हिन्दी पत्रकारिता का विकास गांधी युग तक
डा यषवंत साव
सहायक प्राध्यापक (हिन्दी), मदनलाल साहू शासकीय महाविद्यालय अरमरीकला जिला-बालोद (छग
*Corresponding Author E-mail: yashwantsao@gmail.com
ABSTRACT:
भारत के स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में समाचार पत्रों की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता। स्वतंत्रता पूर्व पत्रकारिता समाज एवं देषहित के लिये समर्पित रही है। समाज एवं राष्ट्र निर्माण में हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं का कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण है। पत्रकारिता को लोकतंत्र का चैथा स्तंभ कहा जाता है। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका लोकतंत्र के तीन प्रमुख स्तंभ है इसमें चैथे स्तंभ के रुप में पत्रकारिता को शाामिल किया गया है। विधायिका का कार्य कानून बनाना है, कार्यपालिका उसे लागू करती है और न्यायपालिका उन कानूनों की व्याख्या कर उसका उल्लंघन करने वालों को दंडित करती है। किन्तु इन तीनों स्तंभों के सहारे लोकतंत्र दृढ़तापूर्वक खड़ा नहीं रह सकता उसे एक चैथे स्तंभ की भी आवष्यकता होती है, उसका नाम है पत्रकारिता जो जनता की वास्तविक स्थितियों का दर्षान तो कराता ही है, लोकतंत्र के बहुआयामी विकास में बड़ी भूमिका अदा करता है। किसी देष में स्वतंत्र निष्पक्ष मीडिया की भी उतनी आवष्यकता है जितनी लोकतंत्र के अन्य तीन स्तंभो की है। इसका संबंध समाज के अंतिम व्यक्ति से लेकर नेतृत्व के षिखर-पुरुष तक होता है।
KEYWORDS: हिन्दी पत्रकारिता
प्रस्तावना
भारत में पत्रकारिता का प्रारंभ कलकत्ता से हुआ है। जेम्स आगस्टस हिकी ने 29 जनवरी 1780 को प्रथम समाचार पत्र का प्रकाषन यहीं से प्रारंभ किया। हिन्दी का प्रथम समाचार पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ का प्रकाषन 30 मई 1826 को साप्ताहिक रूप से कलकत्ता से हुआ। इसके बाद ‘प्रजामित्र’ का उल्लेख मिलता है पश्चात‘ बनारस अखबार’ राजा षिव प्रसाद सितारेहिन्द के प्रकाषकत्व में निकला था।
इसके बाद ‘षिमला अखबार’, ‘मालवा अखबार, बुद्धि प्रकाष’ आदि कई समाचार पत्र हमारे सामने आते हैं किन्तु प्रथम दैनिक समाचार पत्र के रूप में ‘समाचार सुधावर्षण’ का नाम विषेष रूप से उल्लेखनीय है। इसका प्रकाषन 1854 में हुआ। इसमें अँगरेजों की भी आलोचना होती थी और पीड़ित जनता के दुखों को भी विस्तार से प्रकाषित किया जाता था। इसकी हिन्दी परिमार्जित थी किंतु उसमें उर्दू और ब्रज भाषाओं के शब्दों की प्रधानता रहती थी।
प्रथम स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रमुख नेता अजीमुल्ला खाँ ने 1857 में ‘पयामे आजादी’ नाम से एक समाचार पत्र का प्रकाषन दिल्ली से किया जिसमें प्रकाषित इन पंक्तियों ने भारत में क्रांति का शंखनाद किया था-
’’हम है इसके मालिक, हिन्दुस्तान हमारा
पाक वतन है कौम का, जन्नत से भी प्यारा...
