शहरी असंगठित क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं की आर्थिक स्थिति का विश्लेषणात्मक अध्ययन (सतना जिले के विशेष संदर्भ में)

 

विनीता मोंगिया

शोधार्थी (वाणिज्य) शास. ठाकुर रणमत सिंह महाविद्यालय, रीवा (.प्र.)

*Corresponding Author E-mail:

 

ABSTRACT:

भारत की सामाजिक मान्यताओं के अनुसार महिला का स्थान एवं कार्यक्षेत्र घर की चहरदीवारी तक ही सीमित है, किन्तु आदिकाल से ही वह पुरुषों से आवश्यकता पड़ने पर पीछे नहीं रही। विकसित देशों में महिलाओं पुरुषों के साथ बना भेदभाव के कार्य करती रहती है, जबकि भारत जैसे विकासशील देश में प्रयासरत है। शिक्षा प्रशिक्षण एवं आवश्यक दिशा निर्देश जैसे-जैसे महिलाओं में विकसित हो रहा है। क्रमशः कृषि, पशुपालन के अतिरिक्त औद्योगिक एवं अन्य क्षेत्रों में भी महिला श्रमिकों की भागीदारी बढ़ी है।’’श्रमिक महिलाएं प्रायः असंगठित क्षेत्रों में अधिक पाई जाती है। उनमें शहरी एवं ग्रामीण दो प्रकार के परिवेश उनके कार्य क्षेत्र के अन्तर्गत आते है। शहरी एवं ग्रामीण कार्यो में भी अंतर पाया जाता है। इस कारण महिलाएं कार्य के अनुसार शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में विभाजित हो गई है। असंगठित क्षेत्र जहाँ श्रमिकों की कार्य दशाएं अनिश्चित होती है श्रम कानून भी असंगठित क्षेत्र में लागू नहीं होता है। इस कारण असंगठित क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं की आर्थिक स्थिति में काफी विसंगतिया पाई जाती है। सतना जिला एक औद्योगिक जिला है। यहां अनेक औद्योगिक इकाइयाॅ स्थापित है। साथ ही असंगठित क्षेत्र भी औद्योगिक क्रियाओं में संलग्न है। वहां की महिलाओं की आर्थिक स्थिति काफी उलझी हुई है। जिसका विश्लेषणात्मक अध्ययन करना इस शोध का प्रमुख उद्देश्य है।

 

KEYWORDS: महिला श्रमिक, असंगठित क्षेत्र, आर्थिक स्थिति

 

 


INTRODUCTION:

मानव-जीवन के प्रारम्भिक सोपान पर किसी भी व्यक्ति के विकास उसके भावी जीवन का सशक्त आधार स्तम्भ होता है। देश एवं समाज का भविष्य बहुत कुछ देश के कार्यरत महिलाओं के समुचित संरक्षण और विकास पर निर्भर करता है। कार्यरत महिला केवल राष्ट्र की धरोहर हैं बल्कि भावी कर्णधार भी हैं और इस आयु में संग्रहीत मूल्यों एवं कौशल के आधार पर व्यक्ति भविष्य में एक खुशहाल परिवार, स्वस्थ समाज तथा सशक्त राष्ट्र के निर्माण में सकारात्मक योगदान करती हैं। इसी महत्ता के कारण लोक कल्याणकारी और प्रजातांत्रिक सरकारों द्वारा कार्यरत महिलाओं का विकास राष्ट्र की पहली प्राथमिकता होती है। वैसे तो महिलाओं की एक अन्तर्राष्ट्रीय समस्या है और इस समस्या से कोई भी देश अछूता नहीं है। लेकिन हमारे देश में यह एक ज्वलंत समस्या और विकास के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। स्वतंत्रता के 70 वर्षाें के बाद भी महिलाओं का शोषण तथा महिला का नियोजन बदस्तूर कायम है। नारियों में समानता की भावना विकसित करने एवं चेतना जागृत करने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा वर्ष 1975 को अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष की घोषणा की गई। आज समाज के प्रत्येक क्षेत्र मे ंमहिलाओं की भागीदारी देखी जा सकती है। फिर भी भारत जैसे पुरुष प्रधान देश में महिलाओं की आकांक्षाओं को सामाजिक बंधन के कारण साकार रूप नहीं मिल सका है। आर्थिक तंगी के कारण महिलाओं को मानसिक श्रम के अलावा शारीरिक श्रम भी करने को बाध्य होना पड़ता है, जिसके लिये उनकी अशिक्षा, प्रशिक्षण और दिशा निर्देश का अभाव है। अंततः महिलायें कई तरह के शारीरिक श्रम कार्य जैसे कि भवन निर्माण कार्य में बतौर श्रमिक कार्य करने के लिये विवश होती है, जिसके लिये पढ़ाई और योग्यता की जरूरत नहीं होती है। महिला श्रमिकों के श्रम को कई तत्व प्रभावित करते हैं। जिसका प्रभाव उनकी कार्यक्षमता पर पड़ता स्वाभाविक है। महिला श्रमिकों को कठोर शारीरिक श्रम करना पड़ता है, जिसमें कई कठिनाइयाँ आती है। भारतीय समाज में महिला-पुरुष दोनों को समान दर्जा प्राप्त , फिर भी पढ़ी-लिखी स्वावलम्बी महिला को तो भारतीय समाज ने बराबरी का दर्जा दिया है और स्वयं महिला को खुद को बराबर समझने की मानसिकता बन पाई है।

