभ्यता में लोकनाट्य की उत्पत्ति हो चुकी थी। छत्तीसगढ़ की संस्कृति को जीवन्तता प्रदान करने वाले लोकनाट्य नाचा भी आदि काल से वर्तमान काल तक अजस्त्र रूप में अक्षुण्ण दिखाई पड़ते हैं। नाचा के उद्भव एवं विकास के पीछे उन सृजन षिल्पियों और मेधा सम्पन्न व्यक्तियों का हाथ रहा है, जिन्होंने इस रंग शैली को अनगढ़ से सुगढ़ बनाने मेें अपना पूरा जीवन खपा दिया है। काल प्रवाह के संग इस लोकप्रिय रंग शैली में निरंतर बदलाव आते रहे।
ज्ञम्ल्ॅव्त्क्ैरू नाचा छत्तीसगढ़ी लोकनाट्य, लोककला, संस्कृति।
प्रस्तावना
मानव जीवन में अभिनव काल का अंकुर जीवन के आरंभ काल से ही प्रस्फूटित हो जाता है। वह इस विष्व रंगमंच पर एक पात्र की भांति ही पदार्पण करता है और अपने चरित्र का निर्वाह करता है। आदिम अवस्था से ही व्यक्ति अपने विविध आंगिक चेष्टाओं से मनोरंजन की प्रवृत्ति की ओर अग्रसर हुआ।
डाॅ. नर्मदा प्रसाद गुप्त के अनुसार - ‘लोकमन का जन्म तभी हुआ जब लोक बना और लोक तभी बना, जब मानव ने लोक के बारे में सोचना शुरू किया।
पहले बहुत छोटे-छोटे समूह थे, फिर धीरे-धीरे कई समूह एक साथ गुुफाओं मंे रहने लगे। जैसे ही खेती करना शुरू हुआ मैदानों में बस्ती बसने लगी। गुफा और कृषि युग दोनों में लोकदर्षन का स्वरूप जागृत रहा है। गुफा युग में उसका आधार रक्षा और भय का समाधान है, जबकि कृषि युग में सृजन और संवर्धन की समस्या।‘1
श्रम से क्लांत व्यक्ति मनोरजंन के साधन जुटा ही लेता है, व्यक्तिगत तौर पर या फिर सामुदायिक तौर पर। लोक की यह विषिष्टता है कि उसमें किसी प्रकार की कोई कृत्रिमता या दिखावे के लिये कोई स्थान नहीं होता। वह सीधे-सीधे अपनी अभिव्यक्ति को सहज सरल ढंग से विविध कला माध्यमों से अभिव्यक्त करता है।
लोक कला के क्षेत्र में छत्तीसगढ़ अंचल की पृथक पहचान है। हम इन्हें यूं ही धान का कटोरा नहीं कहते अपितु लो कलाओं की पुण्य सरिता अपनी लहरों सहित विविध रूपों में प्रवाहित होकर जनरंजन करती है। लोककला मानव जीवन का अविच्छिन्न अंग है। जीवन के समस्त व्यपारों में लोककला किसी न किसी रूप में विद्यमान है।
भरतमुनि ने अपने ‘नाट्यषास्त्र‘ में स्वतंत्र रूप से लोकनाट्यों के विषय में कोई बात नहीं कही है, किन्तु उन्होंने नाट्य की लोकधर्मी रूढ़ियों का वर्णन अवष्य किया है। छत्तीसगढ़ी लोकनाट्य ‘नाचा‘ को षिष्ट लोक भले ही हेय दृष्टि से देखें या फिर लोक कलाकारों ने भरतमुनि का नाट्यषास्त्र पढ़ा हो, या न पढ़ा हो पर यह सुनिष्चित है कि नाट्यषास्त्र के प्रणेता भरतमुनि ने रचना से पूर्व लोकनाट्य अवष्य देखे होंगे और उससे ही प्रेरित होकर उन्होंने नाट्यषास्त्र की रचना की होगी।