आया फिरंगी दूर से ऐसा मंतर मारा
लूटा दोनों हाथों से प्यारा वतन हमारा
आज शहीदों ने तुमको अहले वतन ललकारा
तोड़ो गुलामी की जंजीरें बरसाओ अंगारा
हिंदू मुसलमां सिख हमारा भाई-भाई प्यारा
ये आजादी का झंडा इसे सलाम हमारा।’’1
इस प्रकार पहली बार इस पत्र ने देष वासियों को एकजुट होकर अँगरेजों से संघर्ष करने के लिए ललकारा।
1859 से लेकर 1861 के मध्य में भारत में धर्मप्रकाष, ज्ञान प्रकाष, लोकमत, तत्व-बोधिनी पत्रिका, ज्ञान प्रदायिनी पत्रिका, जग हितकारक और सर्वोपकारक जैसी पत्रिकाओं का भी प्रकाषन हुआ परंतु ये सभी किसी न किसी धर्म विषेश के प्रचार-प्रसार से संबंधित रही हैं। समग्रतः इस प्राथमिक युग में हिन्दी पत्रकारिता की मजबूत नींव पड़ चुकी थी और उसमें जन हित तथा राष्ट्रीय चेतना का समावेष भी हो चुका था।
हिन्दी पत्रकारिता का भारतेन्दु युग (1867 से 1900 तक)
यह युग भारतेन्दु मंडल के साहित्यकारों के कृतित्व से जाना जाता है। इसमें भारतेन्दु हरि चन्द्र के साथ-साथ बालकृष्ण भट्ट, पं. प्रतापनारायण मिश्र, पे्रमघन, अंबिकादत्त व्यास आदि सम्मिलित थे। इनमें से प्रायः सभी पत्रकार भी थे। यह युग ब्रह्मसमाज, आर्यसमाज, रामकृष्ण मिषन तथा थोसाफिकल सोसायटी की स्थापनाओं के कारण जन जागृति तथा पुनर्जागरण का युग रहा है। इसी समय स्वामी विवेकानंद ने अपने ओजस्वी भाषणों के द्वारा देष में राष्ट्रीय चेतना का सर्वाधिक प्रचार-प्रसार किया। भारतेन्दु युग में ब्रिटिष सरकार की कड़ी आलोचना के साथ राजनीतिक-सामाजिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं विसंगतियों पर भी कड़े व्यंग्य होते थे। भारत की तत्कालीन स्थिति पर दुःख प्रकट करते हुए भारतेन्दु ने कहा -
’’अब जहं देखहु वहं दुःखहि दुःख दिखाई।
हा हा भारत दुर्दषा न देखी जाई ।।’’2
इस युग के प्रमुख समाचार पत्र का नाम‘ कवि वचन सुधा’ इसमें राष्ट्रीय चेतना से संबंधित लेखों तथा अन्य सामग्रियों का प्रकाषन किया जाता था, साथ ही इसमें विभिन्न कवियों की रचनाएँ भी प्रकाषित होती थीं। इसके द्वारा अँगरेजी षिक्षा तथा तत्कालीन कानूनों का भी विरोध किया जाता था क्योंकि ये सब गुलामी के प्रतीक थे। इसकी भाषा बोलचाल की थी जो जनता की समझ में आसानी से आ जाती थी। इस युग में ‘हरिश्चन्द्र मेगजिन’ का भी विषेष महत्व रहा है। इसका प्रकाषन 15 अक्टूबर 1873 को प्रारंभ हुआ था। भारतेन्दु ने ‘बाला बोधिनी’ नाम से एक महिलाओं के उत्थान के लिए भी पत्रिका का प्रकाषन किया था। पत्रकारिता के क्षेत्र में उनकी प्रतिभा विलक्षण और क्रंातिकारी थी। उन्होंने अपने इस व्यक्तित्व के द्वारा इस पूरे युग को प्रभावित किया है। वे एक व्यक्ति नहीं वरन् एक संस्था के रूप में कार्य करते रहे हैं।
