कथाकार रणेन्द्र के कविता में स्त्री जीवन
पूजा वर्मा
शोधार्थी हिन्दी अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा मप्र
*Corresponding Author E-mail:
ABSTRACT:
थोड़ा सा स्त्री होना चाहता हॅू।
कथाकार रणेन्द्र ने झारखण्ड के आदिवासियों के रहन-सहन को नजदीक से देखने का अवसर मिला जिसके कारण उनके लेखन में मानव एवं संस्कृति के प्रति श्रद्धा भाव दिखाई देता है । उनके संघर्षाे में वे सहभागी रहे ळें रणेन्द्र कथाकार के रुप में एक सफल कवि भी रहे है। आदिवासियों से गहरा सम्बन्ध एवं आत्मीय लगाव उनकी कविता थोड़ा सा स्त्री होना चाहता है में दिखाई पड़ता है। इसका प्रकाशन 2010 में शिल्पायन प्रकाशन दिल्ली से हुआ।
KEYWORDS: रणेन्द्र के कविता
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जिसका उद्देश्य आदिवासी समाज के दुःख भर जीवन, घुटन, तड़पन, प्रताड़ना, अत्याचार, लाचारी, बेबसी भरी दशा आजादी की पहल मनःस्मृतियों ने गहरा प्रभाव डाला। जिससे गुजरने के बाद भी साहस के फूल और नवनीत सूर्योदय की आस जीवन को ठूठ से हरे होने की आस दे रही है। उन्होंने उन कविताओं में आदिवासियों के दुखमय जीवन को वाणी दी है। उनकी कविता पर टिप्पणी करते हुए कुमार मुकुल लिखते है कि ‘‘रणेन्द्र की कविताओं से गुजरना जैसे दुखमय जीवन की स्मृतियों से गुजरना है।
दुख जो हमें सालता है, बाहर चलाता है हमारे भविष्यत के स्वप्नों तक को। हतवाक् करती है। यह कविताएॅ और हृद्य की गहन अंध अंतःकरण के टिमकते दीपकों में जैसे स्नेह द्रव की कुछ बूॅदें पड़ती है और एक लौ उमगती है। नई पत्ती सी काॅंपती ।‘‘1
यह रुप उनकी इन पंक्तियों में दिखाई देता है-
कौन जाने उसके विरडोह टंडा में,
बसंत आता था या नही,
अकाल मृत्यू आ ही जाती अक्सर कई-कई रुप धरकर ‘‘2
साथ ही वह दुखमय जीवन की हाय कैसी वेदना भरी जो आषा की किरणों की नवनीत कोपल फूटती दिखाई दे रहा है क्योंकि-
नवोदित सूर्य के प्याले में,
कूॅची डूबोकर
सूनहरा रॅगेगी सारा आकाश
चाॅंद को मुट्ठी से निचोड़
दुधिया कर देती सातों समुद्र सप्तर्षि के छत्ते से
शहद चुआ कर
मीठा बनायेगी नदियों का पानी
हरे होंगे सारे ठूॅठ
पकेगा सपनों का लाल-लाल फल।‘‘3