 

पूर्व शोध की समीक्षा:-

शहरी क्षेत्र के असंगठित क्षेत्र में महिलाओं की कार्य दशाएं एवं महिलाओं के रहन सहन पर म्तदमेज (1987) एवं च्तवउचनदतजीनउ - ज्ञमतकचवस (1985) ने प्रकाश डाला है। च्ंकउपदप (1987) ने त्रिवेन्द्रम में लिंग आधारित क्षेत्र पर अध्ययन किया। जबकि क्पहीम (1985) एवं ज्ञंसचंहंउ (1987) ने शहरी असंगठित क्षेत्र के संदर्भ में महिला श्रमिकों के महत्व भूमिका पर चर्चा की। विभिन्न विद्वानों ने शहरी असंगठित क्षेत्र में कार्यरत महिला श्रमिकों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि का अध्ययन किया यथा -छपन्ं रू 1987 डं्रनउकंतरू 1990 ैींू रू 1984 ज्तपचंजीप - क्ंे रू 1991 ज्पूंतप रू 1989 स्ंसपजीं रू 1999 न्ददप - त्ंदप रू 1999 अनेक अध्ययनों ने विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं में शहरी असंगठित क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं का अध्ययन किया, जैसे खारतूम एवं नागर (1988) पाकिस्तान के खान (1982) एवं बिल्गूजस एवं हामिद (1988) ळपसइमतज एवं ळनहसमत (1982) ने किया। असंगठित महिला श्रमिकों के लिए संगठनात्म तत्वों की चर्चा। तमं ैपदही (1978), त्ंरनसं क्मअप (1985), ैंतअं (1981) वं ब्ीमत (1989) आदि ने प्रस्तुत किया।

 