इस युग में प्रकाषित ‘आनंद कादम्बिनी’ एक साहित्यिक पत्र था। इसमें सर्वप्रथम पुस्तक समीक्षा नामक स्तंभ प्रारंभ किया गया था। विषुद्ध राष्ट्रीय पत्रों में स्वधर्म, स्वराज्य, स्वभाषा और देष हितैषी नामक पत्रों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इस प्रसंग में ‘भारत जीवन’ नामक पत्र का उल्लेख भी आवश्यक है। यह एक ऐसा पत्र था जो सबसे अधिक स्वदेषी वस्तुओं के प्रचार प्रसार को महत्व देता था। समग्रतः भारतेन्दु युग हर दृष्टि से नव चेतना और पुनर्जागरण का युग था और इस युग के प्रायः सभी समाचार पत्रों ने भारत की दुर्दशा, अँगरेजों द्वारा शोषण और उनकी दमन-नीतियों का खुलकर विरोध किया है। हिन्दी पत्रकारिता के विकास की दृष्टि से भारतेन्दु का व्यक्तित्व पूर्णतः क्रांतिकारी था, उन्होंने तथा उनकी मित्र मंडली ने अपने युग के जन मानस को अच्छी तरह उद्देलित किया है। वे सदा स्वदेषी के पक्षधर रहे। रामविलास शर्मा ने लिखा है ‘‘भारतेंदुराम हास्य विनोद से लेकर विज्ञान और पुरातत्व तक सभी सामग्री अपनी पत्रिका में देना चाहते थे। उस समय के अनेक पत्रों की यह विषेषता थी कि वे अपने पाठकों को सभी विषयों से थोड़ा बहुत परिचित कराना चाहते थे।’’3
हिन्दी पत्रकारिता का द्विवेदी युग (1900 से 1920तक)
1900 ई. में हिन्दी भाषा को कचहरियों में उर्दू के साथ-साथ स्थान मिल गया था, इसके लिए भी हिन्दी-पत्रकारों को कठिन संघर्ष करना पड़ा था। हिन्दी को प्रतिष्ठा मिलने से अब उसमें लिखने के लिए प्रोत्साहन भी दिए जाने लगे। अभी तक हिन्दी का व्याकरण की दृष्टि से मानक रूप निर्मित नहीं हो सका था, यह कार्य ‘सरस्वती’ पत्रिका के माध्यम से पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सम्पन्न किया। इतना ही नहीं उन्होंने भारतीय स्तर पर हिन्दी साहित्य की संरचना का नेतृत्व भी किया। इस पत्रिका में जिस लेखक की एक भी रचना प्रकाषित हो जाती थी वह साहित्यकार की श्रेणी मेें गिना जाता था।
यही कार्य निरंतर 8 वर्षों तक पं. प्रताप नारायण मिश्र का ‘ब्राह्मण’ भी करता रहा है। वाराणसी से प्रकाषित होने वाले दैनिक ‘भारत जीवन’ ने भी हिन्दी की महान सेवा की है यद्यपि यह राजनीति से दूर ही रहा है। 1889 में अजमेर से ‘राजस्थान समाचार’ का प्रकाषन प्रारंभ हुआ। इसमें मुख्य रूप से आर्य समाज के सिद्धान्तों की चर्चा रहती थी। इसमें समसामयिक राजनीतिक घटनाओं का भी विवरण प्रकाषित होता था। इसे हिन्दी के प्रथम दैनिक व्यावसायिक पत्र की संज्ञा दी गई है। ‘भारत मि़त्र’ में 1903 से ‘षिवषंभू के चिट्ठे’ नाम का एक स्तंभ प्रारंभ किया गया था, जिसमें अँगरेजों के कारनामों का कच्चा चिट्ठा रहता था। यह स्तंभ बहुत प्रसिद्ध हुआ और इसकी चर्चा इंग्लैंड तक पहुँच गई थी। इसमें साहित्य की सभी विधाओं का प्रकाषन किया गया था। इस तरह सब तरह से इस पत्र ने हिन्दी पत्रकारिता का मार्ग-दर्षन किया है। रामविलास शर्मा के अनुसार ‘‘राजा, प्रजा, राज्य व्यवस्था, वाणिज्य, भाषा और सबके ऊपर देषहित की चर्चा करने वाला ’भारतमित्र’ एक तेजस्वी राजनीतिक पत्र के रूप में चर्चित और विख्यात हुआ।’’4