आज चकाचैंध भरी दुनियाॅ में आदिवासी जनजीवन की संस्कृति को जो खतरा है उसकी ओर कवि इषारा या इंगित करते हुए लिखते है ये तमाम मजदूर अपने जीवन को जोखिम में डालकर मकान, खदान, कारखानों में काम करते है चाहे जान ही क्यों न गवाना पड़े, वह कठिन परिश्रम परिवार का भरण पोषण करने के लिए तत्पर रहते है दुनियाॅ की रहन-सहन से दूर अपने जीवन में हरे-भरे पेड़-पौधों, पहाड़ो, नदियों को ही धरोहर समझने वाले इन चतुर मानव से अनजान जीवन यापन करते है।
कवि लिखता है कि सुख के कई रंग होते है किन्तु दुख का एक ही रंग है माटी से उठता है माटी में ही पसर जाता है यह निष्छल सत्य है। इस दुख को प्रकट करने के लिए कवि ने विम्ब के रुप दुख के मर्म को अभिव्यक्त करता है जो अमीरों के नौलखा परिधान और गरीबों के परिधान पर बूधन बिरजिया की फटी हुई गमछी को तरजीह देता है-
‘‘सबको खतरा था
बूधन बिरजिया
उसकी फटी हुई गमछी
और उठी हुई उॅगली से।‘‘4
रणेन्द्र ने आदिवासी जनजीवन की सांस्कृतिक भूमि को मुख्यधारा के लोगों द्वारा प्रताड़ित करने, जमीनो से बेदखल करने का अधिकार छिनने, पलायन को मजबूर करने आदि की साजिष की ओर भी इषारा किया है ‘अवसान बेला पर’ कविता में कवि ने आदिवासी जीवन के व्हास का चित्रांकन है इसी कविता द्वारा कवि कहता है-
’’दम- दम दमकता है
मुख्यधारा का चमकीला चेहरा, जिसकी
सूर्य की आभा झेल नही पा रही
विकलांग हो रही
हमारी पीढ़ी ’’5
काव्य संग्रह की समूची कविताओं में आदिवासी जीवन शैली को सहानुभूति परक दृष्टि से देखते हुये कवि ने अपनी कविता को और रोमांच भरा बना दिया जिसमें मजदूरों के प्रति अपार श्रद्धा और विष्वास से सोचने पर मजबूर कर देती है यह सरल, सुबोध, निर्भीक, ताकतवर मजदूर ‘युद्ध‘ शीर्षक कविता में कोयला खोदने वाले व ढोनेवाले मजदूर को योद्धा की तरह चित्रित करते है-
कभी नही मानेगा वह हार
हमारा वीर बहादूर
जनरल -मार्षल
बूधन जवान
जानता है
किसी दिन
खदान धॅसाने से
देगा वह बलिदान
न बिगुल
न तिरंगा
न सम्मान ‘‘6
कविता रचती स्त्री‘ में कति ने अॅधेरी भरी कोठरी में सीलन भरे कोने में रहती स्त्री के माध्यम से अपने शोषण की गाथा को बया करती है। कवि इस विषय को जानकर उनके अन्दर होने वाले शोषण, अत्याचार को शब्द देकर कथन को सरल बनाने का प्रयास किया, स्त्री शोषण घर के अन्दर, बाहर, परिवार, रिस्तेदार कीसी भी रुप में हो सकता है। उनके स्वप्न बचाने शर्म लज्जा के भाव से शोषण का शिकार होना लाजमी तब वह अपने हाथ में कलम लेकर अपनी बात कहती है-
‘बाहरी के दुर्दान्त
खूॅखार भेड़ियों के सामने
प्यारा लगता है
घर का अपना भेड़िया......