स्मअपे (1959) ने अपने प्रवासन सिद्धांत में व्यवस्था दी कि, ग्रामीण जीविका क्षेत्र के शहरी औद्योगिक क्षेत्र में श्रम का प्रवाह स्थिर मजदूरी दर पर पूर्णतया लोचदार होगी जबकि ळवकतिमल (1973) ने इसके विपरीत निष्कर्ष अपने घाना अध्ययन में प्रापत कियां वहीं प्स्व् (1972) का विचार था कि श्रम केवल संगठित क्षेत्र रोजगार वरन् असंगठित क्षेत्र रोजगार भी ग्रामीण प्रवासन के लिये पे्रेरक होते हैं। बनर्जी (1986) ने पाया कि आधे से ज्यादा ग्रामीण शहरी असंगठित क्षेत्र प्रवासन में घनिष्ठ संबंध होता है एवं नगरी असंगठित क्षेत्र में प्रवासियों की भागीदारी, रायपुर नगर में 54.5 प्रतिशत (क्पूंद रू1995रू 63) विशाखापट्टनम में 46 प्रतिशत (राजू 1989, श्रीरामामूर्तिः1986); अहमदाबाद में 55 प्रतिशत (पापुला:198117), सम्बलपुर में 61 प्रतिशत (सामल 1990:65) एवं कानपुर में 60 प्रतिशत (तिवारीः1990: 234) थी। अन्य अर्थव्यवस्थाओं के नगरों में भी प्रवासियों का प्रतिशत 14 प्रतिशत से 95 प्रतिशत तक पाया गया (आयरिसः 1981; 9; डंतहम: 1981: 10; सांचेज अन्य: 1981: 146; मोआर: 1981: 110) आदि ने अनेक अध्ययनों में शहरी असंगठित क्षेत्र के विकास हेतु योगदान पर प्रकाश डाला गया है साथ ही साथ इसे अर्थव्यवस्था के विशेषकर निर्धन या साधनहीन लोगों के एिल भावी विकास की सम्भावनआों के क्षेत्र के रूप में चिन्हित किया गया है। खान (1987) ने शहरी असंगठित क्षेत्र के मानव संसाधन के विकास में योगदान को चित्रित किया गया हैं जबकि ल्यूबर्न (1990) ने इस क्षेत्र के राष्ट्रीय आय, रोजगार सृजन एवं कौशल संवर्धन संबंधी महत्व को चित्रित किया है। सिनपिंग यू (1985) का मानना था कि अन्य क्षेत्रों में स्थिति अच्छी होने पर भी शहरी असंगठित क्षेत्र में रोजगार का सृजन उत्साहवर्धक था। वर्मन (1976) ने नगरीय असंगठित क्षेत्र को विकास हेतु महत्वपूर्ण माना है। हिटिंग (1986) ने इस क्षेत्र के रोजगार एवं आय सृजन क्षमता के मूल्यांकन का प्रयास किया। अर्निन (1992) का निष्कर्ष था कि आर्थिक गिरावट के काल में शहरी असंगठित क्षेत्र जहां अर्थव्यवस्था के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होता है वहीं आर्थिक समृद्धि के काल में इस क्षेत्र की रोजगार सृजन की क्षमता काफी बढ जाती है। जबकि इंजो मैनगोइन (1984) ने शहरी असंगठित का अध्ययन विकास आधुनिकीकरण एवं शहरीकरण के परिपे्रेक्ष्य में किया। ब्रोम्ले और गैरी (1979) का मत है कि शहरीकरण असंगठित क्षेत्र केवल स्थानीय संसाधनों पर आश्रित होता है वरन् यह अनुपयोगी वस्तुओं के पूर्ण प्रयोग हेतु भी महत्वपूर्ण होता हैं। सेथूरामन (1981) का मत है कि शहरी विकास की प्रक्रिया मे शहरी असंगठित क्षेत्र को अपनी भावी भूमिका निभानी अभी शेष है।

 

उद्देश्य एवं उपयोगिता:-

श्रमिक महिलाओं के शोषण की जिम्मेदारी हमारे समाज की है और यदि समाज उनकी समस्याओं को ध्यान दे, तो यह भी सम्मानपूर्वक, अधिकार पूर्ण जीवन जी सकती है। भारत में अनेक कानूनी प्रावधान है, फिर भी श्रमिक महिलाओं के शोषण की चर्चाएं गोष्ठी एवं पत्र - पत्रिकाओं में होती है। महिला श्रमिकों का आर्थिक, शारीरिक शोषण होने पाये, इसके लिये इतने कानून बने हैं, फिर भी महिलाओं के श्रम शोषण की प्रक्रिया में कोई सुधार नहीं दिख रहा है, पुरुष श्रमिकों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर बराबर से श्रमिक महिलायें भी कार्य करती हैं। आजकल भवन निर्माण का कार्य निरन्तर हो रहा है, जिसमें अनेक ग्रामीण महिलायें कार्यरत हैं। श्रमिक महिलाओं को भवन निर्माण जैसे कठिन काय में अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इन श्रमिक महिलाओं का शारीरिक, आर्थिक सामाजिक, शोषण निरन्तर हो रहा है और इनकी समस्याओं को कोई सुनने वाला है और ही समस्याओं का समाधान करने वाला है। इन्हें किसी प्रकार की कोई सरकारी सहायता प्राप्त नहीं है। इन उपरोक्त पक्षों को ध्यान में रखकर प्रस्तुत अध्ययन उद््देश्य इस प्रकार निश्चित किया गया है-