साहित्यिक पत्रिकाओं में जनवरी 1900 से निकलने वाली ‘सरस्वती’ पत्रिका का विषेष महत्व है। 1909 मे जयषंकर प्रसाद ने ‘इंदु’ पत्रिका का सम्पादन-प्रकाषन प्रारंभ किया। इस समय तक साहित्यिक पत्रिकाओं मेें प्रभा, मर्यादा, माधुरी, साहित्य, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, ललिता, मनोरमा, चांद आदि अनेक पत्रिकाएँ भी प्रकाषित हो रही थीं। इस संदर्भ में कानपुर से प्रकाषित ‘प्रताप’ का उल्लेख भी आवष्यक है जो क्रांति का अग्रदूत था तथा शहीदे आजम भगत सिंह की लेखनी द्वारा आग उगलता। बलिपंथी कवि माखनलाल चतुर्वेदी के द्वारा पहले 1919 में जबलपुर से और फिर खंडवा से ‘कर्मवीर’ का प्रकाषन किया गया। यह पत्र भी राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत रहता था। माखनलाल चतुर्वेदी स्वातंत्र्य संग्राम में 12 बार जेल गये और 63 बार उनके घर तथा कार्यालय की तलाषियाँ ली गई। इस पत्र ने हिन्दी के अनेक लेखकों को क्रांति की ओर प्रेरित किया और हिन्दी पत्रकारिता को भी संघर्षषील बनाने के लिए अग्रसर किया। कुमार अमरेन्द्र ने लिखा है ‘‘माखनलाल चतुर्वेदी का पत्रकारिता के क्षेत्र में पदार्पण 19 वर्ष की उम्र में लोकमान्य तिलक के ‘हिन्द केसरी‘ पत्र में राष्ट्रीय आंदोलन और बहिष्कार विषायक निबंध लिखकर प्रथम पुरस्कार प्राप्त करने के साथ होता है। चतुर्वेदी जी ही ऐसे पहले व्यक्ति हैं जिन्होने पत्रकारिता में साहित्य को स्थान देने की वकालत की थी।‘’5
समग्रतः पत्रकारिता की दृष्टि से यह युग राष्ट्रीयता के चरम विकास से संबंधित रहा है और प्रायः सभी समाचार पत्र अँगरेजों द्वारा शोषण, उत्पीड़न, प्रवंचना आदि की घटनाओं से भी भरे रहे हैं। इस युग में समाचार पत्रों पर कठोर प्रतिबंध भी रहे जिसकी प्रतिक्रिया स्वरूप भारत में विद्रोह की ज्वाला को और बल मिलता रहा है।
हिन्दी पत्रकारिता का गांधी युग या क्रांतिकाल (1920 से 1947)
गांधी जी स्वयं प्रतिभाषाली पत्रकार थे और पत्रकारिता करे वे वैचारिक क्रांति का साधन मानते थे। संजीव कुमार जैन के अनुसार ’’गांधी जी के ’यंग इंडिया‘ और ‘नवजीवन‘ ऐसे दो पत्र थे जो देष के नर नारियों को अपने संकेत पर नचाने की शक्ति रखते थे। ‘यंग इंडिया‘ में प्रकाषित लेखों हेतु गांधी जी को छः वर्ष कारावास का दंड भी मिला।’’6 इसी प्रकार श्रीपाल शर्मा ने लिखा है ‘‘गांधी युग की विषेशता यह थी कि साहित्यिक पत्रकारिता राजनैतिक पत्रकारिता से भिन्न बन गई थी और हिन्दी पत्रकारिता को साम्यवादी एवं समाजवादी प्रवृत्तियाँ प्रभावित कर रही थीं।’’7
इस युग में और भी अनेक समाचार पत्र प्रकाषित हुए जैसे अर्जुन, सरोज, समन्वय, प्रताप, स्टार, भारतीय आदर्श, राजस्थान, राजस्थान केसरी, वीणा आदि। इनमें साहित्यिक दृष्टि से वीणा का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। हिन्दी पत्रकारिता के विकास में कलकत्ता से प्रकाषित होने वाले ‘मतवाला’ का भी विषेष योगदान रहा है। मतवाला हिन्दी का हास्य-व्यंग्य-विनोद प्रधान साप्ताहिक था। इसके संपादकों में आचार्य षिवपूजन सहाय, उग्र जी एवं सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ के नाम विशेष प्रसिद्ध हैं। इसके सम्पादकीय स्तंभ के अंतर्गत अकबर इलाहाबादी का निम्न शेर प्रकाषित होता था-