रेषम सी मुलायम देह
परोस
मीठी नींद सुलाती हैं
चाॅदनी में लोरी की तरह
कविता गुनगुनाती है।‘ 7
कथाकार रणेन्द्र कविता के माध्यम से उन आदिवासी समाजों के प्रति चिंता प्रकट कर रहे है जिन्हें आपने ही देष में स्वतंत्र रहने का अधिकार नही रहा वह रह रोज घ्ूाॅट -घूॅट का जीवन बिता रहे है। उनके पूर्वजों और उनकी पीढ़ी दर पीढ़ी की परम्पराएॅ रीति-रिवाज से अजग होते जा रहे है। जॅहा कभी हरे भरे जॅगल हुआ करते थे वह अब समाप्त हो गये, नदिया दूषित कर दी गई , शहरों के बादषाह सभ्य मनुष्य कहलाने वाले समाज ने असभ्य अषिक्षित समाज का नाम देकर उनका उपहास उड़ा रहे है शहरी सभ्यता से जो परिवर्तन हो रहा है उसकी ओर इषारा करते हुए आज उसका बदला रुप कवि इन शब्दों से दिखाता है-
‘‘ अब वहाॅ आकाश नही है
न जंगल हरा
न नदिया साॅवली
न धरत गोरी
बादषाह सलामत ने
खुरच लिये रंग सारे
अब ये
खाकी से रंगेंगे
पूरा कैनवास‘‘8
रणेन्द्र की कविताओं को पढ़कर कविगण एवं आलोचक प्रषंसक बात करते थकते नही क्योंकि इनकी रचनाएॅ आदिवासी जीवन के जादूई यर्थाथ से भरे दिखाई पड़ते है इनमें जीवन की गहन जिज्ञासा आदिवासियों के प्रति प्रेम और संघर्ष की गाथा उनके लेखन का मुख्य विषय रहा है । इनका कविताओं आदिवासियों का जामुनी रंग बड़ी ढीठाई से बाॅधता है ओर सांवरी का सौंदर्य उव्देलित करता है। काली रात में कलंक को भी दिकौना सा धारने को ‘सलवा जुडूम‘ के दानवी नायको की क्रूरता के प्रति आगाह करती है। ’ इन नव इदीं अमीनों’ के फ्रिजरों का एक कोना भी नही भरा है। ताजे नरगोष्त से। थोड़ा सा स्त्री होना चाहता हूॅ। आदि शीर्षक है जो इस संग्रह का उद्देष्य थोड़ा सा स्त्री होना ही पूरा मनुष्य होना कवि का प्रयास रहा जिसमें जीवन का सार है।
ये कविताएॅ पाठकों को इस ओर अनायास ही अपना ध्यान ले जाती है क्योंकि मनुष्य होने का अहसास दिलाना चाहती है।
इस प्रकार अंत में कवि की अभिलाषा है कि-
’’ लेकिन इसी जनम में अपनी
सहज संगति की चाह
प्ूारी हो कामना अनन्तिम इसलिए
थोड़ा सा स्त्री होना चाहता हॅू।’’9
रणेन्द्र की कविता को ध्यान में रखते हूए महादेवी वर्मा की रचना ‘मैं नीर भरी दुख की बदली’ में अपने जीवन के दुःख का उजागर, समाज का नया चोला ओढ़ इन पुरुषवादी मानसिकता की ओर संकेत है, जिसमें जीवन की व्यथा एवं शोषण दुःख, हीन भावना, स्त्री को दो फाटन की तरह प्रदर्शित करती दिखाई देती है लेकिन रणेन्द्र की कविता ’’थोड़ा सा स्त्री होना चाहता हॅॅॅॅू’’ में अपने विचार, स्त्री सम्मान के प्रति सकारात्मक सोच से समाज को संदेश देना चाहता है कवि स्त्री को बहादुर मानते हूए उसके दुःखो में भागीदार होने की बात कहता है।
’’मैं नीर भरी दुःख की बदली
स्पन्दन में चिर निस्पन्दन बसा,
क्रन्दन में आहत विश्व हसा,
नयनों में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झरिणी मचली,
नभ के नवरंग बुनते दुकूल,
छाया में मलय बयार पली’’।10
