छत्तीसगढ़ में कृषि प्रकारिकी

(Agricultural Typology in Chhattisgarh)

 

डाॅ. अनुसुइया बघेल

प्राध्यापक, भूगोल अध्ययनशाला, पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर.

*Corresponding Author E-mail:  anusuiya_baghel@yahoo.com

 

ABSTRACT:

प्रस्तुत अध्ययन छत्तीसगढ़ में कृषि प्रकारिकी से संबंधित है। प्रस्तुत अध्ययन के उद्देश्य छत्तीसगढ़ में कृषि प्रकारिकी को ज्ञात करना एवं कृषि प्रकारिकी को निर्धारित करने वाले सामाजिक एवं स्वामित्व, कार्यकारी एवं तकनीकी, उत्पादन एवं सरंचनात्मक चरों की व्याख्या है। प्रस्तुत अध्ययन कृषि सांख्यिकी एवं कृषि संगणना, 2015-16, निवेश सर्वे ;प्दचनज (Input Survey) 2016-17 पर आधारित है। प्रस्तुत अध्ययन में छत्तीसगढ़ को 5 कृषि प्रकारिकी में रखा गया है। कोस्ट्रोविक्सेंकी (1972) की अध्यक्षता में अंतर्राष्ट्रीय भौगोलिक संगठन द्वारा कृषि प्रकारिकी की व्याख्या हेतु विचरकों को 4 प्रमुख वर्गाें में वर्गीकृत किया गया है। प्रस्तुत अध्ययन में प्रथम वर्ग में सामाजिक में 8, द्वितीय वर्ग कार्यकारी में 7, तृतीय वर्ग उत्पादन में 7 और चतुर्थ में सरंचनात्मक में 6 विचरकों को शामिल किया गया है। इस तरह कुल 28 विचरकों को अध्ययन में शामिल किया गया है। सभी विचरकों को प्रतिशत, दर, अथवा अनुपात में व्यक्त किया गया है। छत्तीसगढ़ के 27 जिलों को अध्ययन की इकाई माना गया है। सभी जिलों को चयनित 28 विचरकों के आधार पर 5 वर्ग-अति निम्न, निम्न, मध्यम, उच्च और अति उच्च में बाँटा गया है। प्रत्येक जिले के सभी 28 विचरकों के कोड का योग किया गया है। तत्पश्चात् सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ को 5 कृषि प्रकारिकी में बाँटा गया है। प्रथम अर्द्ध वाणिज्यिक कृषि प्रदेश जो प्रदेश के पश्चिमी में मैकल श्रेणी के अंतर्गत शामिल है। यह कृषि प्रदेश व्यापारिक कृषि के लिए पूरे प्रदेश में प्रथम स्थान पर है। द्वितीय श्रम शक्ति एवं सिंचित खाद्यान्न फसल कृषि प्रकार प्रदेश के मध्य में मैदानी क्षेत्रों में विकसित है। इस क्षेत्र में सिंचाई साधन अपेक्षाकृत अधिक है। जिससे प्रति हे. उपज एवं शस्य विशेषीकरण अधिक पाया गया है। तृतीय पशु शक्ति निवेश एवं असिंचित धान कृषि प्रकार प्रदेश के दक्षिण में बस्तर के पठार के अंतर्गत शामिल है। विषम धरातल के कारण इन क्षेत्रों में जोत का आकार अपेक्षाकृत बडा है। यंत्री करण कम होने से पशु शक्ति का निवेश अधिक हुआ है जिससे प्रति हे. उत्पादन न्यून है। इन क्षेत्रों में सिंचाई सुविधा नगण्य होने के कारण मोटे अनाजों की कृषि की जाती है। चतुर्थ पशु शक्ति निवेश एवं असिंचित रबी फसल कृषि प्रकार के अंतर्गत कृषि में पशु शक्ति का निवेश अधिक हुआ है। औद्यौगिक उपज हेतु कृषि इन क्षेत्रों की विशेषता है। सिंचाई सुविधा अत्यंत कम होने के बाद भी रबी फसल जैसे गेंहू, और चना एवं गन्ना की कृषि के लिए यह क्षेत्र महत्वपूर्ण है। पंचम श्रम प्रधान असिंचित धान कृषि प्रकार में रासायनिक खाद एवं जैविक खाद के अधिक उपयोग किंतु सिंचाई सुविधा की कमी से प्रति हे. उत्पादन कम है। यह क्षेत्र एक फसलीय प्रदेश धान के अंतर्गत है।

 

KEYWORDS: प्रकारिकी, टाइपोग्राम, कार्यकारी, स्वामित्व, सरंचनात्मक।

 


 


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कृषि प्रकारिकी कृषि प्रकारों को निष्चित करने की कार्य पद्धति ;डमजीवकवसवहलद्ध है। जिसके द्वारा किसी भी क्षेत्र, प्रदेश या देष में कृषि के प्रकारों की निष्चित पहचान ;प्कमदजपजलद्ध कर सीमांकन ;च्तउंतमतंजमद्ध किया जा सके। इस पद्धति का विकास 20 वीं सदी की एक महान उपलब्धि है। अंतर्राष्ट्रीय भूगोल संघ ;प्ण् ळण् न्ण्द्ध के तत्वधान में गठित कृषि प्रकारिकी आयोग ;ब्वउउपेेपवद ि।हतपबनसजनतंस ज्लचवसवहलद्ध जिसके अध्यक्ष कोस्ट्रोविकी थे, ने एक नई पद्धति का विकास कर कृषि भूगोल में एक नया मापदंड स्थापित किया। इस आयोग का कार्यकाल 1964 से 1976 तक रहा। इन 12 वर्षों के समय में संसार के विभिन्न क्षेत्रों से आए भूगोलवेताओं के अथक परिश्रम एवं लगातार प्रयत्नों के फलस्वरूप एक ऐसी कार्य पद्धति की वृहत् रूपरेखा तैयार कर नई प्रणाली का सूत्रपात किया। यह प्रणाली नवीन ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक, सामाजिक एवं व्यावहारिक भी है। यही कारण है कि विष्व में भूगोल समुदाय ने इसे एकमत से स्वीकारा। इन 12 वर्षों में विभिन्न स्थानों पर आठ बैठक आयोजित हुई। जिससे एक निश्चित सुनियोजित वैज्ञानिक पद्धति का जन्म हुआ। कृषि प्रकारिकी का मुख्य स्वरूप ;थ्तंउमूवताद्ध या ढ़ाँचा एक कोड़ के समरूप माना गया है। जो है। साधारणतः कृषि प्रकारिकी का आधार किसी विशिष्ट प्रदेशमें विकसित कृषिगत स्वरूप के प्रकारात्मक प्रारूप की समीक्षा से है जो पद्धति से पदानुक्रम होते हंै।

 

कृषि के प्रकार से आशय फसल उत्पादन या पशुपालन के सुव्यवस्थ्ति प्रारूप से है, जिसमें सभी तत्व एवं प्रक्रियाओं में अन्यायोश्रित संबंध है। तथा जिनका विकास एवं संगठन सुनिश्चित ऐतिहासिक प्रक्रियाओं से हुआ है।

 

कृषि प्रकारिकी अवधारणा वर्गीकरण के सिद्धांत पर आधारित है, जो सभी प्रकार की कृषि में पाए जाने वाले गुणों के आधार पर किया जाता है। इसमें शस्यावर्तन प्रणाली, फसल तंत्र, आदि सभी वर्गीकरण की विधियाँ सम्मिलित हैं। यह अवधारणा पदानुक्रमीय सिद्धांत पर आधारित है। अर्थात कृषि के प्रकार उनके अनेक स्तर के हो सकते हैं। कृषि के आंतरिक गुणों में बदलाव के साथ कृषि के प्रकार में परिवर्तन हो जाते हैं। अतः यह एक अस्थिर विचारधारा है। कृषि के परम्परागत प्रकार समाप्त हो जाते हैं तथा नई प्रकार की कृषि परम्परा पनपती ळें

 

 

 

कृषि प्रकारिकी के सुनिश्चितीकरण से जुडे आंकडों एवं अभिलेखों को सामूहिक रूप से चार वर्गों में प्रस्तुत किया जा सकता है-1. सामाजिक एवं स्वामित्व संबंधी विशेषताएँ,

2. कार्यकारी एवं तकनीकी संबंधी विशेषताएँ,

3. उत्पादन संबंधी विशेषताएँ एवं 4. संरचनात्मक विशेषताएँ।

 

कोस्ट्रोविकी (1972) की अध्यक्षता में अंतर्राष्ट्रीय भौगोलिक संगठन द्वारा कृषि प्रकारिकी की व्याख्या हेतु सूत्र एवं कोड नंबर बनाए गए हैं, जो निम्नानुसार हैं-

 

ज् त्र कृषि का प्रकार, त्र सामाजिक एवं स्वामित्व विचरक, व् त्र कार्यकारी एवं तकनीकी विचरक, च् त्र उत्पादन संबंधी विचरक, ब् त्र संरचनात्मक विचरक।

 

कृषि के प्रतिरूप अनेक भौतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा तकनीकी कारकों के सम्मिलित क्रियाओं का परिणाम है। इन कारकों की स्थानिक भिन्नता से कृषि के विभिन्न प्रकार विकसित होते हैं। विष्व में सामान्य लक्षणों वाले कृषि प्रकार एक विषिश्ट पर्यावरण के अंतर्गत ही पाए जाते हैं। कृषि प्रकारिकी के माध्यम से कृषि प्रकारों की पहचान तथा सीमांकन किया जाता है। कृषि के प्रकारों में वर्गीकरण करना (कृषि प्रकारिकी) कृषि नियोजन में अध्ययन महत्वपूर्ण है। कृषि विकास की समस्याओं को हल करने में कृषि भूगोल एक वैज्ञानिक विषय के रूप में विकास तथा इसके व्यावहारिक अनुप्रयोग में प्रादेशिक, स्थानीय तथा वैश्विक स्तर पर इनके स्थानिक संगठन का ज्ञान आवश्यक है। कोस्ट्रोविकी (1977) के अनुसार कृषि के विभिन्न लक्षणों या विशेषताओं के एकाकी पक्ष के पृथक अध्ययनों द्वारा इस उद्देश्य की प्राप्ति संभव है। किंतु किसी क्षेत्र की कृषि की सामाजिक-आर्थिक, संक्रियात्मक, उत्पादन, एवं संरचनात्मक विशेषताओं के सम्मिलित अध्ययन द्वारा इसे प्राप्त किया जा सकता है।

 

तंत्र सिद्धांत के आधार पर कृषि के अध्ययन में उपसमुच्चय सम्मिलित है। इनमें प्रथम कृषि सामाजिक पक्ष जो भूमि के व्यवस्थापन से जुड़ा है, द्वितीय कृषि संचालन की प्रक्रिया में लगने वाला विनियोग, तृतीय कृषि उत्पादन तथा उत्पादकता तथा उत्पादों का वितरण, चतुर्थ पशुपालन तथा फसलों के आधार पर सुनिश्चित कृषि की संरचना, उपरोक्त उपतंत्र परस्पर संबंधित होते हैं। इनमें अन्योन्याश्रिता पाई जाती है, जिसके फलस्वरूप ये एक दूसरे से प्रभावित होते रहते हैं। ये सब मिलकर कृषि स्वरूप का निर्धारण करते हैं। अतएव कृषि के प्रादेशिक या क्षेत्रीय स्वरूप को समझने के लिए इन्हीं लक्षणों के आधार पर कृषि को वर्गीकृत किया जाता है।

 

कृषि के प्रकार का विचार पदानुक्रम ;भ्पमतंतबीपबंसद्ध होता है, क्योंकि कृषि के विभिन्न प्रकार विभिन्न तरीकों से हो सकते हैं। यह एकाकी फार्म से लेकर ग्राम स्तर तक की प्रशासनिक इकाइयों तथा निम्न स्तरीय तक हो सकते हैं। कृषि प्रकारिकी की संकल्पना गत्यात्मक ;क्लदंउपबद्ध है। वाह्य दशा में परिवर्तन होने के साथ ही साथ कृषि के विशिष्ट लक्षणों में परिवर्तन होना आवश्यक है। प्रक्रार्यात्मक अध्ययनों को अधिक प्रभावी तथा तुलनीय बनाने के लिए उपयुक्त चरों ;टंतपंइसमेद्ध का चयन करना आवश्यक होता है जो कृषि के लक्षणों का प्रतिनिधित्व करते हंै। कृषि प्रकारिकी के अध्ययन में आंकडों के विश्लेषण हेतु अनेक विधियों का प्रयोग किया जाता है। इनमें कोस्ट्रोविकी की आलेखी विधि ;ळतंचीपब डमजीवकद्ध सूचकांक में चरों का समूहन विधि ;डमजीवक िब्सनेजमतपदह टंतपंइसमे पद प्दकमग छनउइमतद्ध तथा कारक विष्लेषण विधि ;थ्ंबजवतम ।दंसलेपेद्ध प्रमुख हैं। कोस्ट्रोविस्की ने माॅडल टाइपोग्राम ;डवकमस ज्लचवहतंउद्ध की रचना के आधार पर कृषि प्रकारिकी का निर्धारण किया है।

 