’’खीचों न कमानों को न तलवार निकालो
जब तोप मुकाबिल है तो अखबार निकालो।’’8
हरिऔध, चतुरसेन शास्त्री, प्रेमचन्द, प्रसाद, षिव पूजन सहाय आदि हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यिकारों की रचनाएँ भी इसमें प्रकाषित होती थीं। इसकी शैली व्यंग्य तथा हास्य प्रधान थी।
गीता प्रेस गोरखपुर से ‘कल्याण’ मासिक पत्रिका का प्रकाषन 29 अपै्रल 1923 से प्रारंभ हुआ जो आज भी निकल रही है। इस पत्रिका ने भारतीय धार्मिक और साँस्कृतिक साहित्य का विषेष रूप से संवर्द्धन किया हिन्दी भक्त कवियों में सूर, तुलसी, मीरा, कबीर आदि की रचनाओं का नियमित प्रकाषन भी इसके माध्यम से होता रहा है। इस युग में सुधा, विषाल भारत, पंजाब केसरी, हिन्दी मिलाप, जन्मभूमि, प्रभात, विष्वबंधु, समय आदि अनेक समाचार पत्रों का भी प्रकाषन हुआ।
मार्च 1930 मे मुंषी प्रेमचन्द ने ‘हंस’ मासिक पत्र का संपादन प्रारंभ किया। सितम्बर 1936 तक इसके 36 अंक निकले। इसमें प्रेमचन्द ने राष्ट्र की समस्याओं को प्रमुखता से स्थान दिया, साथ ही हिन्दी साहित्य के संवर्द्धन में भी विषेष कार्य किया। इस पत्र पर कई बार अर्थ दंड भी लगाया गया। इस युग के अन्य साहित्यिक पत्रों मेें सारथी, जागरण, इंदू, नवयुग आदि का योगदान भी उल्लेखनीय रहा है।
इस युग में मित्र प्रकाषन, इलाहाबाद की ओर से ‘माया’ और ’मनोहर कहानियाँ’ जैसी पत्रिकाएँ भी निकल रहीं थीं जो समाज में बहुत लोकप्रिय थी।
समग्रतः इस युग के सारे समाचार पत्र देष की स्वतंत्रता, क्रांति और बलिदान की प्रेरणा देने में तत्पर रहे हैं उनमें अँगरेजों की शोषण नीति का विरोध और भारत की दुर्दषा का भी विवरण विस्तार से मिलता है। महात्मा गांधी के प्रभुत्व के कारण कुछ विद्वान इस युग को क्रांति युग की तो कुछ इसे गांधी युग की ही संज्ञा देते हैं। पत्रकारिता की दृष्टि से यह हिन्दी पत्रकारिता का स्वर्णयुग रहा है। इस समय तक पत्रकारिता में न तो व्यावसायिक प्रवृति का प्रवेष हुआ था न पीत पत्रकारिता का। सभी संपादक देष की स्वतंत्रता एवं हिन्दी तथा हिन्दी साहित्य के उत्थान के लिए समर्पित रहे हैं, उन पर प्रेस के मालिकों का अंकुष नहीं था और न वे किसी प्रकार का राजनीतिक हस्तक्षेप ही करते थे।
निष्कर्ष