1.     महिला श्रमिकों की विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित समस्याओं का अध्ययन करना।

2.     श्रमिक महिलाओं पर हो रहे शारीरिक, आर्थिक सामाजिक शोषण का अध्ययन करना।

3.     महिला श्रमिकों के समाज में स्थान का एवं परिवार में स्थान का अध्ययन करना।

4.     महिला श्रमिकों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करना।

5.     महिला श्रमिकों को जागरूक कर समाज में बराबरी के दर्जे में खड़ा करना

6.     महिला स्वरोजगार मूलक योजनाओं हेतु सरकार द्वारा प्रदान किए गए अनुदानों की व्याख्या करना।

7.     महिला स्वरोजगार मूलक योजनाओं से सम्बन्धित वैधानिक पहलुओं को सामने लाना।

8.     महिलाओं की आर्थिक, सामाजिक स्थिति और समाज में उनकी हैसियत को उठाने के लिये आर्थिक आत्मनिर्भरता के साधन के रूप में विकसित करना आदि।

9.     शहरी असंगठित क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं के लाभान्वित परिवारों के आर्थिक विकास की दर प्राप्त कर उसकी समीक्षा करना।

10.    शहरी असंगठित क्षेत्र में उद्योगों में कार्यरत महिलओं के लिए चलाई जारी वेल्फेयर की योजनाएँ तथा इन योजनाओं के क्रियान्वयन के फलस्वरूप पड़ने वाले आर्थिक प्रभावों की विवेचना करना।

 

शोध प्रविधि:-

ज्ञान के क्षेत्र में शोधकार्य अपरिहार्य है। वर्तमान युग में शोध का अत्यधिक महत्व है, क्योंकि किसी भी क्षेत्र में संबंधित तथ्यों का प्रमाणीकरण, नवीनीकरण एवं सत्यापन शोध के द्वारा ही किया जा सकता है।

 

विकास के इस धरातल पर भी देश के कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ विकास की गति धीमी है। ऐसे ही क्षेत्रों में से एक अपना शहरी क्षेत्र सतना जिला भी है जहाँ प्राकृतिक भू-बनावट के कारण भूजल की पर्याप्त है। भू-जल स्तर निरन्तर नीचे की ओर अभिमुख है बढ़ती जनसंख्या ने वनों के स्वरूप को विखंडित कर दिया है। अतः ऐसे क्षेत्रों के विकास के लिए सरकारी स्तर पर किये जा रहे प्रयासों के साथ एक ऐसे असंगठित क्षेत्र के साथ कार्यरत महिला श्रमिकों के गुणात्मक विकास की जो भी सुविधाएं प्राप्त हो रही हैं, उन्हीं के द्वारा विकास कर सके। असंगठित क्षेत्र के विकास की उक्त भावधारा संचालित एक ऐसे ही सुन्दर स्वरूप है, जो अपने कार्यक्रमों द्वारा सतना जिले के असंगठित क्षेत्र के विकास हेतु संलग्न है।

 