विचरकों के प्रथम एवं अंतिम वर्ग (ब्संेे) के मध्य कितना अंतर हो यह अंतर 27 विचरक के संदर्भ में, प्रत्येक वर्ग ;टमतल सवू जव अमतल ीपहीद्ध का अधिकतम अंतर 27×4 विचरक (टंतपंइसम) का है। यदि इन्हें 10 प्रतिशत में विभाजित किया जाए तब 108 का हिस्सा 11 अंक प्रत्येक वर्ग के लिए आंका जा सकता है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि जिन प्रकारों के विचरकों का अंतर यदि 10 या 11 तक आता है तब उनके क्रम वरीयता में कोई अंतर नहीं आएगा तथा यह तृतीय वरीयता क्रम के प्रकार होंगे। लेकिन यह अंतर 11 से अधिक आए तब वरीयता का क्रम बदल जाएगा। तथा वह दूसरी क्रम की वरीयता का प्रकार (ज्लचम) होगा। यह वरीयता क्रम अधिकतम 20 प्रतिशत या 22 वरीयता (टंतपइसम) के अंतर का होगा। जैसे ही यह अंतर 30 प्रतिशत या 33 विचरक का होगा तब तक प्रथम वरीयता क्रम का होगा। इस क्रम वरीयता का आकलन कर प्रत्येक प्रकार के कृषि का नामांकन इसके अनुरूप वर्णाक्षरों (।सचींइमजे) से किया जाता है। इस प्रकार विभिन्न वरीयता क्रम (भ्पमतंतबीपबंस व्तकमत) के रूप भेदांे के अंतर को विचलन अंतर (क्मअपंजपवतल कपििमतमदबमे) कहा जाता है, जिसे टाइपोग्राम (ज्लचवहतंउ) के रूप में प्रदर्षित किया जा सकता है।

 

विष्व की कृषि प्रकारिकी पर अंतर्राष्ट्रीय भौगोलिक संगठन के विचार विमर्ष तथा अध्ययनों के परिणामस्वरूप कृषि की विशेषताएँं चार प्रमुख वर्गों में वर्गीकृत की जा सकती है- 1. सामाजिक एवं स्वामित्व संबंधी, 2. संगठनात्मक एवं तकनीकी संबंधी, 3. उत्पादन संबंधी एवं 4. संरचनात्मक विशेषताएँ। कृषि की प्रकारिकी के लिए मात्रात्मक चरों का चयन किया जाना चाहिए, इससे परिणाम सरलता से प्राप्त होते हैं। कृषि प्रकार निर्धारण करने हेतु आवश्यक सांख्यिकी सूचनाएँ एकत्रित करने के लिए सबसे छोटी क्रियाशील जोत को माना जाता है। इस कारण सूचनाएँ अनुपात, प्रतिशत, दर, आदि के रूप में होना चाहिए। उपरोक्त चरों के आधार पर कृषि प्रकारिकी को ज्ञात करने के लिए चरों से प्राप्त परिणामों को अंतर्राष्ट्रीय भौगोलिक परिषद् द्वारा सुझाई गई सारणियों से मापा जाता है।

 

कृषि प्रकारिकी को प्रदर्षित करने के लिए उच्च से निम्न स्तर पर समान रूप से पाँच वर्ग में श्रेणीबद्ध किया गया है- 1. अति निम्न, 2. निम्न, 3. मध्यम, 4. उच्च तथा 5. अति उच्च।

 

कृषि प्रकार से तात्पर्य फसलोत्पादन और पशुपालन के उस सुव्यवस्थित स्वरूप से है जिसके सभी तत्व एवं प्रक्रियाएं परस्पर अंर्तसंबंधित हो और जिनका विकास एवं संगठन निष्चित ऐतिहासिक क्रियाओं से हुआ हो। कृषि के प्रकारिकी अवधारणा वर्गीकरण के सिद्धांत पर आधारित है। यह वर्गीकरण कृषि के अंर्तनिहित उन गुणों के आधार पर किया जाता है जो सभी प्रकार की कृषि में किया जाता है।

 

कृषि प्रदेश एवं कृषि के प्रकार दोनों संष्लेषण की विधियाँ है, तथापि दोनों एक दूसरे से भिन्न है। कृषि के प्रकार का निर्धारण वर्गीकरण के सिद्धांत पर होता है और यह वर्गीकरण कृषि के अंर्तगत सभी गुणों के आधार पर किया जाता है। समान गुण धर्म वाली कृषि विष्व के विभिन्न भागों में और विभिन्न कालों में हो सकती है। एक प्रकारिकी कृषि का सनिकट होना आवश्यक नहीं है। इस अर्थ में इसे जातिगत ;ळमदमजपबद्ध प्रदेश कहा जाता है, जिसमें एक ही जाति (प्रकार) के कई प्रदेश होते हैं। इसके किसी कृषि प्रदेश एक स्थानिक अवधारणा है। इसका निर्धारण आंतरिक सामनता और बाह्य विभिन्नता के आधार पर किया जाता है। प्रदेश एक विशेष भू-भाग होता है, जिसकी निष्चित स्थिति के साथ अपनी विशेषताएँ होती है। जिनके कारण यह अन्य समीपवर्ती प्रदेश से भिन्न होता है। यह टुकडों में बँटा नहीं हो सकता, बल्कि लगातार फैला होता है।

 

प्रदेश और प्रकार दोनों के विभिन्न स्तर की इकाईयों में विभक्त किया जा सकता है, परंतु दोनांे विभाजन में अंतर होता है निम्न स्तरीय कृषि प्रदेशों की समता के आधार पर समूह बनाकर उच्च स्तर का प्रकार निर्धारित किया जाता है। भले ही ये निम्न स्तरीय प्रकार के क्षेत्र कहीं भी स्थित हो। इसके विपरीत लघु कृषि प्रदेश, बृहद् कृषि प्रदेश के भाग तथा उनकी सीमाओं के अंदर ही हो सकते हैं। इस तरह कृषि प्रकारों का पदानुक्रम उध्र्व प्रकार का होता है। इसमें क्षेत्रों का निकृष्ट से उत्कृष्ट प्रकारों में विभक्त होता है। परंतु कृषि प्रदेश का विभिन्न क्षैतिज प्रकार का होता है तथा बडे कृषि प्रदेश छोटी इकाईयों में बँट जाते हंै।

 

कृषि का यह स्वरूप केवल कृछ तत्वों का योग नहीं है, बल्कि अत्यधिक अंर्तसंबंधित तत्वों एवं प्रक्रियाओं वाले उपसमुच्चयों ;ैनइेमजेद्ध का समुच्चय है। इसी कारण कहा जाता है कि इसे समझने के लिए तंत्र सिद्धांत ;ैलेजमउ ज्ीमवतलद्ध अधिक उपयुक्त है। कृषि तंत्र का यदि विच्छेद कर दिया जाए तो इसके चार उपसमुच्चय ;ैनइेमजेद्ध स्पष्ट देखे जा सकते हैं। कृषि के प्रकारों का निर्धारण कृषि की आंतरिक विशेषताओं के आधार पर ही किया जाना चाहिए। इसे बाह्य विशेषताओं से अलग रखा जाना चाहिए। प्राकृतिक पर्यावरण, स्थिति, परिवहन और बाजार, आदि कृषि की विशेषताओं को दूर तक प्रभावित करते हैं। इसे आंतरिक विशेषताओं के साथ रखने में उस प्रक्रिया को समझने में कठिनाई होती है। जिसके परिणाम स्वरूप कृषि का कोई प्रकार उभर कर सामने नहीं आता है। इस कारण से बाह्य तत्व भले ही बडे प्रभावषाली हांे, कृषि प्रकरिकी के दायरों से बाहर होते हैं।

 

सीजेसी (1981) ने अल्पाइन क्षेत्र के अंतर्गत आस्ट्रिया एवं स्वीटजरलैंड के कृषि प्रकारिकी में 1960 से 1975 के मध्य परिवर्तन को बताया है। टिसविकी (1974) ने स्वीडन में चयनित 27 चरों के संयोजन के आधार पर कृषि प्रकारिकी को ज्ञात किया। श्रीमेर (1986) ने अल्जीरिया के व्हद् पैमाने पर स्वप्रबंध कृषि प्रकारिकी को टाॅक्सोनाॅमिक दूरी (ज्ंगवदवउपब क्पेजंदबम) की गणना कर ज्ञात किया। सिंह एवं सिंह (1986) ने भारत में कृषि प्रकारिकी वर्गीकरण का मूल्यांकन किया। लाल (1986) ने दिए गए माॅडल से विचलन ज्ञात कर कृषि प्रकारिकी का निरूपण किया। राॅय (1986) ने भारत में कृषि प्रकारिकी का निर्धारण शस्य संषलिस्ट संयोजन (ब्तवच ब्वउचसमग त्महपवद) के आधार पर किया। अली (1986) बंगला देष के कृषि प्रकारिकी को कारक विष्लेषण (थ्ंबजवत ।दंसलेपे) के आधार पर निर्मित किया। कैम्प (1959) ने डेनमार्क का कृषि प्रकार ज्ञात कर लघु, मध्यम तथा वृहत् जोत के लिए टाइपोग्राम की रचना की। सिंह (1975) ने भारत में कृषि प्रकारिकी को ज्ञात करने के लिए विभिन्न विधियों एवं तकनीकों का उल्लेख किया है। पंडा (1979) ने मध्यप्रदेश में कृषि प्रकारिकी को तीन प्रमुख और 8 उपभागों में विभक्त कर टाइपोग्राम की रचना की। स्टोला (1992) ने पोलैंड में कृषि भूमि उपयोग में 1940 से 1988 में परिवर्तन को ज्ञात किया। सक्सेना एवं मेहरोत्रा (1979) ने मध्यप्रदेश में कृषि विकास में प्रादेशिक भिन्नता को स्पष्ट किया और पूरे प्रदेश को अति विकसित, विकसित, कम विकसित और बहुत कम विकसित चार भागों में विभाजित किया।

 

अध्ययन के उद्देश्य ;व्इरमबजपअमेद्धरू 

प्रस्तुत अध्ययन के उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

1. छत्तीसगढ़ के कृषि प्रकारिकी को ज्ञात करना है।

2. प्रत्येक कृषि प्रकारिकी में सामाजिक, कार्यकारी, उत्पादन एवं सरंचनात्मक चरों की व्याख्या करना है।

 

आँकडों के स्रोत एवं विधितंत्र

;ैवनतबमे िक्ंजं ंदक डमजीवकवसवहलद्धरू

प्रस्तुत अध्ययन कृषि सांख्यिकी एवं कृषि संगणना, 2015-16, निवेश सर्वे  ;प्दचनज ैनतअमलद्ध 2016.17 पर आधारित है। कृषि प्रकारिकी ज्ञात करने के लिए कोस्ट्रोविकी (1972) की अध्यक्षता में अंतर्राष्ट्रीय भौगोलिक संगठन के द्वारा बताई गई विधि के अनुसार कृषि प्रकारिकी को ज्ञात किया गया है। प्रस्तुत अध्ययन में सामाजिक एवं स्वामित्व विचरक में 8, कार्यकारी एवं तकनीकी में 7, उत्पादन में 7 एवं सरंचनात्मक विचरकों में 6 चरों को शामिल किया गया है। इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में कृषि प्रकारिकी ज्ञात करने के लिए 28 विचरकों को शामिल किया गया है। सभी जिलों को चयनित 28 विचरकों के आधार पर 5 वर्ग-अति निम्न, निम्न, मध्यम, उच्च और अति उच्च में बांटा गया है। सभी विचरकों को प्रतिशत, दर, अथवा अनुपात में व्यक्त किया गया है। अध्ययन के लिए इकाई प्रदेश के 27 जिले हैं। प्रत्येक जिले के प्रत्येक विचरक को दिए गए कोड के अनुसार अंक प्रदान किएा गया है। प्रत्येक जिले के सभी 28 विचरकों के कोड का योग किया गया है। तथा प्रदेश को कुल 5 कृषि प्रकारिकी में बांट कर प्रत्येक कृषि प्रकारिकी को सामाजिक ;ैवबपंस ।जजतपइनजमेद्ध, कार्यकारी ;व्चंतंजपवदंस ।जजतपइनजमेद्ध, उत्पादन ;च्तवकनबजपवद ।जजतपइनजमेद्ध एवं संरचनात्मक ;ैजतनबजनतंस ।जजतपइनजमेद्ध विचरकों की विशेषताओं की व्याख्या की गई है। अंत में कोस्ट्रोविकी द्वारा बताया गया टाइपोग्राम ;ज्लचवहतंउद्ध की रचना की गई है।

 

अध्ययन क्षेत्र ;ैजनकल ।तमंद्धरू

नवगठित छत्तीसगढ़ राज्य का गठन भारत के 26 वें राज्य के रूप में 1 नवम्बर 2000 को हुआ। क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत में प्रदेष का स्थान 11 वां एवं जनसंख्या की दृष्टि से 17 वां है। छत्तीसगढ़ 17°46श् से 20°6श् उत्तरी अक्षांष एवं 80°15श् से 84°24श् पूर्वी देषांतर के मध्य 1,35,194 वर्ग कि.मी. क्षेत्र में विस्तृत है। 2011 की जनसंख्या के अनुसार छत्तीसगढ़ की कुल जनसंख्या 2,55,45,198 है। प्रदेष में जनसंख्या का घनत्व 189 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है। 2001 से 2011 के दषक में राज्य की जनसंख्या में 22.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। राज्य की 76.8 प्रतिषत जनसंख्या गाँव में निवास करती है। राज्य की 12.8 प्रतिषत जनसंख्या अनुसूचित जाति एवं 30.6 प्रतिषत जनसंख्या अनुसूचित जनजातियों की है। राज्य की कुल जनसंख्या में से 71.04 प्रतिशत जनसंख्या साक्षर है।