छत्तीसगढ़ में नाचा के इतिहास को सैकड़ों वर्ष पुराना मान सकते हैं, क्योंकि लोक चेतना और लोक परम्पराओं के दर्षन यहाँ के निवासी आदिकाल से ही करते आ रहे हैं। हमारे संस्कृत वाग्यमय में ‘लोक वेदेच‘ कहकर वेद से पहले लोक को स्थान देकर ‘लोक‘ को महत्ता प्रदान की है। छत्तीसगढ़ में नाचा शैली लोकप्रिय विधा की शुरूआत कहाँ से हुई, इसका विकास कैसे हुआ यह जानने की तीव्र इच्छा बलवती हो उठती है। छत्तीसगढ़ में नाट्य के इतिहास को जानने के लिए भारतीय जन-जीवन में नाट्य के इतिहास का अध्ययन किया जाये जो उसके मूल में कहीं न कहीं छत्तीसगढ़ी लोकनाट्य ‘नाचा‘ का अस्तित्व अवष्य मिलेगा।
नाचा का आविर्भाव भी अपनी मर्यादित शैली में मनोरंजन करने के उद्देष्य से ही प्रतीत होता है। काल ने प्रत्येक क्षेत्र में अपनी उपस्थिति मात्र दर्ज नहीं की, वरन् उसे अपने प्रवाहानुकूल बनाने की चेष्टा भी की है। छत्तीसगढ़ की यह लोकप्रिय रंग शैली ‘नाचा‘ भी समय के स्पर्ष से अछूता नहीं है।
विमल कुमार पाठक के अनुसार नाचा के विकास क्रम को चार चरणों में विभाजित कर सकते हैं:-
1. आदिकाल (प्रारंभ से 1930 तक)
2. उत्कर्ष काल (1931 से 1950 तक)
3. संघर्ष काल (1951 से 1970 तक)
4. प्रतिस्पर्धा काल (1971 से अब तक)
1. आदिकाल (प्रारंभ से 1930 तक) - नाचा के प्राचीन इतिहास से भले ही हम अपरिचित हों, यह अलग बात है, लेकिन मन में यह प्रष्न उठता है कि, क्या छत्तीसगढ़ मंे नाचने-गाने की प्रवृत्ति केवल सौ - दो सौ साल ही पुरानी होगी ? नाचा के इतिहास को सौ - दो सौ वर्षों तक सीमित करना लोकनाट्य के प्राचीन इतिहास, उसके उद्भव व विकास के सिद्धांत को गलत सिद्ध करना होगा।
हाँ यह अनुमान अवष्य लगाया जा सकता है कि पिछले सौ - दो सौ वर्षाें में नाचा के विकास में क्रमिक गति आई होगी।
नाट्यषास्त्र के रचयिता ने आज से लगभग 2000 वर्ष पूर्व नाट्यषास्त्र की रचना की होगी तब उस समय भी नाट्य रूप समाज में जनरंजन के लिये उपलब्ध रहे होंगे। उन्हीं के आधार पर अपने नाट्यषास्त्र में नियम, उपनियम, विधान आदि बनाकर उनका आंकलन किया गया होगा। सर्वहारा वर्ग के बीच खेले जाने वाले नाटकों को लोकनाट्य व श्रेष्ठि वर्ग या उच्च सामाजिकों के लिये षिष्ट नाट्य या संस्कृत नाट्य में विभाजित किया गया होगा।
डाॅ. शैलजा चन्द्राकर नाट्यषास्त्र में उल्लेखित अनेक बातों को नाचा में आत्मसात किये जाने के संबंध में प्रकाष डालते हुए लिखती हैं कि ‘‘नाचा को देखने और भरतमुनि के नाट्यषास्त्र का अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि उद्देष्य, वृत्तियाँ, भाषा, पात्र, संगीत, नृत्य संयोजन आदि पर जो स्पष्ट निर्देष भरतमुनि ने दिये हैं, उनका पालन नाचा में बखूबी किये जाते रहें हैं और किये जाते रहेंगें।‘‘2
प्रारंभिक छत्तीसगढ़ी जनजीवन कबीला संस्कृति से प्रभावित था। मनोरंजन के साधन नहीं के बराबर थे, किन्तु गीत व नृत्य के माध्यम से जनरंजन की प्रवृत्ति तो सनातन है। कुछ जाति विषेष के लोग अनपढ़ व निरक्षर होते हुए भी कला में कुषल व दक्ष थे। उन्हें ताल, छंद, मात्रा, बोल का विषेष ज्ञान था। उनके द्वारा प्रस्तुत संगीत मंे शास्त्रीय नियमों का परिपालन होता था।