असंगठित क्षेत्र के विकास संबंधित कार्यालयों, अधिकारियों स्थानीय स्तर से सम्पर्क कर प्रश्नावली, अनुसूची, साक्षात्कार विधि तथा आंकड़ों का संग्रहण किया जाएगा। आंकड़ों का संग्रहण में सर्वेक्षण, निरीक्षण, साक्षात्कार विधियाँ के साथ आरेख एवं तालिकाओं की सहायता ली जाएगीं। असंगठित क्षेत्र के उद्योगों से जुड़ी अनेकों योजनाएं तथा सूचनाएं आंकड़े, प्राप्त किए जाएंगे। सतना जिले के असंगठित क्षेत्रमें मूल रूप से कार्यरत महिला श्रमिकों के रूप में जीवन-यापन की पूर्ति हेतु सम्पूर्ण रोजगार उपलब्ध कराने की योजना है। जिससे क्षेत्र के गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों को आसानी से रोजगार तथा आय के स्थायी इन्तजाम हो सकें।

 

उपकल्पना:-

चिंतन और जिज्ञासा मानव की दो, मूल प्रवृत्तियां हैं और इसके वैज्ञानिक आधार केन्द्र बिन्दु भी हैं उपकल्पना सामाजिक शोध की प्रथम सीढ़ी है। शोध कार्य प्रारंभ करने के पूर्व शोध के कारणों समस्याओं के सामाधान एवं परिणाम के बारे में हम जो एक निश्चित रूपरेखा बना लेते हैं उसे उपकल्पना कहते हैं।

 

प्रस्तुत अध्ययन में परीक्षण के लिए निम्न उपकल्पनाओं का पालन किया गया है-

1.     परिवार में आर्थिक तंगी।

2.     अत्यधिक सदस्य होने के कारण मूलभूत सुविधा में जुटाने के कारण।

3.     शिक्षा, प्रशिक्षण तथा दिशा-निर्देश की कमी।

4.     श्रमिकों के लिये शैक्षणिक योग्यता का होना।

5.     परिवार के पुरुष प्रायः नशे धैनी लत में लिप्त होने के कारण महिलायें श्रमिक हो जाती हैं।

 

अध्ययन का क्षेत्र एवं शोध प्रारूप -

विन्ध्य का गौरव सतना उत्तरी पूर्व मध्यवर्ती क्षेत्र में स्थित है सतना नगर का कुल क्षेत्रफल 11187.70 हेक्टेयर पर फैला हुआ है तथा इसकी नगर पालिका की सीमा 7186.20 हेक्टेयर पर फैला है। नगर पालिका की दृष्टि से 45 वार्ड बने हुए है सतना की औद्योगिक नगरी के रूप में विश्वमान चित्र पर पहचान मिल चुकी है। 229307 आबादी वालले इस नगर में सात बड़ी औद्योगिक इकाइयों समेत कई छोटे मोटे लघु उद्योग इकाइयाँ स्थापित हैं। जिले का कुछ क्षेत्रफल 7495 वर्ग कि.मी. है, जो कि मध्यप्रदेश के मूल भौगोलिक क्षेत्रफल का 1.8 प्रतिशत है। जनसंख्या की दृष्टि से सतना जिला मध्यप्रदेश में औसत से आगे है। 2011 की जनगणना के अनुसार कुल जनसंख्या 2228935 है, जिसमें पुरूषों की संख्या 1157495 तथा महिलाओं की संख्या 1071440 है। सतना जिले में जनसंख्या का घनत्व 297 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है। जिले की साक्षरता प्रतिशत 72ण्26 प्रतिशत व्यक्ति शिक्षित है जिसमें पुरूष का साक्षरता प्रतिशत 81ण्37 एवं महिलाओ का साक्षरता प्रतिशत 62ण्45 है।1

 

तथ्यों का सारणीयन विश्लेषण एवं व्याख्या -

शोधार्थी द्वारा किया गया कोई भी शोघ कार्य सही अर्थो में तभी प्रभावी होते है, जब शोधार्थी द्वारा उस समस्या की वास्तविक स्थिति का मूल्यांकन किया जाये। इसके लिये यह आवश्यक है कि शेाधार्थी द्वारा शेाध अध्ययन मेें उपयोग किये गये समस्त शेाध उपकरण द्वारा प्राप्त जानकारियों को व्यवस्थित क्रम में सारणीबद्ध किया जाये। शोध द्वारा तथ्यों को प्राप्त करने के बाद संकलित तथ्यों को सारणी के रूप में प्रस्तुत किया गया है और सांख्यिकी विश्लेषण किया गया है-