 

छत्तीसगढ़ प्रायद्वीप भारत का एक भाग है जो प्रचीन गोंडवाना लैंड का एक हिस्सा है। प्रदेश के उत्तरी एवं दक्षिणी भागों में आर्कियन शैल समूह का सर्वाधिक विस्तार है। दण्डकारण्य का अधिकांश भाग इसी चट्टानों से निर्मित है। प्रदेश के मैदानी भागों में कडप्पा चट्टानें पाई जाती है। महानदी बेसिन और मध्यवर्ती मैदान में चट्टानें कडप्पा शैल समूह की हैं। हसदो, केलो तथा मांड नदी घाटियों पर गोंडवाना समूह के बाराकर सीरीज के दृश्यांश पाये जाते हैं। क्षेत्र की प्रमुख नदी महानदी तथा एवं उनकी सहायक नदियों का प्रवाह क्षेत्र है। महानदी बेसिन का ढ़ाल पूर्व की ओर है। छत्तीसगढ़ का मैदान चारों ओर से उच्चभूमि द्वारा घिरा हुआ है। यह उच्च भूमि गोंडवाना और दक्कन ट्रैप, इत्यादि शैल समूहों द्वारा निर्मित है। उत्तर में जशपुर सामरी पाठ प्रदेश प्राचीन शैलों से निर्मित है इसके अंतर्गत सामरी पाट, जशपुर पाट और मैनपाट शामिल हंै। दण्डकारण्य प्रदेश छत्तीसगढ़ के दक्षिण भाग में स्थित है। दण्डकारण्य के मध्य-पश्चिम में अबूझमाड की पहाडियों स्थित है। यह क्षेत्र इंद्रावदी नदी का प्रवाह क्षेत्र है। प्रदेश में दक्षिण-पश्चिम मानसूनी हवाओं से वर्षा होती है। अतः यहाँ की जलवायु को मानसूनी जलवायु कहते है। छत्तीसगढ़ के उत्तरी भाग से कर्क रेखा गुजरती है, जिसके कारण यहाँ अधिक गर्मी पढ़ती है। कृषि के अध्ययन के वर्षा का महत्वपूर्ण स्थान होता है। छत्तीसगढ़ में सर्वाधिक वर्षा के क्षेत्र (150 सेमी. से अधिक) जशपुर, रायगढ़ और दण्डकारण्य प्रदेश है। छत्तीसगढ़ में कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 44.21 वनाच्छाादित है। छत्तीसगढ़ में महानदी घाटी के निचले भागों पर कन्हार मिट्टी पाई जाती है। यह प्रदेश की सबसे उपजाउ मिट्टी है। प्रदेश के उत्तरी एवं दक्षिणी भागों में भाठा मिट्टी पाई जाती है, जिसमें जल धारण की क्षमता कम होती है।

 

कृषि प्रकारिकी के निर्धारण हेतु चयनित विचरक:

;ैमसमबजमक टंतपंइसमे वित क्पजमतउपदंजपवद ि।हतपबनसजनतंस जलचवसवहलद्धरू

छत्तीसगढ़ में कृषि प्रकारिकी की व्याख्या हेतु विचरकों को 4 प्रमुख वर्गाें में वर्गीकृत किया गया है। प्रस्तुत अध्ययन में प्रथम वर्ग में सामाजिक में 8, द्वितीय वर्ग कार्यकारी में 7, तृतीय वर्ग उत्पादन में 7 और चतुर्थ में सरंचनात्मक में 6 विचरकों को शामिल किया गया है। इस तरह कुल 28 विचरकों को अध्ययन में शामिल किया गया है। सभी विचरकों को प्रतिशत, दर, अथवा अनुपात में व्यक्त किया गया है। छत्तीसगढ़ के 27 जिलों को अध्ययन की इकाई माना गया है। सभी जिलों को चयनित 28 विचरकों के आधार पर 5 वर्ग-अति निम्न, निम्न, मध्यम, उच्च और अति उच्च में बाँटा गया है। प्रत्येक जिले के प्रत्येक विचरक को दिए गए कोड के अनुसार अंक प्रदान किएा गया है। प्रत्येक जिले के सभी 28 विचरकों के कोड का योग किया गया है। तत्पष्चात् सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ को 5 कृषि प्रकारिकी में बाँटा गया है (सारणी क्र. 1,2,3)

 

सामाजिक चर ;ैवबपंस ।जजतपइनजमेद्धरू

1. निरा फसली क्षेत्र ;छमज ैवूद ।तमंद्धरू

फसलों तथा बागों के क्षेत्र का योग ही निराफसली क्षेत्र होता है। इस वर्ग की भूमि में केवल एक ही फसली क्षेत्र को सम्मिलित किया जाता है। प्रदेश के मध्यवर्ती मैदानी क्षेत्रों में जहाँ मंद ढाल, सिंचाई की सुविधा है, निराफसल का क्षेत्र अधिक है। इसके विपरीत वन तथा पहाडी क्षेत्रों में निराफसल का क्षेत्र कम है। छत्तीसगढ़ में 50.5 प्रतिशत निराफसली क्षेत्र है। प्रदेश में सर्वाधिक बेमेतरा जिले में निराफसली क्षेत्र 78.6 प्रतिशत है। तत्पश्चात् मुंगेली (77.5 प्रतिशत) तथा जाँजगीर-चाँपा (70.5 प्रतिशत) जिले का स्थान है। इसके विपरीत सबसे कम निराफसली क्षेत्र बीजापुर जिले में 12.8 प्रतिशत है। सुकमा में 29.0 प्रतिशत, कोरबा में 30.4 प्रतिशत, एवं कोंडागाँव जिले में 35.6 प्रतिशत क्षेत्र निराफसली क्षेत्र है।

 

2. जोत का आकार ;ैप्रम िस्ंदकीवसकपदहेद्धरू

जोतो का आकार शस्य प्रतिरूप एवं उत्पादन को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करता है। जोत का आकार कृषक के जीवन स्तर से घनिष्ट रूप से धनात्मक सहसंबंध होता है। ’’वह समस्त भूमि पूर्ण या आंशिक रूप से कृषि उत्पादन हेतु उपयोग में लाई जाती है तथा जो में स्वत्व, कानूनी स्वरूप, आकार अथवा स्थिति की ओर ध्यान देते हुए अकेले एवं सम्मिलित रूप से एक तांत्रिक ;ज्मबीदपबंस न्दपजद्ध इकाई के रूप में जोती जाती है’’ (कृषि संगणना, 2015-2016) ‘‘जोतो का आकार जहाँ एक ओर कृषि भूमि पर जनसंख्या के भार की समस्या की ओर संकेत करता है, वहीं दूसरी ओर आर्थिक-सामाजिक कारक एवं वातावरण भी उसे प्रभावित करते हैं‘‘ (दत्ता, 1997) इस प्रकार जोत के आकार का प्रभाव सामाजिक मूल्यों, रीति-रिवाज एवं कृषि संबंधी आर्थिक विशेषताओं पर पड़ता है। देश में कृषकों का स्तर उसके द्वारा धारित जोत के आकार से जाना जाता है। ’’जोत के आकार पर कृषि का पैमाना, उत्पादन, तकनीक, कृषि यंत्रों की संख्या तथा आकार, यंत्री शक्ति, निवेश की मात्रा निर्भर होते हैं।’’ जोत का आकार, कृषि पद्धति के चुनाव की आधारभूत इकाई है (शफी, 1960) ’’जोत का आकर पर कृषि कार्य की सरलता एवं फसलों के प्रतिरूप निर्धारित होता है‘‘ (सिंह, 1976)

 

कृषि के विकास को प्रभावषील एवं दक्ष नियोजन बनाने के लिए कृषि जोत की विस्तृत संरचना एवं विशेषताओं का ज्ञान होना आवश्यक होता है। कृषक की जोत वह भूमि है जिस पर एक इकाई के रूप में किसी व्यक्ति अथवा परिवार द्वारा कृषि की जाती है। कृषि प्रणालियों एवं प्रक्रियाओं को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारक एवं निर्धारक तत्व कृषि से जुडे हुए हंै। कृषि की सफलता के लिए जोत के आकार का पर्याप्त होना आवश्यक है जिससे कृषक कृषि संबंधी कार्यों को दक्षता पूर्वक संपादित कर पाते हैं। प्रदेश में सर्वाधिक जोत का आकार दंतेवाड़ा जिला में 5.02 हे. है। तत्पष्चात् सुकमा जिले में 3.34 हे. तथा बीजापुर जिले में 2.64 हे. है। प्रदेश के उत्तर में जोत का आकार 2 हे. से अधिक है। ये विषम धरातल विरल जनसंख्या के क्षेत्र हैं, जहाँ जनजातीय जानसंख्या की अधिकता है, घने वन है, कृषि की प्राचीन तरीकों से की जाती है एवं जोत का आकार अपेक्षाकृत बड़ा है। इसके विपरीत प्रदेश के बालोद जिले में (0.91), बिलासपुर जिले में (0.92) और मुंगेली में (0.89) तथा जाँजगीर-चाँपा जिले में (0.79) जोत का आकार 1 हे. से भी कम है। ये सघन जनसंख्या के क्षेत्र हैं।

 

3. प्रति हेक्टेयर जोतो की संख्या ;छनउइमत िस्ंदकीवसकमतेद्धरू

छत्तीसगढ़ में 2015-16 की कृषि संगणना के अनुसार प्रति हे. जोतो की संख्या 0.8 है। प्रदेश के विरली जनसंख्या के क्षेत्रों में जोत का आकार अपेक्षाकृत बड़ा है, वहाँ प्रति हे. जोतदार की संख्या कम है। इसके विपरीत घने जनसंख्या के क्षेत्रों में जोत का आकार छोटा है, वहाँ प्रति हे. जोतदार की संख्या अधिक है। प्रदेश के जाँजगीर-चाँपा जिले में प्रति हे. जोतदार की संख्या सर्वाधिक 1.26 है। इसी तरह बिलासपुर एवं मुंगेली (1.12), बलौदाबाजार (1.10) तथा धमतरी (1.08) जिलों में प्रति हे. जोत की संख्या एक से अधिक है। ये प्रदेश के घनी जनसंख्या के क्षेत्र हैं। प्रदेश के शेष 22 जिलों में प्रति हे. जोतों की संख्या एक से कम है।

 

Table-1: Variables Used in Agricultural Typology:

A)  Social Attributes:

i)                 Net sown area

ii)               Size of landholdings

iii)              Per ha landholders

iv)              Institutional landholdings

v)                Female landholders

vi)              Tenancy System (Wholly owned and Self Operated Holdings)

vii)             Scheduled tribes landholders

viii)           Literate landholders

 

B)   Operational Attributes:

ix)              Labour input (per100 Ha Total Cultivated Land)

x)                Input of livestock (Per Ha Net Sown Area)

xi)              Mechanization ((Per Ha Net Sown Area)

xii)             Chemical Fertilizer (kg Per ha)

xiii)           Irrigation (percent of Net Sown Area)

xiv)           Intensity of livestock (Conventional Unit Per 100 Ha Net Sown Area)

xv)             Organic manure (Percent of Total Cropped Area)

 

C)  Production Attributes:

xvi)           Land productivity

xvii)         Labour productivity (Kg Per Labour)

xviii)        Degree of commercialization (Percent of Commercialization Production To total Cropped Area)

xix)           Level of commercialization (Ratio of Commercialization Production To total Cultivated Land)

xx)             Crop specialization

xxi)           Crop intensity (percent of Total Cropped Area to Net Sown Area)

xxii)         Per ha production

 

D)  Structural Attributes:

xxiii)        Percent of Permanent grassland

xxiv)        Percentage of Food crops

xxv)          Percentage of rice

xxvi)        Percentage of millets

xxvii)       Percent of Industrial crops Production

xxviii)  Crop diversification (Percent of more than 1% Area of the Crops to total Cropped Area)

 

1. संस्थागत जोत ;प्देजपजनजपवदंस स्ंदकीवसकपदहेद्धरू

संस्थागत जोत से आशय शासकीय कार्य, सरकारी फार्म, शक्कर की फैक्टरी, आदि की भूमि शामिल है। मंदिरों से सम्बद्ध फार्म यदि किसी व्यक्ति विशेष को जोतने के लिए दी जाती है, तो ऐसी भूमि को संस्थागत भूमि माना गया है (कृषि संगणना, 2015-16) सम्पूर्ण छततीसगढ़ में संस्थागत जोतो की संख्या 3963 हे. है। प्रदेश में संस्थागत जोत सबसे अधिक बलौदाबाजार जिले में 1633 हे. है। इसी तरह महासमुंद (210 हे.), राजनाँदगाँव (251 हे.), मुंगेली (240 हे.), जाँजगीर-चाँपा (253 हे.) तथा रायपुर (214 हे.) में संस्थागत जोत 200 हे. से अधिक है। जबकि धमतरी, बेमेतरा तथा कोंडागाँव जिले में संस्थागत जोत भूमि नहीं है। संस्थागत जोत जशपुर (3 हे.), बालोद (13 हे.), बेमेतरा (14 हे.) तथा सुकमा (11 हे.) जिले में 15 हे. से कम है।