लोक कलाएँ समाज विकास के एक निष्चित सोपान में पल्लवित होती हैं - आधुनिकता के स्पर्ष से सर्वथा दूर। लोकजीवन में प्रकृति की निकटता, उसकी सहजता और उसकी सीमा ही उसकी पहचान होती है। सरगुजा से लेकर डांेगरगढ़ और कवर्धा से लेकर बस्तर तक की विस्तृत धरती में यहाँ के ग्राम्यजनों एवं आदिवासियों में अभिनय कला का निरन्तर विकास होता रहा है।
छत्तीसगढ़ की मूल आदिमजातियों ने ‘गाड़ा जाति‘ द्वारा विषिष्ट वाद्य गाड़ा बाजा के साथ परियों के गीत, नृत्य का आनन्द यहाँ के लोग लम्बे अरसे से लेते आ रहे हैं। नाचा में गम्मत के योग से यह जरूर कहा जा सकता है कि नाचा गम्मत को अठारहवीं सदी में मराठों के आगमन के पष्चात् छत्तीसगढ़ के जन समुदाय ने आत्मसात किया। चुटीले व्यंग्यात्मक संवाद लोकरंजन के साथ षिक्षाप्रद होते थे। इसीलिए समुदाय द्वारा गम्मत को सहज रूप में ही स्वीकार किया गया।
डाॅ. पीसी लाल यादव नाचा की उत्पत्ति के सम्बन्ध मंे लिखते हैं - ‘कुछ विद्वान नाचा की उत्पत्ति का उल्लेख सतनामी नाचा से करते हैं जो खड़े साज के रूप में प्रचलित था।‘3
साजिन्दे खडे़ होकर साज को कमर में बांधकर बजाते थे। परी, जोक्कड़ और मषालची गोल घेरे में नाच गाकर मनोरंजन करते थे। कालान्तर में कई और साज का समावेष नाचा के विकासक्रम को रेखांकित करने के लिए आवष्यक है, जिसमें ‘देवारिन साज‘ प्रमुख है। अंचल के जमींदारी, मालगुजारी, गोंटिया सामंती प्रभाव से विमुक्त नहीं थे। वे अपने मनोरंजन के लिये घुमन्तु किन्तु कला प्रवीण देवार नृत्यांगनाओं को विषेष अवसरों पर आमंत्रित करते थे। कुछ नाचा प्रेमी मालगुजारों की नाचा मंडली थी। नाचा में देवार बालाओं का प्रवेष अपने आप में एक नया परिवर्तन था। इसी परिवर्तन का परिणाम है कि, आज नाचा मंडलियों और सांस्कृतिक लोककला मंचों में देवार बालाओं के साथ ही अन्य जाति की लड़़कियाँ भी सगर्व अपनी सहभागिता प्रदान कर रही हैं।
महावीर अग्रवाल नाचा के विकास पर प्रकाष डालते हुए कहते हैं कि ‘सन् 1927-1928 तक छत्तीसगढ़ मंे कोई संगठित नाचा पार्टी नहीं थी। कलाकार गांवों में रहते थे, किन्तु संगठित पार्टी के रूप मंे नहीं थे। आवष्यकता पड़ने और बुलाने पर कलाकार कार्यक्रम देने के लिये जुड़ जाते थे।‘4 छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति का एक विषिष्ट स्थान है। लोक नृत्य करते कलाकारों के थिरकते पाँव व पारंपरिक वाद्य यंत्रों पर थिरकती उंगलियों से उपजी लोक धुनों का एक अलग ही आनन्द है।
छत्तीसगढ़ी बोली में हास-परिहास को समेटते हुए नृत्य और गीतों के साथ नाटक प्रस्तुत करने की विधा को इस अंचल में सबसे पहले रवेली के दाऊ दुलार सिंह ‘मंदरा जी‘ ने व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया। सन् 1930 के पूर्व अनेक अज्ञात कलाकार इतिहास के गर्त में चले गये, जो हजारों गायक व वादक कलाकारों के प्रेरणा स्त्रोत हैं। दाऊ दुलार सिंह ‘मंदरा जी‘ ने पहली बार लोक कलाकारों को संगठित कर व्यवस्थित नाचा मंडली रवेली नाचा पार्टी बनाया जिसमें सुकलू ठाकुर, नोहरदास, रामगुलाम निर्मलकर व स्वयं दाऊ जी प्रमुख कलाकार थे। धीरे-धीरे बुधराम देवदास, पंचराम देवदास, लालूराम, जगन्नाथ निर्मलकर, फागूदास मानिकपुरी जैसे नामी कलाकार पार्टी से जुड़ते रहे।