 

उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि 60 प्रतिशत महिलायें भवन निर्माण के कार्य में 40 प्रतिशत महिलायें सड़क निर्माण के कार्य में कार्यरत हैं। ज्यादातर महिलाएँ भवन निर्माण में इसलिये संलग्न रहती है, क्योंकि अन्य क्षेत्रों की तुलना में मजदूरी ज्यादा मिलती है।

 

उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि कुल 40 प्रतिशत परिवार संयुक्त परिवार है, शेष 60 प्रतिशत महिला श्रमिकों के परिवार एकाकी है। ग्रामीण क्षेत्र में शहरों में आकर कार्य करती हैं जिसके कारण एकाकी परिवार ज्यादा पाये गये।

 

उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि 30 प्रतिशत महिला श्रमिकों का परिवार में उच्च स्थान है। 20 प्रतिशत महिला श्रमिकों का मध्यम तथा 50 प्रतिशत महिला श्रमिकों का स्थान परिवार में निम्न है।

 

उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि 40 प्रतिशत महिला श्रमिक विवाहित है तथा 30 प्रतिशत अविवाहित है और विधवा महिला श्रमिकों का प्रतिशत 20 है तथा परिव्यक्ता महिला श्रमिकों का प्रतिशत 10 है। अतः स्पष्ट है कि महिला श्रमिकों में विवाहित महिला श्रमिकों का प्रतिशत अधिक है।

 

उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि परिवारों की आर्थिक स्थिति में 30 प्रतिशत अच्छी, 50 प्रतिशत खराब तथा 20 प्रतिशत सामान्य आर्थिक स्थिति में अपना जीवन यापन कर रहे हैं अतः स्पष्ट है कि 50 प्रतिशत महिलायें आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण श्रमिक बन गये।

 

उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि महिला श्रमिक पुरुषों के बराबरी में अपने आपको खड़ा करना चाहती है, अध्ययन में 50 प्रतिशत महिलाओं ने अपनी सहमति जताई शेष 50 प्रतिशत में 30 प्रतिशत असहमति जताई और शेष 20 प्रतिशत महिलाओं ने कोई मत व्यक्त नहीं किया है।

 

उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि केवल 10 प्रतिशत महिला श्रमिक ही शिक्षित हैं और 90 प्रतिशत महिला श्रमिक अशिक्षित पाई गई इससे स्पष्ट है कि महिला श्रमिकों में शिक्षा की स्तर निम्न है।

 

उपरोक्त सारणी से ज्ञात होता है कि कामकाजी महिलायें भिन्न-भिन्न कार्य करके अपनी जीविका अर्जन करती हैं तथा परिवार में आय की वृद्धि करती है। जिसमें से 45 प्रतिशत महिलायें खेतों में काम करना पसंद करती है। और 40 प्रतिशत महिलायें भवन निर्माण या सड़क के कार्य करती है। तथा 5 प्रतिशत महिलायें दूसरो के घर पे खाना बनाती है। और 10 प्रतिशत महिलाये श्रमिक बर्तन तथा अन्य साफ-सफाई का कार्य करके अपने परिवार का गुजारा करती ळें

 

निष्कर्ष:-

औद्योगिक विकास के साथ-साथ यह बात देखी गई कि पूंजीपति इस बात के लिये बहुत उत्सुक थे कि शीघ्र ही अधिक लाभ हो, जिससे उन्होंने स्त्री, पुरुष तथा असहाय बच्चों तक को काम में लगा दिया।