 

2. महिला जोतदार ;थ्मउंसम स्ंदकीवसकपदहेद्धरू

छत्तीसगढ़ में कुल जोतों में से 13.8 प्रतिशत महिला जोतदार है। महिला जोतदारों का सर्वाधिक प्रतिशत कांकेर जिले में 22.2 प्रतिशत है। तत्पश्चात् बेमेतरा तथा बिलासपुर (18.2 प्रतिशत) एवं कोरिया जिले (17.3 प्रतिशत) जिले का स्थान है। महिला जोतदार  सबसे कम जशपुर जिले में 8.8 प्रतिशत है।

 

3. भूस्वत्वाधिकार ;ज्मदंदेलद्धरू

भूधारण प्रणाली का तात्पर्य ऐसी प्रणाली से है, जिसके अनुसार शासन अथवा जमींदार से प्राप्त भूमि से किसी व्यक्ति के अधिकार तथा कर्तब्य निहित होते हंै। ऐसी भूमि के लगान का निर्धारण की स्थिति क्या हो, भू अधिकार किस समय के लिए दिया गया है, आदि तथ्य भूधारण प्रणाली के अंर्तगत शामिल हैं (कृषि संगणना, 2015-16) एक आदर्श भूधारण प्रणाली में भूस्वामी के निश्चित एवं स्थायी आधिपत्य मिलता है। सन् 1956 में राज्य पुर्नगठन के पश्चात् मध्यप्रदेश भू-राजस्व संहिता के लागू एवं प्रभावशील होने से अधिकांश भूमि का पूर्ण स्वत्व कृषकों को प्राप्त हो गया है, और वह अपनी भूमि का हस्तानांतरण, विक्री, दान, आदि के माध्यम से करने के लिए स्वतंत्र है। वर्तमान समय में तीन प्रकार की भूधारण प्रणालियाँ विद्यमान है।

 

ज्ंइसम.2रू ब्संेेमे िप्दकपअपकनंस ।जजतपइनजमे

 

प्रथम, सार्वजनिक उपयोग की भूमि - इसके अंतर्गत शासकीय अथवा सहकारी संस्थाओं की भूमि होती हैं, जो सार्वजनिक उपयोग के लिए निर्धारित है। जैसे- गोचर भूमि, स्कूल, अस्पताल, ग्राम पंचायत की जमींन। द्वितीय पूर्णतः स्वयं का एवं स्वयं के द्वारा जोती गई भूमि-इसका पूर्ण स्वामित्व कृषक का होता है। तथा उसे इस कृषि भूमि पर मालिकाना मकबूजा अधिकार प्राप्त होता है। इसे वह किसी को विक्री, दान या चाहे दूसरे को हस्तांतरित कर सकता है। तृतीय, ऐसी जोत अल्पकाल के लिए भाड़े पर दिए जाते हैं-प्रदेश में कुछ कृषकों का कृष्येतर व्यवसाय में संलग्नता अथवा वृहत आकार के जोत वाले कृषकों के द्वारा स्वयं कृषि कार्य कर पाने के कारण भूमि अस्थायी रूप से एक वर्ष के लिए अथवा एक फसल ऋतु के लिए भाड़े पर दी जाती है। छत्तीसगढ़ में 96 प्रतिशत जोत पूर्णतः स्वयं का एवं स्वयं के द्वारा जोती गई भूमि है। जोत पूर्णतः स्वयं का एवं स्वयं के द्वारा जोती गई भूमि बालोद, बेमेतरा एवं बिलासपुर जिले में शतप्रतिशत है, इसके विपरीत सुकमा जिले में यह 95.5 प्रतिशत है। शेष भूमि भाडे़ पर-निष्चित फसल उत्पादन पर, निष्चित उपज, या निष्चित मुद्रा शर्त पर दी गई है।

4. अनुसूचित जनजातीय जोतदार ;ैबीमकनसमक ज्तपइमे स्ंदकीवसकमतेद्धरू

छत्तीसगढ़ प्रदेश के उत्तरी एवं दक्षिणी भागों में विषम धरातल के क्षेत्रों में अनुसूचित जनजातीय जनसंख्या निवासरत है। इनकी अपनी विशेषताएँ हैं। इनकी कृषि परम्परागत विधियों पर आधारित है। अतः इन क्षेत्रों में विशिष्ट कृषि प्रकारिकी पाया जाता है। सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में जनजातीय जोतदारों का प्रकारिकी पाया जाता है। सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में जनजातीय जोतदारों का प्रतिशत 31.4 प्रतिशत है। अनुसूचित जनजातीय जोतदारों का सर्वाधिक प्रतिशत सुकमा जिले में 88.9 प्रतिशत है। तत्पश्चात् बीजापुर (83.1 प्रतिशत) तथा नारायणपुर (82.8 प्रतिशत) जिले का स्थान है इसके विपरीत रायपुर (2.8 प्रतिशत), बेमेतरा (4.60 प्रतिशत) दुर्ग (5.1 प्रतिशत) एवं मुंगेली (8.7 प्रतिशत) जिलों में अनुसूचित जोतदारों का प्रतिशत 10 प्रतिशत से भी कम है।

 

5. साक्षर कृषक ;स्पजमतंजम ब्नसजपअंजमतेद्धरू

साक्षरता एक महत्वपूर्ण सामाजिक विशेषता है। कृषक साक्षर होने से कृषि नवाचार के घटकों को आसानी से अंगीकार करते हैं। छत्तीसगढ़ में कुल कृषकों में 73.5 प्रतिशत कृषक साक्षर हैं। सर्वाधिक साक्षर कृषक दुर्ग जिले में 86.1 प्रतिशत है। तत्पश्चात् धमतरी (84.7 प्रतिशत), बालोद (83.4 प्रतिशत), जशपुर (81.1 प्रतिशत) जिले का स्थान है। इन जिलों में 80 प्रतिशत से अधिक कृषक साक्षर हैं। इसके विपरीत सबसे कम साक्षर कृषक दंतेवाडा जिले में 14.9 प्रतिशत है। तत्पश्चात् बीजापुर (23.6 प्रतिशत) तथा सुकमा (37.2 प्रतिशत) जिले में है। इन जिलों में 40 प्रतिशत से भी कम साक्षर कृषक हैं।

 

ज्ंइसम.3रू ब्संेेमे वित ैमसमबजमक प्दकपअपकनंस ।जजतपइनजमे

 

कार्यकारी चर ;व्चतंजपवदंस ।जजतपइनजमेद्धरू

6. श्रम शक्ति का निवेश ;प्दचनज िस्ंइवनतद्धरू

प्रदेश की कृषि श्रम प्रधान है। कृषि क्षेत्र में कृषकों और कृषि श्रमिकों का भार इतना अधिक है कि श्रम शक्ति अतिरेक की स्थिति उत्पन्न होती है, और कृषि श्रमिकों को बेरोजगार होना पडता है। कृषि क्षेत्र में कृषकों और कृषि श्रमिकों का भार प्रति 100 हे. कृषिभूमि में व्यक्त किया गया है। जिन क्षेत्रों में कृषि में यंत्रीकरण कम हुआ है, वहाँ कृषि श्रमिकों के द्वारा ही कृषि कार्य सम्पन्न होता है। कृषि में श्रम निवेश की ग्रामीण जनसंख्या के लिंगानुपात पर निर्भर करता है। श्रम निवेश कुल कृषि भूमि में कृषि और कृषि श्रमिकों के प्रतिशत के रूप में व्यक्त किया जाता है। मानव श्रम का उपयोग पूरे प्रदेश में 160 श्रमिक प्रति 100 हे. कृषि भूमि है। यह सर्वाधिक गरियाबंद जिले में 166 है तथा द्वितीय स्थान पर मुंगेली जिले (160) तथा तृतीय स्थान पर बालोद (153) जिला है। सघन जनसंख्या के मैदानी क्षेत्र हैं। ये अनुसूचित जातियों की प्रधानता है। ये अधिकांषतः भूमिहीन श्रमिक हैं, अतः यहाँ खेतों में कार्य करने के लिए श्रमिक आसानी से मिल जाते हैं। इसके विपरीत बस्तर के पठार तथा सरगुजा के उच्चभूमि में मानव श्रम शक्ति का उपयोग 90 से कम है। यहाँ जनसंख्या कम है जिससे मानव श्रम का उपयोग कम है।

                                       कृषक $ कृषि श्रमिक

                          श्रम निवेश = ............................................................

                                          कुल कृषि भूमि

 

7. पषु शक्ति निवेश ;प्दचनज ि।दपउंस च्वूमतद्धरू

छत्तीसगढ़ की कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था में पशु शक्ति निवेश का महत्वपूर्ण स्थान है। खेतों की जुताई, बियासी तथा फसलों के मिसाई में मुख्य रूप से पशु शक्ति का ही उपयोग किया जाता है। पशु शक्ति निवेश से तात्पर्य प्रति 100 हे. निरा फसली क्षेत्र में हल जोत पशुओं की संख्या (तीन वर्ष से अधिक उम्र के हल जोत योग्य पशु) इसमें सम्मिलित किए गए हैं। यद्यपि प्रत्येक पशु की कार्य शक्ति एवं क्षमता भिन्न-भिन्न होता है। परंतु हल जोत पशुओं को एक इकाई मानकर प्रदेश में पशु शक्ति निवेश की गणना की गई है।

                                   हल जोत योग्य पशुओं की कुल संख्या

           पशु शक्ति निवेश =.............................................................................................................× 100

                                        निरा बोया गया क्षेत्रफल

 

प्रदेश में पशुओं की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है। इन पशुओं की सामान्यतः दशा अच्छी नहीं है। जनसंख्या में वृद्धि के फलस्वरूप अधिकांश चारागाह भूमि क्रमशः कृषि के अंतर्गत लाई जा रही है। इसके परिणाम स्वरूप चारागाहों की कमी पशुओं की स्थिति में सुधार के लिए सबसे बडी बाधा है। पशु उत्पादन बढ़ाने के लिए योजनाबद्ध ढंग से एक लम्बे समय की कार्यक्रम की अवश्यकता है। प्रदेश में पशुओं का उपयोग 100 हे. निरा फसली क्षेत्र में 86 है। यह सबसे अधिक कांेड़ागाँव जिले में 206 हल योग्य पशु प्रति 100 हे. निरा फसली क्षेत्र है। सरगुजा जिले (151) तथा कोरिया जिले का (112) तृतीय स्थान है। प्रदेश के मैदानी क्षेत्र के अंतर्गत धमतरी एवं बेमेतरा जिले में यह संख्या मात्र 45 है। इसी तरह रायपुर एवं कबीरधाम जिले में मात्र 54 है। वास्तव में जिन जिलों में यंत्रीकरण कम हुआ है, उन क्षेत्रों में अभी भी कृषि में पशुओं का उपयोग अधिक किया जाता है। प्रदेश के उत्तरी एवं दक्षिणी विषम धरातल के क्षेत्र में जहाँ कृषि विकास का स्तर अत्यंत न्यून है। पशुओं का उपयोग, लकडी के हल में अधिक किया जाता है। उल्लेखनीय है कि प्रदेश के दक्षिण में बस्तर के पठार के अंतर्गत हल योग्य पशु में तीन वर्ष से अधिक उम्र के गाय एवं भैंस (मादा पशु) भी शामिल है जो केवल काम में लाई जाती है। दंतेवाड़ा एवं सुकमा जिले में कुल पशु शक्ति निवेश में से 34.8 प्रतिशत गाय एवं भैंस है। इसी तरह बीजापुर जिले में 16.5 और बस्तर जिले में 11.2 प्रतिशत पशु शक्ति निवेश गाय एवं भैंस है। कोंड़ागाँव जिले में यह प्रतिशत 4.3 प्रतिशत है। उल्लेखनीय है कि बस्तर के पठार के अंतर्गत जनजातीय जनसंख्या गाय के दूध का उपयोग नहीं करते। यह आदिवासियों में कुपोषण का एक महत्वपूर्ण कारक हैं। ये लोग पशुओं को जंगल में छोड़ देते है। केवल कृषि कार्य के दिनों में पशुओं को जंगलों से ढूंढ कर लाते हैं।

 