2. उत्कर्ष काल (1931 से 1950 तक) - प्रारंभिक दौर में मंच विधान या अन्य कोई ताम झाम नहीं होता था। कलाकार मुक्ताकाषी मंच पर अपनी शानदार जोकरई, जानदार अभिनय, गायन, अपने नृत्य, अपनी अदा और वाद्य वादन की खूबियों के कारण दर्षकों के द्वारा सर माथे पर बिठाये जाते थे। न कोई विषेष पारिश्रमिक, न कोई उपहार, न कोई इनाम, लालायित कलाकार अपनी प्रतिभा के प्रदर्षन हेतु आतुर रहा करते थे। नाचा को गौरवान्वित करने वाले इन कलाकारों का योगदान, उनकी तपस्या और लगन को कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता।
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पहली सुगठित नाचा पार्टी के प्रभाव स्वरूप कई सामथ्र्यवान कलाकारों ने पार्टियाँ बनाईं, जिसमें नंदगैइहा नाचा पार्टी, कुरूद नाचा पार्टी, राजिम नाचा पार्टी, रिंगनी नाचा पार्टी, धरमलाल कष्यप नाचा पार्टी, पलारी साज, कोनारी साज, दोनर साज उल्लेखनीय हैं।
समयानुसार नाचा की कला के स्वरूप में परिवर्तन अनेक उपलब्धियों के साथ हुई। जिसमें चिकारा के स्थान पर हारमोनियम, मषाल के स्थान पर पेट्रोमैक्स बत्ती का उपयोग एवं खड़े साज के स्थान पर बैठे साज का चलन होने लगा। जन आन्दोलन की भावना को जन-जन तक पहुँचाकर राष्ट्रीय भावना, देषप्रेम से ओत-प्रोत गीत व गम्मत प्रस्तुत किये जाने लगे।
4. संघर्ष काल (1951 से 1970 तक) - नामधारी पार्टियों के टूटने व नयी पार्टियों द्वारा रंगमंचीय सुविधाएँ एवं अधिक लाभ प्राप्त करने की लालसा में नाचा जैसे कलात्मक क्षेत्र में घुसपैठ कर इसे व्यावसायिक बनाने के प्रयास में लगे रहे। जिसके कारण यह क्षेत्र भी कलुषित हुआ। दाऊ रामचन्द्र देषमुख द्वारा वर्ष 1951 में ‘छत्तीसगढ़ी देहाती कला विकास मण्डल‘ की स्थापना के साथ ही नाचा के परिष्कृत और उसे सामाजिक दायित्व बोध से जोड़ने का आदर्ष रूप प्रस्तुत करने का निष्चय उल्लेखनीय कदम था। नाचा को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्रदान करने में रंग निर्देषक हबीब तनवीर की भूमिका महत्वपूर्ण रही। जिन्होंने ‘रिंगनी रवेली नाचा पार्टी‘ के ठाकुर राम, लालूराम साहू, मदन निषाद, भुलवा राम, जगमोहन और षिवदयाल जैसे उच्च कोटि के कलाकारों को ‘हिन्दुस्तानी थियेटर‘ में सम्मिलित करने हेतु दिल्ली बुलाया। डाॅ. शैलजा चन्द्राकर लिखती हैं कि - ‘‘छत्तीसगढ़ के तीसों कलाकार सन् 1958 से लेकर 1999 की अवधि तक उनके साथ रहे।‘‘5 इस दौर में प्रसिद्ध नाचा पार्टियाँ आई। उनमें भेड़ी कला नाच पार्टी, टेड़ेसरा नाच पार्टी, रायखेड़ा साज, मटेवा साज, फुड़हर नाचा पार्टी, गुरूदत्ता नाचा पार्टी, सेमरिया वाले मानदास टंडन नाचा पार्टी ने अपने उत्कृष्ट प्रदर्षन के द्वारा नाचा की प्रतिष्ठा में चार चांद लगाया।