सतना जिले के असंगठित क्षेत्र की श्रमिक महिलाओं का अध्ययन करने से यह पाया गया कि कई महिलायें भवन निर्माण/सड़क निर्माण, घरेलू कामकाजी, बीड़ी बनाने, सब्जी/फल बेचने आदि के कार्य में लगी हैं और अधिक संख्या में एकल परिवार से हैं और 10 प्रतिशत महिला शिक्षित पाई गई और परिवारिक अध्ययन से पता चला कि परिवारिक और आर्थिक स्थिति निम्न है। इन्हें परिवार में बहुत अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता है। इन महिलाओं का 18 वर्ष से कम आयु में ही विवाह हो जाता है, जिससे इनके बच्चे भी अधिक रहते हैं। जीवन के लिये भोजन के साथ-साथ वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य, मनोरंजन आदि की भी आवश्यकता पड़ती है। किन्तु इन महिला श्रमिकों की मासिक आय इतनी नहीं रहती कि जिससे कि ये अपना तथा अपने बच्चों का गुजारा अच्छे से कर पायें और उन्हें पुरुषों से कम मजदूरी भी दिया जाता है।

 

सुझाव:-

असंगठित क्षेत्र में कार्यरत महिला श्रमिकों की स्थिति काफी खराब है। अतः यह देखते हुये सरकार को हस्तक्षेप करना चाहिये तथा उनके शारीरिक, आर्थिक समाजिक शोषण को रोकने के लिये काननू को सक्त होना चाहिये और महिलाओ को शिक्षित करने के लिये निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिये तथा पीड़ित महिलाओं को कानूनी सहायता प्रदान की जानी चाहिये तथा उन्हे उचित प्रशिक्षण तथा दिशा निर्देश दी जानी चाहिए। महिलाओं का शोषण करने वाले को दण्डित किया जाना चाहिय, ताकि उन्हें सबके मिल सके। महिलाओं को रोजगार हेतु विभिन्न प्रकार के व्यवसायिक प्रशिक्षण प्रदान किये जाने चाहिय, ताकि वे स्वावलम्बी बन सके तथा सबसे महत्वपूर्ण बात ये होनी चाहिये कि महिला श्रमिकों को भी पुरुषों के बराबर वेतन दिया जाना चाहिए अर्थात् समान कार्य का समान वेतन मिलना चाहिये।

 

संदर्भ:-

1.     सक्सेना, एस.सी. (1992), ‘श्रम समसयें एवं सामाजिक सुरक्षा’, रस्तोगी पब्लिकेशन शिवाजी रोड, मेरठ।

2.     शर्मा, डाॅ. एम.के. (2010), ‘भारतीय समाज में नारी’, पब्लिशिंग हाउस दिल्ली।

3.     आहुजा राम (2000), ‘सामाजिक समस्यायें, रावत पब्लिकेशन, जयपुर एवं नई दिल्ली।

4.     गिरि, व्ही.व्ही. (1957) भारतीय मजदूरों की समस्याएँ एशिया पब्लिशिंग हाउस बम्बई।

5.     27.    सक्सेना, डाॅ. आर.सी. (1982) श्रम समस्याएं एवं सामाजिक सुरक्षा, रस्तोगी पब्लिकेशन शिवाजी रोड मेरठ।

6.     अग्रवाल, गोपाल कृष्ण (1993) भारतीय समाजिक संस्थायें, आगरा बुक स्टोर, आगरा।

7.     बावेल, बसन्ती लाल (1989) भारत की संवैधानिक विधि, सेन्ट्रल ला एजेन्सी, मोतीलाल नेहरू रोड इलाहाबाद।

8.     शर्मा डाॅ. ब्रह्मदेव (1986) शिक्षा समाज और व्यवस्था, मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल।

9.     श्रीवास्तव डाॅ. राजमणिलाल (1969) मजदूरी तथा सामाजिक सुरक्षा, प्रसाद प्रकाशन मंदिर कानपुर।

10.    लवानिया, एम.एम. (1989) भारतीय सामाजिक व्यवस्था, रिसर्च पब्लिकेशन, जयपुर,

11.    गुप्ता मोतीलाल (1973) भारतीय सामाजिक संस्थायें, राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, -26/2 विद्यालय मार्ग तिलक नगर जयपुर।

 

 

 

Received on 18.06.2019            Modified on 10.07.2019

Accepted on 31.07.2019            © A&V Publications All right reserved

Int. J. Rev. and Res. Social Sci. 2019; 7(3):695-700.