8. यंात्रिक शक्ति निवेश ;प्दचनज िडमबीमदपबंस च्वूमतद्धरू

कृषि कार्य में पूंजी निवेश का सबसे बडा भाग यांत्रिक शक्ति निवेश का है। कृषि यंत्रों के प्रयोग से अधिकांश मानव श्रम शक्ति का विस्थापन होता है। फिर भी कृषि कार्य सरलता एवं शीघ्रता से सम्पन्न होता है। कम जनसंख्या वाले देशों के लिए कृषि यंत्रों का प्रयोग वरदान सिद्ध हुआ है। किसी भी औजार, उपकरण एवं मशीनों के उपयोग कर जिससे कृषक को अधिक फसल उत्पादन में सहायता मिले, जिससे कृषि क्रियाएँ अधिक आराम से कम समय और कम खर्च पर की जा सके, यंत्रीकरण कहते हैं (स्टेम्प, 1968) छत्तीसगढ़ में कृषि आधुनिकीकरण कमजोर एवं पिछडी हुई है। निर्धनता, अज्ञानता तथा पुराने चीजों से मोह कुछ ऐसे कारण है, जो आधुनिक कृषि के साधन एवं विकसित उपकरणों के उपयोग में बाधक है। प्रदेश के कृषकों द्वारा उपलब्ध स्थानीय सामग्री से ही निर्मित उपकरण उपयोग में लाया जाता है, जबकि यह युग यंत्रीकरण और नई पद्धति अपनाने का है। प्रदेश में यांत्रीकरण की मात्रा के अंतर्गत ट्रैक्टर की संख्या को लिया गया है, जो प्रति 100 हे. निराफसली क्षेत्र में व्यक्त किया गया है। प्रदेश में ट्रैक्टर का सर्वाधिक उपयोग में धमतरी जिले (25) का प्रथम स्थान, रायपुर जिले (22) का द्वितीय स्थान तथा दुर्ग जिले का (20) तृतीय स्थान है। इसके विपरीत बस्तर के पठार में प्रति 100 हे. निराफसली क्षेत्र में ट्रैक्टर की संख्या मात्र 1 अथवा 2 है। इसी तरह सरगुजा उच्चभूमि में इसकी संख्या मात्र 2 है।

 

9. रासायनिक उर्वरक का उपयोग ;न्ेम िब्ीमउपबंस थ्मतजपसप्रमतद्धरू

निरंतर फसल उगाने से भूमि की उर्वरा में क्रमशः कमी होती है, जिसको बनाए रखने के लिए खाद एवं उर्वरक का उपयोग आवश्यक है। विपुल उपज देने वाली बीजों से अधिकतम लाभ तभी प्राप्त किया जा सकता है, जब तक उसमें उचित जल प्रबंध के साथ ही उर्वरकों का भी अनुकुलतम उपयेग हो। वास्तव में उर्वरक असिंचित क्षेत्र की फसलों के उत्पादन मंें वृद्धि में भी सहायक है। इस कारण रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग सघन कृषि प्रक्रिया के कारकों की एक कुंजी है (मिश्रा, 1968) प्रदेश में इसे प्रति हे. निराशस्य भूमि पर रासायनिक उर्वरकों के उपयोग के रूप में व्यक्त किया जाता है। प्रदेश में प्रति हे. निराफसली भूमि पर रासायनिक खाद का उपयोग सबसे अधिक धमतरी जिले में 84.8 किग्रा. है। द्वितीय स्थान जाँजगीर-चाँपा जिले (71.8 किग्रा.) का है। रासायनिक खाद का उपयोग रायपुर, गरियाबंद एवं बलौदाबाजार जिलों में 63.5 किग्रा. तथा दुर्ग, बालोद एवं बेमेतरा जिलों में 41.5 किग्रा. एवं रायगढ़ जिला में 59.5 किग्रा. है। बस्तर के पठार में रासायनिक खाद का उपयोग अत्यंत न्यून है। सुकमा, बीजापुर एवं दंतेवाड़ा जिले में रासायनिक खाद का उपयोग 1.9 किग्रा. प्रति हे. निराफसली क्षेत्र है।

 

10. सिंचाई ;प्ततपहंजपवदद्धरू

सिंचाई कृषि के लिए अत्यंत आवश्यक है। अव्यवस्थित, असमान और अपर्याप्त वर्षा के प्रभाव को मुख्यतः सिंचाई के साधनों द्वारा कम किया जा सकता है। साथ ही एक वर्ष से दूसरे वर्ष की अधिकता की मात्रा का प्रभाव भी सिंचाई द्वारा दूर किया जा सकता है। छत्तीसगढ़ प्रदेश में निराफसली क्षेत्र में सिंचाई का प्रतिशत 30 है। सर्वाधिक सिंचाई रायपुर जिले में 82 प्रतिशत है। तत्पष्चात् धमतरी (78), जाँजगीर-चाँपा (78), दुर्ग (61) एवं बालोद (50 प्रतिशत) जिले का क्रमषः द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ स्थान है। इसके विपरीत प्रदेश के दक्षिण में बस्तर के पठार में (कांकेर जिले का छोडकर) सभी जिलों में सिंचाई 5 प्रतिशत से कम है। प्रदेश के उत्तरी भाग में सरगुजा उच्चभूमि में 10 प्रतिशत सिंचित है।

 

11. पषुओं की गहनता ;प्दजमदेपजल िस्पअमेजवबाद्धरू

पशुपालन से कृषक को कृषि कार्य में सहायक होने के साथ-साथ उसे कुछ अतिरिक्त आय भी प्राप्त होती है। हल योग्य पशुओं के साथ-साथ कृषक गाय, बकरी, सुअर, आदि पालता है। इस तरह पशुपालन कृषि का ही एक अंग है। पशुपालन गहनता ज्ञात करने के लिए सभी पशुओं को एक इकाई में दिए गए मापदंड के आधार पर एक इकाई में परिवर्तित किया गया है। विभिन्न प्रकार के पशुओं को उनकी भोजन की आवश्यकता के आधार पर पशु इकाइयों में बदल दिया गया है। और तत्पश्चात् इनका घनत्व प्रदर्शित किया गया है। प्रदेश में पशुओं का घनत्व प्रति 100 हे. निराफसल क्षेत्र में 184 पशु इकाई है। प्रदेश के उत्तरी तथा दक्षिणी विषम धरातल के क्षेत्रों में यह 200  से अधिक है। जबकि सबसे कम कोरबा और कबीरधाम जिले में 140 पशु इकाई प्रति 100 हे. निराफसली क्षेत्र है। गरियाबंद जिले में भी यह संख्या 145 है।

 

12. जैविक खाद ;व्तहंदपब थ्मतजपसप्रमतद्धरू

प्रदेश में कुल फसली क्षेत्र पर जैविक खाद का उपयोग प्रति हे. सर्वाधिक महासमुंद जिले में 17.4 प्रतिशत है। तत्पष्चात् कोरिया (15.2) तथा बिलासपुर एवं मुंगेली जिले (14.2 प्रतिशत), रायपुर, बेमेतरा एवं गरियाबंद जिले (12.2 प्रतिशत) का स्थान है। बस्तर के पठार के अंतर्गत दंतेवाड़ा, सुकमा तथा बीजापुर जिला (2.7 प्रतिशत) एवं उत्तर में सरगुजा उच्चभूमि के अंतर्गत सरगुजा, बलरामपुर एवं सुरजपुर जिले (4.1 प्रतिशत), तथा जषपुर एवं रायगढ़ जिले (3.1 प्रतिशत) में जैविक खाद का उपयोग अत्यंत न्यून है।

उत्पादन चर ;च्तवकनबजपवद ।जजतपइनजमेद्ध

 

13. भूमि उत्पादकता ;स्ंदक च्तवकनबजपअपजलद्धरू

छत्तीसगढ़ प्रदेश में कृषि उत्पादकता शफी (1979) की सूचकांक विधि के अनुसार ज्ञात की गई है। शफी ने पूरे फसलों की औसत उत्पादकता ज्ञात की है, जो जिले के सभी फसलों का औसत उत्पादन के योग को प्रदेश के सभी फसलों के उत्पादन का योग का अनुपात है। प्रदेश में भूमि उत्पादकता सर्वाधिक सूरजपुर जिले में 1.21 है। तत्पश्चात् कोंडागाँव (1.18) तथा धमतरी (1.12) जिले का स्थान है। बस्तर के पठार में कृषि उत्पादकता दंतेवाड़ा (0.70) में सबसे कम है। कृषि उत्पादकता कोरिया (0.73), बीजापुर (0.77) एवं सुकमा (0.78) जिलों में अत्यंत न्यून है। शफी ने कृषि उत्पादकता ज्ञात करने हेतु निम्नलिखित सूत्र का उपयोग किया है-

कृषि उत्पादकता

यहाँ 1 2 = जिले में फसल का उत्पादन

1 2 = जिले में फसल का क्षेत्रफल

ल्1 ल्2 = प्रदेश में फसल का उत्पादन

ज्1 ज्2 = प्रदेश में फसल का क्षेत्रफल

 

14. श्रम उत्पादकता ;स्ंइवनत च्तवकनबजपअपजलद्धरू

प्रदेश में श्रम उत्पादकता प्रति हे. 1370 किग्रा. है। सर्वाधिक श्रम उत्पादकता जाँजगीर-चाँपा जिले में 2279 किग्रा. प्रति हे. है। दुर्ग जिले का (1962) द्वितीय, सुकमा जिले (1727) का तृतीय तथा धमतरी जिले का (1721) चतुर्थ स्थान है। श्रम उत्पादकता सबसे कम गरियाबंद जिले में 702 किग्रा. प्रति हे. है। इसी तरह नारायणपुर (970) तथा कोरबा जिलों में भी (924) यह 1000 से कम है।

 

15. व्यापारीकरण की मात्रा ;क्महतमम िब्वउउमतबपंसप्रंजपवदद्धरू

व्यापारीकरण की मात्रा कृषि विकास का एक अति विशिष्ट महत्वपूर्ण सूचकांक है। व्यापरीकरण कृषि तथा कृषक की जीवन पद्धति के स्थानांतरण की प्रक्रिया है। इसमें परम्परागत निर्वाहक अर्थव्यवस्था बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था में परिवर्तन होता है। प्रदेश में व्यापरीकरण की मात्रा 39 प्रतिशत है। यह धमतरी जिले में सर्वाधिक 59.8 प्रतिशत है। तत्पश्चात् बेमेतरा जिला (57 प्रतिशत) का द्वितीय स्थान, गरियाबंद जिला (50.9 प्रतिशत) का तृतीय स्थान तथा बालोद जिले का (50.8 प्रतिशत) चतुर्थ स्थान है। इसके विपरीत सरगुजा उच्चभूमि में यह मात्रा 20 से 25 प्रतिशत है। जबकि बस्तर के पठार में कांकेर, दंतेवाड़ा, सुकमा एवं बीजापुर जिले में यह मात्रा 30 से 50 प्रतिशत है।

                                  कुल वाणिज्यिक फसलों का उत्पादन

         व्यापारीकरण की मात्रा =............................................................................................    × 100

                                     कुल फसलों का उत्पादन

 

16. व्यापारीकरण का स्तर ;स्मअमस िब्वउउमतबपंसप्रंजपवदद्धरू

व्यापारीकरण का स्तर जोतों के आकार से संबंधित है। व्यापारीकरण के स्तर को प्रभावित करने वाले कारकों में अर्थव्यवस्था में तीव्र वृद्धि, नई तकनीकी का ज्ञान, बाजार का विस्तार, व्यापार का उदारीकरण, भोजन के लिए मांग में तीब्र वृद्धि, कृषि क्षेत्रों में सुविधाओं में विकास और नई कृषि नीति महत्वपूर्ण है। प्रदेश में व्यापारीकरण का स्तर 0.59 मि. टन प्रति हे. है। यह धमतरी जिले में सर्वाधिक 1.93 मि. टन प्रति हे. है। तत्पश्चात् जाँजगीर-चाँपा (1.49) तथा रायपुर (1.33) जिलों का क्रमशः द्वितीय एवं तृतीय स्थान है। बालौद, बेमेतरा एवं मंुगेली जिलों में व्यापारीकरण का स्तर 1 से अधिक है। कोरबा जिले में यह मात्र 0.04 मि. टन प्रति हे. है। इसी तरह बस्तर, कोंडागाँव तथा नारायणपुर जिलों में यह स्तर 0.2 मि. टन से कम है।

                                                   कुल वाणिज्यिक उत्पादन

        व्यापारीकरण का स्तर (प्रति हे./क्विंटल में) = .............................................................................                                                                       कुल कृषि भूमि

 

17. शस्य विशेषीकरण ;ब्तवच ैचमबपसप्रंजपवदद्धरू

कृषि का महत्व शस्य विशेषीकरण से संबंध होता है। फसलों की संख्या अधिक होने पर शस्य विशेषीकरण कम और फसलों की संख्या कम होने पर शस्य विशेषीकरण अधिक होगा। अतः शस्य विशेषीकरण किसी भी क्षेत्र के फसल प्रतिरूप को इंगित करता है। शस्य विशेषीकरण भौतिक कारक विशेषकर वर्षा एवं मिट्टी की उत्पादकता पर निर्भर करता है। जिन क्षेत्रों शस्य विशेषीकरण अधिक है, वहाँ धान का प्रतिशत अधिक है। प्रदेश में शस्य विशेषीकरण सर्वाधिक बीजापुर जिले में 0.86 है। तत्पष्चात् महासमुंद (0.81), जाँजगीर-चाँपा (0.78), गरियाबंद (0.72) तथा रायपुर एवं बलौदाबाजार जिले (0.65) का स्थान है। इसके विपरीत बलरामपुर जिले में यह सबसे कम 0.21 है। कबीरधाम (0.24) एवं बेमेतरा (0.28) जिलों में शस्य विशेषीकरण अत्यंत न्यून है। सरगुजा उच्चभूमि के अंतर्गत शस्य विशेषीकरण 0.30 से 0.40 है।