पत्रकारिता को लोकतंत्र का चैथा स्तंभ कहा जाता है। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका लोकतंत्र के तीन प्रमुख स्तंभ है इसमें चैथे स्तंभ के रुप में मीडिया को शामिल किया गया है। विधायिका का कार्य कानून बनाना है, कार्यपालिका उसे लागू करती है और न्यायपालिका उन कानूनों की व्याख्या कर उसका उल्लंघन करने वालों को दंडित करती है। किन्तु इन तीनों स्तंभों के सहारे लोकतंत्र दृढ़तापूर्वक खड़ा नहीं रह सकता उसे एक चैथे स्तंभ की भी आवश्यकता होती है, उसका नाम है पत्रकारिता जो जनता की वास्तविक स्थितियों का दर्षन तो कराता ही है, लोकतंत्र के बहुआयामी विकास के प्रति भी बड़ी भूमिका अदा करता है। किसी देष में स्वतंत्र निष्पक्ष मीडिया की भी उतनी आवश्यकता है जितनी लोकतंत्र के अन्य तीन स्तंभो की है। इसका संबंध समाज के अंतिम व्यक्ति से लेकर नेतृत्व के षिखर-पुरुष तक होता है। ‘रजिस्ट्रार आफ न्यूजपेपर फार इंडिया’ के अनुसार मार्च 2015 तक कुल 1,05,443 प्रकाषन पंजीकृत है जिसमें 14,904 समाचार पत्र वर्ग एवं 90,459 आवधिक हैं। सबसे बड़ा परिचालित हिन्दी दैनिक जालंधर से प्रकाषित ‘पंजाब केसरी‘ है। स्वतंत्रता पष्चात तकनीक के विकास के साथ संचार माध्यमों का विकास तेज गति से हुआ है। आज संचार के कई साधन उपलब्ध है, अंतरजाल के माध्यम से कोई भी सूचना सेकंडों में विष्व के किसी भी कोने में पहुंचाई जा सकती है, किंतु स्वतंत्रता पूर्व पत्र-पत्रिकाओं ने समाज, राष्ट्र निर्माण, सांस्कृतिक उत्थान, साहित्यिक विकास के लिए जिस भूमिका का निर्वाह किया है उसका नितांत अभाव है। मीडिया में उद्योग जगत का कब्जा है। उद्योगपति और नेता मिलकर मीडिया को अपनी मर्जी से नियंत्रित करते दिखाई पड़ते हैं। स्वतंत्रता पूर्व राजनीति का उद्देष्य देष सेवा था किंतु आज कैरियर निर्माण का साधन है। राजनीति के पतन के साथ ही पत्रकारिता का भी अवमूल्यन हुआ है, पीत पत्रकारिता की शुरूआत हुई है। चुनाव आयोग द्वारा निर्वाचन में ‘पेड न्यूज‘ रोकने के लिए समिति गठित करना इसका प्रमाण है। बाजारवाद एवं उपभोक्ता संस्कृति के प्रभाव में आज मीडिया का बड़ा वर्ग है जो समाज एवं संस्कृति को प्रभावित कर रहा है।
संदर्भ सूची
1 शर्मा श्रीपालः पत्रकारिता की रुपरेखा, सुमीत एन्टरप्राइजेज़, नई दिल्ली, 2003, पृ.-50
2 शर्मा श्रीपालः पत्रकारिता की रुपरेखा, सुमीत एन्टरप्राइजेज़, नई दिल्ली 2003, पृ.-53
3 शर्मा रामविलासः भारतेन्दु युग और हिन्दी भाषा की विकास परंपरा, राजकमल प्रकाषन,. नईदिल्ली 1975, पृ.-24
4 मिश्र कृष्णबिहारीः हिन्दी पत्रकारिता, भारतीय ज्ञानपीठ नयी दिल्ली 2011, पृ.-132
5 कुमार अमरेन्द्रः युगप्रवर्तक पत्रकार और पत्रकारिता, नोएडा, अक्षराकंन प्रकाषन, 2005 ,पृ.-109
6 जैन संजीव कुमार: पत्रकारिता सिद्धांत एवं स्वरूप, कैलाष पुस्तक सदन भोपाल, पृ.-17
7 शर्मा श्रीपालः पत्रकारिता की रुपरेखा, सुमीत एन्टरप्राइजेज़, नई दिल्ली ़, 2003, पृ.-69
8 गुप्ता यू. सी.ःपत्रकारिता समस्या और समाधान, अर्जुन पब्लिषिंग हाऊस नई दिल्ली 2009, पृ.-53
Received on 21.01.2021 Modified on 14.02.2021
Accepted on 19.03.2021 © A&V Publications All right reserved
Int. J. Rev. and Res. Social Sci. 2021; 9(1):1-5.