5. प्रतिस्पर्धा काल (1971 से अब तक) - परिवर्तन और विकास के इस दौर मंे प्रतिस्पर्धा बढ़ी। फलस्वरूप कलाकारों की संख्या मंे वृद्धि, रंगमंचीय ताम-झाम, अत्याधुनिक वाद्य यंत्र, ध्वनि, प्रकाष व्यवस्था, वेषभूषा मंे बदलाव एवं प्रदर्षन में फूहड़ता हावी होने लगी। सन् 1971 में दाऊ रामचन्द्र देषमुख के ‘चंदैनी गांेदा‘ नामक नाटक को अभूतपूर्व सफलता मिली। इससे प्रभावित होकर दाऊ महासिंग चन्द्राकर ने ‘सोनहा बिहान‘ नामक छत्तीसगढ़ी नाटक बनाया। यह भी काफी लोकप्रिय रहा।
मोेहारा नाचा पार्टी, ब्रम्हा विष्णु नाचा पार्टी, जय संतोषी नाचा पार्टी, संत समाज नाचा पार्टी हरडुवा, संतोषी नाचा पार्टी लाटाबोड़, लखोली नाच पार्टी जैसी अनेक नाचा पार्टिया सीमित परिवेष में अपने समीप के गाँव में जन मन रंजन करती रही हैं।
हबीब तनवीर ने ‘ चरनदास चोर‘, ‘गाँव के नाव ससुराल, मोर नाव दमाद‘, ‘बहादुर कलारिन‘, ‘मिट्टी की गाड़ी‘, ‘सोन सरार‘ जैसे नाटकों के माध्यम से दुनिया में छत्तीसगढ़ी नाटकों को अमरता प्रदान की।
निष्कर्ष - नाचा के उद्भव से लेकर अब-तक अनेक परिवर्तन हुए। प्रारंभ के कलाकारों को नाचा के प्रति समाज के उच्च जाति एवं बौद्धिक वर्ग में ललक पैदा करने के लिये कड़ी मेहनत करनी पड़ी। नाचा ने लोगों में सांस्कृतिक चेतना पैदा की। नाचा की कला यात्रा में ऐसे अनगिनत अनाम पुरखों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता, जिन्होंने छत्तीसगढ़ की संस्कृति को सुवासित एवं गौरवान्वित करने में महती भूमिका अदा की।
नाचा लोकरंजन हेतु गीत, संगीत और अभिनय के द्वारा समाज की ज्वलंत समस्याओं को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत कर युगानुरूप विविध परिवर्तनों के साथ अपने प्रारंभिक स्वरूप को आज भी संजोए रखने में सफल रहा है। मंचीय व्यवस्था, वेषभूषा, साज सज्जा सब में परिवर्तन हुआ है। यदि कुछ नहीं बदला है तो वह है कलाकारों के तात्कालिक चुटीले अंदाज में व्यग्यात्मक संवाद। वैष्विक बाजार में मनोरंजन के अनेकों साधन उपलब्ध होने के बावजूद नाचा की प्रासंगिकता तब भी थी, अब भी है और आगे भी रहेगी।
संदर्भ स्त्रोत -
1. गुप्त, नर्मदा प्रसाद, चैमासा, अंक 16 जुलाई - अक्टूबर 88
2. चन्द्राकर, शैलजा, छत्तीसगढ़ी लोकनाट्यों में शास्त्रीय तत्व।
3. यादव, पीसीलाल, गम्मत, 1999 पृष्ठ 83
4. अग्रवाल, महावीर, छत्तीसगढ़ी लोकनाट्य नाचा, श्री प्रकाषन दुर्ग, पृष्ठ 999
5. चन्द्राकर, शैलजा, छत्तीसगढ़ी लोकनाट्यों में शास्त्रीय तत्व।
Received on 10.05.2019 Modified on 20.05.2019
Accepted on 30.05.2019 © A&V Publications All right reserved
Int. J. Rev. and Res. Social Sci. 2019; 7(2):595-598.