 

शस्य विशेषकरण ज्ञात करने के लिए जाॅन डब्ल्यु वेब (1959) की कार्यिक वर्गीकरण की विधि को आधार माना गया है।

 

ैर  त्र ैचमबपंसप्रंजपवद प्दकमग वित कपेजंदबम

प्री त्र ।उवनदज िसंदक कमअवजमक जव बतवच पद कपेजतपबज

प्र त्र ज्वजंस ।उवनदज िसंदक वितउमक पद कपेजतपबज

त्र ज्वजंस दनउइमत िबतवचे

 

18. शस्य तीव्रता ;ब्तवच प्दजमदेपजलद्धरू

शस्य तीव्रता का संबंध एक ही भूमि में एक ही वर्ष में उत्पन्न की जाने वाली फसलों की संख्या से है। प्रदेश में शस्य गहनता 121.1 प्रतिशत है। यह सर्वाधिक मुंगेली जिले में 162.9 प्रतिशत है। तत्पश्चात् धमतरी (156.9), बेमेतरा (151.3) तथा बालोद (144.6 प्रतिशत) जिले का स्थान है। इसके विपरीत सम्पूर्ण बस्तर के पठार के सातों जिलों में शस्य गहनता 105 प्रतिशत से भी कम है। मात्र कांकेर जिले में यह 107.9 प्रतिशत है। जबकि सरगुजा उच्चभूमि में यह 110 से 115 प्रतिशत है।

                                           कुल फसली क्षेत्र

                            शस्य तीव्रता = ...........................................................................× 100

                                        निराफसली क्षेत्र

 

 

19. प्रति हेक्टेयर उत्पादन ;च्तवकनबजपवदद्धरू

संपूर्ण छत्तीसगढ़ में प्रति हे. औसत उपज 1.34 मि. टन है। प्रदेश में सर्वाधिक उत्पादन जाँजगीर-चाँपा जिले में 2.4 मि. टन है। तत्पश्चात् धमतरी जिले (2.10 मि. टन) का स्थान है। इसके विपरीत प्रदेश के दक्षिण में बस्तर एवं दंतेवाडा (0.98 मि. टन) और नारायणपुर (0.94 मि. टन) जिले में प्रति हे. उत्पादन 1 मि. टन से भी कम है।

 

वास्तव में प्रति हे. उपज कृषि संचालन की प्रक्रिया में लगने वाला विनियोग पर निर्भर करता है। प्रदेश के दक्षिणी भाग में बस्तर के पठारी प्रदेश में अनुसूचित जनजातीय जनसंख्या कृषि पर विनियोग बहुत कम कर पाते है। इसके विपरीत प्रदेश के मध्यवर्ती मैदानी क्षेत्र के कृषि संलग्न की प्रक्रिया में विनियोग अधिक करते हैं, जिससे उत्पादन अधिक प्राप्त होता है।

 

सरंचनात्मक चर ;ैजतनबजनतंस ।जतपइनजमेद्ध

20. स्थायी चारागाह ;च्मतउंदमदज च्ंेजनतमसंदकद्धरू

स्थायी चारागाह सर्वाधिक सुरजपुर जिले में 30.6 प्रतिशत है। स्थायी चारागाह बलरामपुर जिले (22.9 प्रतिशत), कोरिया (13.7 प्रतिशत), रायगढ़ (12.7 प्रतिशत), रायपुर जिले (12.6 प्रतिशत), कांकेर जिले (11.1 प्रतिशत) तथा कबीरधाम जिले में (10.1 प्रतिशत) 10 प्रतिशत से अधिक है। किंतु बस्तर के पठार में (कांकेर जिले को छोडकर) यह प्रतिशत अत्यंत कम है। स्थायी चारागाह दंतेवाड़ा जिले में मात्र 1.4 प्रतिशत तथा बीजापुर जिले में 1.9 प्रतिशत है।

 

21. खाद्य फसलें ;थ्ववक ब्तवचेद्धरू

छत्तीसगढ़ में खाद्य फसलें कुल फसली क्षेत्र का 97.8 प्रतिशत है। प्रदेश के सभी जिलों में खाद्य फसलों का प्रतिशत 95 प्रतिशत से अधिक है। यह प्रतिशत सर्वाधिक बीजापुर जिले में 99.9 प्रतिशत है। प्रदेश के तीन जिलों बेमेतरा, कबीरधाम तथा बलरामपुर जिलों में खाद्य फसलों का प्रतिशत 95 प्रतिशत से कम है। खाद्य फसलों का प्रतिशत कबीरधाम जिले में 88.4 प्रतिशत है, क्योंकि इस जिले में व्यापारिक फसलों सोयबीन, गन्ना भी मुख्य फसलों में शामिल है।

 

22. धान ;च्ंककलद्धरू

छत्तीसगढ़ की कृषि में धान सबसे महत्वपूर्ण फसल है। क्षेत्र तथा उत्पादन दोनों में ही जिले के सभी फसलों में धान प्रथम कोटि की फसल है। इसके वितरण के प्रादेशिक भिन्नता में विभिन्न भौतिक कारकों का प्रभाव स्पष्ट है। धान के संबंध में महत्वपूर्ण यह है कि यह ऐसी परिस्थितियों में भी बोया जा सकता है, जो अन्य अनाजों के लिए हानि कारक है। उच्चभूमि तथा निम्नभूमि दोनों ही स्थितियों में धान की बोवाई की जा सकती है। अनावृष्टि और बाढ़ दोनों ही विपरीत दशाओं में धान का कुछ कुछ उत्पादन मिल ही जाता है। छत्तीसगढ़ में धान की कृषि 69.6 प्रतिशत क्षेत्र में की जाती है। धान का सर्वाधिक प्रतिशत बीजापुर जिले में 92.6 प्रतिशत है। धान का प्रतिशत रायपुर, गरियाबंद, महासमुंद, रायगढ़ एवं कोरबा जिले में 80 प्रतिशत से अधिक है। इसके विपरीत बस्तर के पठार के अंतर्गत सुकमा जिले में 38.2 प्रतिशत, बलरामपुर जिले में 45.2 प्रतिशत है।

 

23. मोटे आनाज ;डपससमजेद्धरू

मोटे दाने वाले अनाजों को सामूहिक रूप से मोटे अनाजों के वर्ग में रखा जाता है। इसके कई वर्ग एवं उपवर्ग हैं। जहां मिट्टी अच्छेे अनाजों की कृषि के लिए उपयुक्त नहीं है, वहाँ मोटे अनाजों की कृषि की जाती है। छत्तीसगढ़ में मुख्य मोटे अनाज मक्का, बाजरा, ज्वार, कोदो, कुटकी, रागी और सावा है। प्रदेश में कुल फसली क्षेत्र का 4.86 प्रतिशत क्षेत्र में मोटे आनाज जैसे- कोदो, कुटकी, ज्वार, बाजरा, मक्का, रागी की कृषि की जाती है। प्रदेश में सबसे अधिक दंतेवाड़ा जिले में 29.5 प्रतिशत क्षेत्र में मोटे आनाज की कृषि की जाती है। तत्पष्चात् सुकमा जिले (19.9 प्रतिशत) का द्वितीय स्थान तथा बलरामपुर जिले (19.1 प्रतिशत) का तृतीय स्थान है। बस्तर के पठार के शेष जिलों में मोटे आनाजांे की कृषि 10 से 15 क्षेत्रों की जाती है। प्रदेश के मैदानी क्षेत्रों में मोटे आनाजों की कृषि 0.5 प्रतिशत से भी कम है। मोटे आनाज की कृषि प्रदेश के उत्तरी तथा दक्षिणी विषम धरातल के क्षेत्रों में की जाती है, जहाँ धान प्रथम कोटि की फसल को लेने में जोखीम अधिक होता है।

 

24. औद्योगिक उत्पादन ;प्दकनेजतपंस च्तवकनबजपवदद्धरू

औद्योगिक उत्पादन जिसमें रेशे, तिल, गन्ना, तम्बाकू, नील, आदि फसलें शामिल है। छत्तीसगढ़ में कुल उत्पादन का 3.0 प्रतिशत औद्योगिक उत्पादन से संबंधित है। छत्तीसगढ़ में सर्वाधिक औद्योगिक उत्पादन कबीरधाम जिले में 17.9 प्रतिशत है। तत्पश्चात् बेमेतरा जिले का (7.1 प्रतिशत) द्वितीय स्थान है। इसी तरह से प्रदेश के उत्तरी भाग में सरगुजा के उच्चभूमि में सरगुजा, बलरामपुर एवं सूरजपुर जिलों में औद्योगिक उत्पादन 6 प्रतिशत से भी अधिक है। कबीरधाम तथा बेमेतरा जिले में गन्ना तथा सोयाबिन का उत्पादन प्रदेश में सर्वाधिक है। जबकि प्रदेश के उत्तरी जिलों में गन्ना, तिलहन, मुंगफली, सरसों, अलसी, रामतिल, आदि की उत्पादन अधिक है। दक्षिण में बस्तर जिले में गन्ना, सरसों तथा रामतिल प्रमुख औद्योगिक उत्पादन हैं।

25. शस्य विभिन्नता ;ब्तवच क्पअमतेपपिबंजपवदद्धरू

छत्तीसगढ़ प्रदेश का फसल प्रतिरूप निर्वाहक कृषि की अर्थव्यवस्था को स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करता है। प्रदेश में फसल प्रतिरूप में भिन्नता आर्थिक और सामाजिक स्थिति के अंतर के कारण है। अनुपजाऊ तथा पठारों की निम्न कंकरीली मिट्टी में मोटे अनाजों का प्रतिशत अधिक है। शस्य विभिन्नता फसल प्रतिरूप को इंगित करता है। शस्य विभिन्नता अधिक होने पर फसलों की संख्या कम होती है। इसके विपरीत शस्य विभिन्नता कम होने पर फसलों की संख्या अधिक होती है। प्रस्तुत अध्ययन मेंफसलों के अंतर्गत उन फस्लों को शामिल किया गया है जिनका प्रतिशत कुल फसली क्षेत्र में एक प्रतिशत से अधिक है। छत्तीसगढ़ में सर्वाधिक शस्य विभिनन्ता बलरामपुर जिले में 7.3 प्रतिशत है। इसी तरह कोरिया (7.8 प्रतिशत), सूरजपुर (7.9 प्रतिशत), सरगुजा (8.3 प्रतिशत) तथा कबीरधाम (9.6 प्रतिशत) जिलों में शस्य विभिन्नता अधिक है। इसके विपरीत जाँजगीर-चाँपा (46.9 प्रतिशत) जिले में शस्य विभिन्नता सबसे कम है। बलौदाबाजार जिले में भी (31.0 प्रतिशत) शस्य विभिनन्ता कम है।

                              ‘फसलों के अंतर्गत कुल फसली क्षेत्र का प्रतिशत

            शस्य विभिन्नता = ...................................................................................................................

        ‘                          फसलों की संख्या

 

छत्तीसगढ़ में कृषि प्रकारिकी ;।हतपबनसजनतंस ज्लचवसवहल पद ब्ीींजजपेहंतीद्धरू

छत्तीसगढ़ में कृषि प्रकारिकी के निर्धारण हेतु चार प्रमुख चर सामाजिक, कार्यकारी, उत्पादक एवं संरचनात्मक को आधार माना गया है। इन चारों चर के अंतर्गत कुल 28 तत्वों को समाहित किया गया है। इन तत्वों के आधार पर छत्तीसगढ़ को पाँच प्रमुख कृषि प्रकारिकी में विभाजित किया गया है (मानचित्र क्र. 1 एवं 2)

 

1. अर्द्ध वाणिज्यिक फसल कृषि प्रकारिकी ;ैमउप.ब्वउउमतबपंस ब्तवच ।हतपबनसजनतंस ज्लचवसवहलद्धरू

 

अर्द्ध वाणिज्यिक फसल कृषि प्रकारिकी प्रदेश के पश्चिमी भाग में मैकल श्रेणी के अंतर्गत स्थित है। इसमंे प्रमुख रूप से कबीरधाम जिला शामिल है। यह क्षेत्र वृष्टिछाया प्रदेश के अंतर्गत है। इस भाग में काली मिट्टी पाई जाती है, जिसमें जलधारण की क्षमता अधिक होती है। यह मैकल श्रेणी से नदियों के द्वारा बहाकर लाई उपजाऊ मिट्टी है। इस कृषि प्रकारिकी में चारो विचरकों के अंतर्गत कोड का योग 73 है। कृषि प्रकारिकी के निर्धारण में सामाजिक तत्व बहुत ही महत्वपूर्ण होते हैं। कबीरधाम जिले में अनुसूचित जनजातीय जोतदारों का प्रतिशत बहुत ही कम (17. प्रतिशत) है। साक्षर जोतदारों का प्रतिशत मध्यम है। इस जिले में निराफसली क्षेत्र (66.3 प्रतिशत) अधिक है। इसके विपरीत कबीरधाम जिले में श्रम निवेश की संलग्नता 100 हे. निराफसली क्षेत्रफल सर्वाधिक 168 श्रम है। यही कारण है कि इन क्षेत्रों में पशु शक्ति निवेश की मात्रा कम (54 प्रति 100 निराफसली क्षेत्र) है। इस जिले में यंत्रीकरण का स्तर मध्यम है। इसके अंतर्गत ट्रैक्टर का उपयोग 100 हे. निराफसली क्षेत्र पर 11 है। इस जिले में रासायनिक खाद का उपयोग अधिक (प्रति हे. फसली क्षेत्र पर 30.2 किग्रा.) है। पशुओं की गहनता मात्र 174 पशु इकाई प्रति 100 निराफसली क्षेत्र है। इस कृषि प्रकारिकी क्षेत्र में काली मिट्टी के क्षेत्र होने के कारण जल धारण की क्षमता अधिक है। अतः सिंचाई सुविधा न्यून होने के बाद भी इस जिले में शस्य तीब्रता अधिक (134.5 प्रतिशत) है। इस कृषि प्रकारिकी क्षेत्र में जैविक खाद का उपयोग अधिक हुआ है। इस क्षेत्र में निराफसली क्षेत्र के 10.3 प्रतिशत में जैविक खाद का उपयोग किया गया है।