सुप्रसिद्ध लेखक और रचनाकारों ने हिंदी में अपनी कविताओं के माध्यम से स्त्री शोषण औंर उनकी बेबसी का चित्रण अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज तक पहुॅचानें का कार्य किया है उन्हीं में सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की कविता ’’वह तोड़ती पत्थर’’ में एक मजदूरिनी की अवस्था का वर्णन करते हुए कहते है कि मैनें उसे इलाहाबाद के पथ पर देखा। कोई छायादार वृक्ष नही जिसके नीचे बैठकर गर्मी शांत कर सके।
’’वह तोड़ती पत्थर देखा उसे मैं इलाहाबाद के पथ
पर वह तोड़ती पत्थर
कोई न छाया दार, पेड़ व जिसके तले बैठी
हुई स्वीकार,
श्यामतन, भरबॅधा योवन, तयनयन, प्रिय-कर्म-रत
मन, गुरु हथौड़ा हाथ, करती बार-बार प्रहार
समने तरु-मलिका अट्टलिका, प्रकार। 11
तमाम रचनाकारों ने अपने अपने विचार और रचनाओं के माध्यम से समय-समय पर समाज को आईना दिखाने का कार्य किया है।
आदिवासी साहित्यकारों, महाश्वेता देवी, मधू काॅकरिया, निर्मला पुतुल, रमणिका गुप्ता, वंदना टेटे, रोज केरकेट्टा, रामदयाल मुण्डा आदि ने साहित्य के माध्यम से नारी सम्मान के लिए अब तक संघर्ष कर रहे है। इन्हीं रचनाओं के कारण बेबस और लाचार महिलाओं के चरित्र की रक्षा करने का अथक प्रयास रहा। स्त्री के प्रति सम्मान की भावना का विकास हुआ है। इसलिए यह कहना न्यायपूर्ण होगा कि दौर के कथाकार रणेन्द्र ने भटके समाज को मुख्य धारा से जोड़ने तथा उनको सम्मान दिलाने का भरसक प्रयास अनायास ही नही दिखाई देता बल्कि इसके पीछे आदिवासी समुदाय की तड़प और छटपटाहट कथाकार के उद्देश्य को और मजबूत करती है।
सन्दर्भ ग्रंथ सूची:-
1- विनोद विश्वकर्मा-रणेन्द्र के उपन्यासों में आदिवासी विमर्श, प्रकाशन-ईबुक प्रकाशन संस्करण 2018, पृष्ठ संख्या 52
2- रणेन्द्र-थोड़ा सा स्त्री होना चाहता हॅॅॅू, प्रकाशन- शिल्पायन प्रकाशन शाहदरा दिल्ली संस्करण 2010 - पृष्ठ संख्या 10
3- रणेन्द्र-थोड़ा सा स्त्री होना चाहता हॅॅॅू, प्रकाशन- शिल्पायन प्रकाशन शाहदरा दिल्ली संस्करण 2010 - पृष्ठ संख्या 25
4- रणेन्द्र-थोड़ा सा स्त्री होना चाहता हॅॅॅू, प्रकाशन- शिल्पायन प्रकाशन शाहदरा दिल्ली संस्करण 2010 - पृष्ठ संख्या 12
5- रणेन्द्र-थोड़ा सा स्त्री होना चाहता हॅॅॅू, प्रकाशन- शिल्पायन प्रकाशन शाहदरा दिल्ली संस्करण 2010 - पृष्ठ संख्या 22
6- रणेन्द्र-थोड़ा सा स्त्री होना चाहता हॅॅॅू, प्रकाशन- शिल्पायन प्रकाशन शाहदरा दिल्ली संस्करण 2010 - पृष्ठ संख्या 18
7- रणेन्द्र-थोड़ा सा स्त्री होना चाहता हॅॅॅू, प्रकाशन- शिल्पायन प्रकाशन शाहदरा दिल्ली संस्करण 2010 - पृष्ठ संख्या 81
8- रणेन्द्र-थोड़ा सा स्त्री होना चाहता हॅॅॅू, प्रकाशन- शिल्पायन प्रकाशन शाहदरा दिल्ली संस्करण 2010 - पृष्ठ संख्या 18
9- रणेन्द्र-थोड़ा सा स्त्री होना चाहता हॅॅॅू, प्रकाशन- शिल्पायन प्रकाशन शाहदरा दिल्ली संस्करण 2010 - पृष्ठ संख्या 94
10- महादेवी वर्मा-श्यामा, प्रकाशन-लोकभारती प्रकाशन संस्करण 2008 इलाहाबाद
11- सूर्यकांत त्रिपाठी निराला- तोड़ती पत्थर प्रकाशन- राजकमल प्रकाशन इलाहाबाद
Received on 21.12.2020 Modified on 24.12.2020
Accepted on 29.12.2020 © A&V Publications All right reserved
Int. J. Rev. and Res. Social Sci. 2020; 8(4):265-268.