 

2. कबीरधाम जिले में भूमि की उत्पादकता मध्यम स्तर (0.96) है और श्रम की उम्पादकता अत्यंत न्यून (106.3 किग्रा.) है। सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में मात्र इस कृषि प्रकारिकी में व्यापरीकरण की मात्रा अपेक्षाकृत उच्च (40.7 प्रतिशत) है। इसके साथ ही व्यापरीकरण का स्तर मध्यम (0.6 मि. टन प्रति हे. निराफसली क्षेत्र) है। इस कृषि प्रकारिकी में धान प्रमुख फसल के साथ, चना द्वितीय श्रेणी की फसल है। सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में सोयाबीन की सर्वाधिक कृषि कबीरधाम जिले में की जाती है। गन्ना, गेंहँू, एवं चना अन्य प्रमुख फसलें हैं। यही कारण है कि इस जिले में शस्य विशेषीकरण अत्यंत न्यून (0.42) पाया गया है। यहाँ प्रति हे. उत्पादन मध्यम स्तर पर पाया गया है। स्थायी चारागाह का प्रतिशत 10.1 प्रतिशत है। कबीरधाम जिले में फसल प्रतिरूप में खाद्यान्न फसलों की कमी पाई गयी है। मात्र 38.2 प्रतिशत क्षेत्र ही धान के अंतर्गत है। कबीरधाम जिले में औद्योगिक उपयोग हेतु कृषि फसलों का उत्पादन पूरे प्रदेश में सर्वाधिक है। इस जिले में 17.9 प्रतिशत उत्पादन औद्योगिक उपयोग हेतु किया गया है। यही कारण है कि कबीरधाम जिले में शस्य विभिन्नता अधिक पायी गयी है।

 

 

श्रम निवेश सिंचित खाद्य फसल कृषि प्रकारिकी ;स्ंइवनत प्दजमदेपअम प्ततपहंजमक थ्ववक ब्तवच ।हतपबनसजनतंस ज्लचवसवहलद्ध

 

 

श्रम निवेश सिंचित खाद्य फसल कृषि प्रकारिकी के अंतर्गत प्रदेश के मध्यवर्ती मैदानी क्षेत्र शामिल है। यह क्षेत्र महानदी का प्रवाह क्षेत्र है। समतल भूमि उपजाऊ मिट्टी के कारण इस क्षेत्र में घनी जनसंख्या पाई जाती है। इस महानदी बेसिन के क्षेत्र में अनुसूचित जातियों की प्रधानता है। इस कृषि प्रकारिकी में प्रदेश के 9 जिले शामिल हैं। ये जिले रायपुर, धमतरी, बेमेतरा, दुर्ग, बालोद, राजनाँदगाँव, मुंगेली, विलासपुर एवं जाँजगीर-चाँपा जिले शामिल है। इस कृषि प्रकारिकी में चारो विचरकों के अंतर्गत 28 चरों के कोड का योग 80 से अधिक है। इस कृषि प्रकारिकी में निराफसली क्षेत्र अधिक (60-70 प्रतिशत) है। जनसंख्या घनी होने के कारण जोत का आकार अत्यंत छोटा (1.5 हे.) है। यही कारण है कि प्रति हे. जोतों की संख्या अधिक (4.3) है। इस मैदानी कृषि प्रदेश में महिला जोतदारों का प्रतिशत अधिक है।

 

साक्षरता कृषि प्रकारिकी के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। साक्षरता कृषकों को कृषि के उन्नत आधुनिक तरीकों के उपयोग के लिए प्रेरित करता है। इस कृषि प्रकारिकी में साक्षर जोतदारों का प्रतिशत 75 प्रतिशत से अधिक है। इस कृषि प्रकारिकी में स्वयं की कृषि भूमि और स्वयं के द्वारा कृषि जोतो की संख्या सर्वाधिक है। बेमेतरा एवं बिलासपुर जिले में यह शतप्रतिशत है। घनी जनसंख्या के क्षेत्र होने कारण ह्रास कृषि प्रकारिकी में श्रम निवेश अधिक है। प्रति 100 हे. निराफसली क्षेत्र जिसमें परती भूमि शामिल है, श्रम निवेश इस क्षेत्र में अधिक है। बालोद जिले में यह 153 है। यही कारण कि इस मैदानी क्षेत्र में यंत्रीकरण मध्यम स्तर पर है। यंत्रीकरण में मुख्यतः टैªक्टर का उपयोग प्रति 100 हे. निराफसली क्षेत्र पर 20-25 है। यहाँ रासायनिक खाद का उपयोग सर्वाधिक प्रति हे. फसली क्षेत्र पर 60-70 किग्रा. है। छत्तीसगढ़ में सिंचाई इस कृषि प्रकारिकी में अधिक पयाा गया है। इस कृषि प्रकारिकी में सिंचाई सुविधा निराफसली क्षेत्र के 60-80 प्रतिशत पर उपलब्ध है। पशुओं की गहनता मध्यम है। इस कृषि प्रदेश में सिंचाई उपलब्धता होने के कारण शस्य तीब्रता (120 प्रतिशत से अधिक) है। जैविक खाद का उपयोग मध्यम (फसली क्षेत्र के 12-15 प्रतिशत) है।

 

इस कृषि प्रकारिकी में श्रम उत्पाकदता अधिक (1200-1300 किग्रा.) है। व्यापरीकरण की मात्रा अपेक्षाकृत उच्च है। इस कृषि प्रकारिकी के अंतर्गत धमतरी जिले में व्यापरीकरण की मात्रा 59.8 प्रतिशत है। यही कारण है कि कृषि प्रकारिकी में व्यापरीकरण की स्तर भी उच्च है। रायपुर जिले में व्यापरीकरण का स्तर 1.33 मि. टन प्रति हे. कृषि भूमि है। शस्य विशेषीकरण मध्यम स्तर (0.4-06) पाया गया है। इस कृषि प्रकारिकी में प्रति हे. उत्पादन अधिक है। धमतरी जिले में प्रति हे. उत्पादन 1.08 मि. टन है। इन क्षेत्रों में औद्योगिक उत्पादन हेतु कृषि का प्रतिशत न्यून है। शस्य विभिन्नता कम पायी गयी है। यह क्षेत्र एक फसली क्षेत्र धान के अंतर्गत है। इन कृषि प्रकारिकी मंे खाद्यान्न फसलें 98 प्रतिशत से अधिक है।

 

1. पशु शक्ति निवेश एवं असिंचित धान कृषि प्रकारिकी ;प्दचनज ि।दपउंस ंदक छवद.प्ततपहंजमक त्पबम थ्वतउपदह ।हतपबनसजनतंस ज्लचवसवहलद्ध

 

पशु शक्ति निवेश एवं असिंचित धान कृषि प्रकारिकी बस्तर के पठार के अंतर्गत पाया गया है। यह क्षेत्र विषम धरातल, अनुपजाऊ मिट्टी एवं घने वन के अंतर्गत है। यही कारण है कि इस क्षेत्र में जनसंख्या विरली है। इस वर्ग में प्रदेश के दक्षिण स्थित बस्तर के पठार के अंतर्गत 6 जिले (कांकेर जिले को छोड़) - नारायणपुर, कोंडागाँव, बस्तर, दंतेवाडा, सुकमा एवं बीजापुर शामिल हैं। इस कृषि प्रकारिकी में चारो विचरकों के अंतर्गत कोड का योग 60-70 है। इस कृषि प्रकारिकी में निराफसली क्षेत्र बहुत ही कम (30-40 प्रतिशत) है। बीजापुर जिले में मात्र यह 12.8 प्रतिशत है। किंतु जनसंख्या विरली होने के कारण जोत का आकार अपेक्षाकृत बड़ा (2.5 हे.) है। यही कारण है कि प्रति हे. जोतों की संख्या कम (1.6) है। इस जनजातीय प्रधान कृषि प्रकारिकी में महिला जोतदारों का प्रतिशत कम है। बस्तर के पठार के अंतर्गत कृषि प्रकारिकी में अनुसूचित जनजातीय जोतदारों का प्रतिशत 85 प्रतिशत से भी अधिक है। बस्तर के इस कृषि प्रकारिकी में साक्षर जोतदारों का प्रतिशत अत्यंत कम है। बीजापुर जिले में साक्षर जोतदारों का मात्र 23.6 प्रतिशत है। बस्तर के इस कृषि प्रकारिकी में स्वयं की भूमि एवं स्वयं के द्वारा कृषि जोतांे का प्रतिशत सुकमा जिले में 95.5 एवं बस्तर जिले में 97.8 प्रतिशत है। इस कृषि प्रदेश में जनसंख्या विरली होने के कारण श्रम निवेश अपेक्षाकृत कम (80 से कम श्रम प्रति 100 हे. निराफसली क्षेत्र) है। यही कारण है कि पशु शक्ति का निवेश सर्वाधिक है। कोंडागाँव जिले में यह सर्वाधिक 206 प्रति 100 हे. निराफसली क्षेत्र पर है। तत्पश्चात् सुकमा जिले (113) का स्थान है। यंत्रीकरण विशेषकर ट्रैक्टर का उपयोग मध्यम स्तर पर है। रासायनिक खाद का उपयोग अत्यंत न्यून (10 किग्रा. से कम प्रति हे.) है। दंतेवाड़ा, सुकमा और बीजापुर जिलों में यह 2 किग्रा. प्रति हे. है। इस विषम धरातल के क्षेत्र में सिंचाई सुविधा नगण्य (5 प्रतिशत से कम) है। नारायणपुर एवं दंतेवाड़ा जिले मंे सिंचाई की सुविधा विल्कुल भी नहीं है। सिंचाई की कमी और अनुपजाऊ मिट्टी के कारण शस्य तीब्रता (100-105 प्रतिशत) कम है।

 

इस कृषि प्रकारिकी में भूमि की उत्पादकता न्यूनतम है। दंतेवाड़ा (0.7), सुकमा (0.78) तथा बीजापुर (0.77) जिलों में यह अत्यंत न्यून है। इस क्षेत्र में व्यापरीकरण की मात्रा न्यून 20 प्रतिशत से कम है। यही कारण है कि व्यापरीकरण का स्तर भी न्यून है। नारायणपुर जिले में यह मात्र 0.13 मि. टन प्रति हे. कृषि भूमि है। इसके विपरीत इन क्षेत्रों शस्य विशेषीकरण अधिक पाया गया है। बीजापुर जिले में शस्य विशेषीकरण 0.78 प्रतिशत है। इसका कारण बीजापुर जिले में 92 प्रतिशत क्षेत्र धान के अंतर्गत है। बस्तर के पठार के अंतर्गत इस कृषि प्रकारिकी में प्रति हे. उत्पादन अत्यंत न्यून है। दंतेवाड़ा और सुकमा जिले में यह क्रमशः 0.2 और  0.3 मि. टन है।

थ्पहण् 2

 

 

इन भागों में स्थायी चारागाह अत्यंत कम है। दंतेवाडा जिले में यह मात्र 1.4 प्रतिशत है। इस कृषि प्रकार में खाद्यान्न फसलों की अधिकता है जिसमें धान प्रमुख फसल 70 प्रतिशत से अधिक है, किंतु बस्तर जिले में धान का मात्र 38.2 प्रतिशत है। बस्तर के इस कृषि प्रकारिकी में खाद्यान्न फसलों में मोटो आनाजों की महत्वपूर्ण भूमिका है। दंतेवाड़ा जिले में 29.5 प्रतिशत क्षेत्र में मोटे आनाज की कृषि  की जाती है। इन भागों में शस्य विभिन्नता अधिक पायी गयी है। धान के साथ कोदो, कुटकी, मक्का प्रमुख फसलें हैं।

 

2. पशु शक्ति निवेश एवं असिंचित रबी फसल कृषि प्रकारिकी ;प्दचनज ि।दपउंस ंदक छवद.प्ततपहंजमक त्ंइप ब्तवच ।हतपबनसजनतंस ज्लचवसवहलद्ध

 

पशु शक्ति निवेश एवं असिंचित रबी फसल कृषि प्रकारिकी प्रदेश के उत्तर में सरगुजा उच्चभूमि के अंतर्गत है। इस कृषि प्रकारिकी के अंतर्गत सरगुजा, सूरजपुर, बलरामपुर, कोरिया, जशपुर एवं कोरबा 6 जिले सम्मिलित हैं। यह क्षेत्र विषम धरातल, अनुपजाऊ मिट्टी एवं घने वनों से आच्छादित है। इस कृषि प्रकारिकी में चारो विचरकों के अंतर्गत 28 चरों के कोड का योग 70-75 है। इस क्षेत्र में साक्षर जोतदारों का प्रतिशत मध्यम है। पशु शक्ति का निवेश 100 प्रति 100 हे. निराफसली क्षेत्र से अधिक है। यंत्रीकरण का विकास मध्यम है। रासायनिक खाद का उपयोग प्रति हे. 15-20 किग्रा. है, किंतु जशपुर जिले में 59 किग्रा. प्रति हे. है। इस कृषि प्रकारिकी में सिंचाई सुविधा निराफसली क्षेत्र के 5-10 प्रतिशत क्षेत्र पर उपलब्ध है। पशुओं की सघनता अधिक (200-240 प्रति 100 हे. निराफसली क्षेत्र पर) है। पहाड़ी तथा विषम धरातल, अनुपजाऊ मिट्टी तथा सिंचाई की कमी से इन क्षेत्रों में शस्य तीब्रता कम है। जैविक खाद का उपयोग कम हुआ है। मात्र कोरिया जिले में कुल फसली क्षेत्र के 15.2 प्रतिशत में जैविक खाद का उपयोग हुआ है।

 

भूमि की उत्पाकदता स्तर मध्यम स्तर (0.8-0.9) है। कोरिया जिले में भूमि उत्पादकता 0.73 है। इस वर्ग में मात्र सूरजपुर जिले मंे भूमि उत्पादकता अधिक (1.21) है। श्रम उत्पादकता मध्यम स्तर (1000-1100 किग्रा.) है। यहाँ व्यापरीकरण की मात्रा अति न्यून (20-25 प्रतिशत) है। बलरामपुर जिले में यह मात्र 0.18 प्रतिशत है। इन क्षेत्रों में शस्य विशेषीकरण उच्च पाया गया है। शस्य विशेषीकरण जशपुर जिले में 0.49 तथा सरगुजा जिले में 0.41 पाया गया है। इस कृषि प्रकारिकी में विषम धरातल के कारण प्रति हे. उत्पादन मध्यम स्तर (0.6-0.8 मि. टन) है। इन भागों स्थायी चारागाह का प्रतिशत अधिक पाया गया है। सूरजपुर जिले में 30.6 प्रतिशत क्षेत्र स्थायी चारागाह के अंतर्गत है। सरगुजा उच्चभूमि के इस कृषि प्रकारिकी में खाद्यान्न फसल अन्य कृषि प्रकारिकी से कम (95-98 प्रतिशत) है। बलरामपुर जिले में खाद्यान्न फसलों का प्रतिशत 94.2 है। इस कृषि प्रकारिकी में धान प्रमुख फसल है। 60 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र धान के अंतर्गत है। इस क्षेत्र में धान के साथ गेंहँू, चना, कोदो, मक्का प्रमुख फसलें है। यहाँ औद्योगिक उपयोग हेतु कृषि फसलों का उत्पादन 6 प्रतिशत से अधिक है। इस कृषि क्षेत्र में शस्य विभिन्नता अधिक (8 प्रतिशत से कम) पाया गया है।

 

3. असिंचित धान कृषि प्रकारिकी ;छवद.प्ततपहंजमक त्पबमप ।हतपबनसजनतंस ज्लचवसवहलद्ध

 

असिंचित धान कृषि प्रकारिकी प्रदेश के पूर्वी भाग में पाया गया है। यह क्षेत्र दुर्ग-रायपुर उच्चभूमि के अंतर्गत स्थित है। इस वर्ग में बलौदाबाजार, महासमुंद, बरियाबंद, जशपुर एवं कांकेर पाँच जिले शामिल है। इन क्षेत्रों में अनुपजाऊ लेटेराइट मिट्टी प्रमुख रूप से पाई जाती है। इस कृषि प्रकारिकी में चारो विचरकों के अंतर्गत कोड का योग 75-80 है। इस कृषि प्रकारिकी में संस्थागत जोतों के अंतर्गत बलौदाबाजार में सर्वाधिक 1633 हे. है। इस कृषि प्रकारिकी में साक्षर जोतदारों प्रतिशत 70 से अधिक है। यांत्रीकीकरण का विकास मध्यम स्तर पर है। बलौदाबाजार जिले में रासायनिक खाद का उपयोग अधिक (40-60 किग्रा.) हुआ है। इस वर्ग में शामिल जिलों में सिंचाई सुविधा न्यून है। कांकेर जिले में सिंचाई सुविधा मात्र 13 प्रतिशत क्षेत्र पर उपलब्ध है। पशुओं की गहनता मध्यम है। इस कृषि प्रकार में दुर्ग-रायपुर उच्चभूमि के अंतर्गत अनुपजाऊ लेटेराइट मिट्टी के कारण शस्य तीव्रता 110-120 प्रतिशत है।

 

इस कृषि प्रकारिकी में भूमि की उत्पादकता मध्यम स्तर और श्रम उत्पादकता न्यून स्तर पर है। इस कृषि प्रकार के अंतर्गत महसमुंद जिले में श्रम उत्पादकता मात्र 970 तथा बलौदाबाजार में 702 किग्रा. है। यहाँ व्यापरीकरण की मात्रा निम्न है। केवल महासमुंद जिले में व्यापरीकरण की मात्रा अपेक्षाकृत मध्यम (44.2 प्रतिशत) है। इसके विपरीत बलौदाबाजार जिले में व्यापरीकरण का स्तर अत्यंत न्यून (0.18) है। इन क्षेत्रों में शस्य विशेषीकरण अधिक पाया गया है। महासमुंद जिले में शस्य विशेषीकरण सूचकांक 0.81 पाया गया है। इस कृषि प्रकार में 70 प्रतिशत क्षेत्र पर धान बोई जाती है। दुर्ग-रायपुर उच्च भूमि के अंतर्गत इस कृषि प्रकारिकी में प्रति हे. उत्पादन मध्यम (0.6-0.8 मि. टन) है। इस वर्ग के अंतर्गत बलौदाबाजार जिले में स्थायी चारागाह 10 प्रतिशत से भी कम है। इस क्षेत्र में औद्योगिक उपयोग हेतु कृषि न्यून पाया गया है। शस्य विभिन्नता कम पायी गयी है। बलौदाबाजार जिले में यह भिन्नता 30.1 प्रतिशत अधिक है। इस कृषि प्रकार में खाद्यान्न फसलों का प्रतिशत अधिक (98-99 प्रतिशत) है तथा 70 प्रतिशत से अधिक धान के अंतर्गत है।

 

निष्कर्ष ;ब्व्छब्स्न्ैप्व्छद्धरू

छत्तीसगढ़ प्रदेश को कृषि प्रकारिकी में विभाजित करने हेतु चार तत्वों सामाजिक, कार्यकारी, उत्पादक तथा संरचनात्मक चरों के अंतर्गत 28 कारकों का चयन किया गया है। प्रत्येक कारकों को प्रतिशत के आधार पर अति उच्च, उच्च, मध्यम, निम्न एवं अति निम्न पाँच वर्गों में रखा गया है। इन चयनित कारकों के आधार पर सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ को पाँच कृषि प्रकारिकी में बाँटा गया है। अर्द्ध वाणिज्यिक फसल कृषि प्रकारिकी, श्रम निवेश एवं सिंचित खाद्य फसल, पशु शक्ति निवेश एवं असिंचित धान कृषि, पशु शक्ति निवेश असिंचित रबी फसल एवं असिंचित धान कृषि प्रकारिकी में बाँटा गया है। अर्द्ध वाणिज्यिक फसल कृषि प्रकारिकी जो प्रदेश के पश्चिम में मैकल श्रेणी के अंतर्गत है, में व्यापारीकरण की मात्रा उच्च है। इन क्षेत्रों में औद्योगिक उपयोग हेतु फसलों की कृषि सर्वाधिक है। इन क्षेत्रों में निराफसली क्षेत्र का प्रतिशत अधिक है, श्रम शक्ति निवेश एवं रासायनिक एवं जैविक खाद का अधिक उपयोग किया जाता है। शस्य विभिन्नता बहुत अधिक है। यहाँ की प्रमुख फसल धान, चना, सोयाबीन, गन्ना तथा गेंहँू हैं। इस कृषि प्रकारिकी प्रदेश में मोटे अनाजों की कृषि बहुतायत से की जाती है। श्रम निवेश एवं सिंचित खाद्य फसल कृषि प्रकारिकी जो प्रदेश के मध्यवर्ती मैदानी क्षेत्र है तथा महानदी का प्रवाह क्षेत्र है, घनी जनसंख्या के क्षेत्र होने के कारण जोत का आकर छोटा है। यद्यपि निराफसली का क्षेत्र अधिक है। इन क्षेत्रों में महिला जोतदार तथा साक्षर कृषकों का प्रतिशत अधिक है। घनी जनसंख्या के कारण श्रम निवेश अधिक है। रासायनिक खाद, जैविक खाद और मशीनीकरण अधिक हुआ है। सिंचित क्षेत्र अपेक्षाकृत अधिक है। अतः प्रति हे. उत्पादन उच्च है। इस कृषि प्रकार में श्रम उत्पादकता, वाणिज्यीकरण की मात्रा तथा स्तर एवं शस्य विशेषीकरण उच्च है। इन क्षेत्रों में खाद्यान्न फसलों की अधिकता है।

 

पशु शक्ति निवेश एवं असिंचित धान कृषि प्रकार जो प्रदेश के दक्षिण में बस्तर के पठार के अंतर्गत है, में जोत का आकार अपेक्षाकृत बड़ा है। यद्यपि प्रति हे. उत्पादन न्यून है। अधिकांश जोतदार अनुसूचित जनजातीय वर्ग से है। इन क्षेत्रों में कृषक साक्षरता न्यून है। इन क्षेत्रों में पशु शक्ति का निवेश अधिक हुआ है। यहाँ यंत्रीकरण, रासायनिक खाद तथा सिंचाई सुविधाओं की कमी है। अतः भूमि की उत्पादकता न्यून और श्रम उत्पादकता मध्यम तथा शस्य तीब्रता न्यून पाया गया है। अतः इन भागों में शस्य विशेषीकरण उच्च पाया गया है। यहाँ खाद्यान्न फसलों की प्रमुखता है और इनमें धान प्रमुख फसल है। इस कृषि प्रकारिकी की विशेषता मोटे अनाज है जिनमें कोदो, कुटकी, मक्का प्रमुख हैं।

 

पशु शक्ति निवेश असिंचित रबी फसल कृषि प्रकारिकी जो प्रदेश के उत्तर में सरगुजा उच्चभूमि के अंतर्गत है, जोत का औसत आकार अपेक्षाकृत बड़ा है। अधिकांश कृषक अनुसूचित जनजातीय वर्ग सेे हैं तथा कृषकों में साक्षरता अपेक्षाकृत मध्यम है। इन क्षेत्रों में पशु शक्ति की संलग्नता अधिक पायी गयी है। यहाँ सिंचाई की नितांत कमी है तथा रासायनिक खाद और यंत्रीकरण का उपयोग न्यून है। यहाँ जैविक खाद का उपयोग मध्यम स्तर पर है। अतः भूमि की उत्पादकता तथा श्रम की उत्पादकता मध्यम है। सिंचाई की कमी से प्रति हे. उत्पादन तथा शस्य तीव्रता कम है। इन क्षेत्रों में स्थायी चारागाह पर्याप्त है। इस कृषि प्रकार में औद्योगिक फसल जैसे गन्ना की अधिकता है। यहाँ की प्रमुख फसल धान के अतिरिक्त मक्का, रामतिल, गेंहँू तथा सरसो है। अतः इन क्षेत्रों में शस्य विभिन्नता अधिक पायी गयी है। असिंचित धान कृषि प्रकारिकी जो प्रदेश के पूर्वी भाग में दुर्ग-रायपुर उच्चभूमि के अंतर्गत है, घनी जनसंख्या के कारण प्रति हे. जोतो की संख्या अधिक है। प्रदेश में सर्वाधिक संस्थागत जोत इस वर्ग के अंतर्गत बलौदाबाजार जिले में पाया गया है। यहाँ श्रम शक्ति मध्यम एवं पशु शक्ति का निवेश न्यून है। इस कृषि प्रकार में रासायनिक खाद का उपयोग अधिक है किंतु सिंचाई की मात्रा न्यून है, जिससे प्रति हे. उत्पादन कम है। इस कृषि प्रकार में भूमि उत्पादकता मध्यम तथा श्रम उत्पादकता न्यून स्तर पर पाया गया है। इन क्षेत्रों में खाद्यान्न फसलों की प्रमुखता है जिनमें धान प्रमुख है।

 

अतः प्रदेश के सभी कृषि प्रकारिकी में सामाजिक, कार्यकारी, उत्पादन तथा सरंचनात्मक चरों के स्तर में भिन्नता के कारण कृषि प्रकारिकी की विशेषताओं में अंतर विद्यमान है।

 

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Received on 22.06.2021                Modified on 01.07.2021

Accepted on 12.07.2021     © A&V Publications All right reserved

Int. J. Rev. and Res. Social Sci. 2021; 9(2):71-89.

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