भारत के संपोषित कृषि एवं ग्रामीण विकास - मुद्दे एवं चुनौतियाँ

 

डॉ. कुबेर सिंह गुरुपंच

प्राध्यापक एवं अधिष्ठाता, भारती विश्वविद्यालय, दुर्ग ..

*Corresponding Author E-mail: kubergurupanch@gmail.com

 

ABSTRACT:

प्रस्तुत अध्ययन का उद्देश्य भारत के संपोषित कृषि विकास दृ मुद्दे एवं चुनौतियाँ पर आधारित है कृषि ग्रामीण समुदायों की रीढ़ है जो स्थानीय लोगो के लिए आय और रोजगार के अवसर उपलब्ध कराती है यह भोजन का भी एक महत्वपूर्ण स्त्रोत है ग्रामीण किसान अपने स्थानीय समुदायों में उपभोग किये जाने वाले अधिकांश भोजन का उत्पादन करते है अध्ययन का प्रमुख उद्देश्य कृषि के क्षेत्र में रोजगार के अवसर प्रदान करते है बेरोजगारी को काम करना है इसके साथ ही स्वच्छ जल, शिक्षा सुविधा बिजली और उचित संचार प्रदान करना है इसके मुख्य घटक शिक्षा उद्यमता, भौतिक बुनियादी ढांचा और सामाजिक बुनियादी ढांचा है। ग्रामीण विकास की विशेषता स्थानीय स्तर पर उत्पादित आर्थिक विकास और रणनीतियों पर जोर देना है ग्रामीण भारत के विकास में गरीबी और असमानता चुनौतियाँ संपोषित विकास संसाधनों का नियमित दोहन करने से है तथा प्रशासनिक नीति निर्माण से है। ष्संपोषित विकासष्  वह विकास है जिसके अंतर्गत भावी पीढ़ियों के लिए आवश्यकताओं की पूर्ति करने की क्षमताओं से समझौता किए बिना वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं की पूर्ति किया जाता है। अतः पर्यावरण सुरक्षा के बिना विकास को सतत नहीं बनाया जा सकता अर्थात भावी पीढ़ी की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए प्राकृतिक संसाधनों का वर्तमान समय में इस प्रकार प्रयोग करना जिससे आर्थिक विकास एवं पर्यावरण सुरक्षा के बीच एक वांछित संतुलन स्थापित हो सके।

 

KEYWORDS: संपोषित विकास, बुनियादी ढांचा, गरीबी प्रसाशनिक नीति पर्यावरण सुरक्षा प्राकृतिक संसाधन।

 

 


INTRODUCTION:

संपोषित विकासष् एक ऐसी विकास धारा है जिसमें विकास के साथ-साथ प्रकृति की संरक्षा और सुधार करने का लक्ष्य होता है। इसका मुख्य उद्देश्य अर्थव्यवस्था के विकास के साथ-साथ समुदाय के स्थायित्व को सुनिश्चित करना होता है।

 

उद्देश्य

1. असमानता दूर करना

2. अशिक्षा दूर करना

3. प्रशासनिक दक्षता उत्तरदायित्व सहभागिता

4. आर्थिक पिछड़ापन एवं मानवीय प्रवास को रोकना

5. सुविधाओं का विस्तार।

 

प्रस्तुत अध्ययन द्वितीयक आकड़ो पर आधारित है लेकिन प्राथमिक स्रोतों से भी मुल्यांकन किया गया है। भारत की स्वतंत्रता को कई दशक बीत चुके हैं, हाल ही में हमने 74 वाँ गणतंत्र दिवस मनाया है। 1947 से अब तक देश के हर क्षेत्र ने पर्याप्त विकास किया है। आज भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम विश्व के सफलतम अंतरिक्ष कार्यक्रमों में शामिल है, भारतीय सेना विश्व की सबसे ताकतवर सेनाओं में सम्मिलित है तथा भारत की अर्थव्यवस्था विश्व की पाँच सबसे मजबूत अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। अन्य क्षेत्रों में भी भारत नियमित रूप से विकास की नई कहानियाँ लिख रहा है। इन उपलब्धियों के बावजूद एक ऐसा क्षेत्र भी है जो आज भी विकास की दौड़ में कहीं पीछे रह गया है। खाद्य सुरक्षा, ग्रामीण रोजगार जैसे क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला कृषि क्षेत्र आज भी उस स्थिति में नहीं पहुँच पाया है जिसे संतोषजनक माना जा सके। इसका परिणाम यह हुआ है कि कृषि पर निर्भर देश के करोड़ों लोग आज भी बेहद अभावों में जीवन जीने को विवश हैं और कई बार ये कृषि के माध्यम से अपनी बुनियादी जरूरतें भी नहीं पूरी कर पाते हैं।

 

समस्याएँ

भारतीय कृषि के अपर्याप्त विकास के मूल में कुछ ऐसी समस्याएँ हैं जिन्हें दूर किये बिना कृषि का विकास संभव नहीं है, ये समस्याएँ निम्नलिखित हैं:-

1. भारत के ज्यादातर किसानों के पास कृषि में निवेश के लिये पूँजी का अभावध्कमी है। आज भी देश के ज्यादातर किसानों को व्यावहारिक रूप में संस्थागत ऋण सुविधाओं का लाभ नहीं मिल पाता। कई बार किसानों के पास इतनी भी पूँजी नहीं होती कि वे बीज, खाद, सिंचाई जैसी बुनियादी चीजों का भी प्रबंध कर सकें। इसका परिणाम यह होता है कि किसान समय से फसलों का उत्पादन नहीं कर पाते अथवा अपर्याप्त पोषक तत्वों के कारण फसलें पर्याप्त गुणवत्ता की नहीं हो पाती हैं। इसके साथ ही पूंजी के अभाव में किसान को निजी व्यक्तियों से ऊँची ब्याज दर पर ऋण लेना पड़ता है जिससे उसकी समस्याएँ कम होने की जगह बढ़ जाती हैं। इस संबंध में भारत सरकार द्वारा शुरू की गई किसान सम्मान निधि योजना किसानों के लिये काफी मददगार साबित हो रही है। इससे किसानों की कृषि संबंधी बुनियादी जरूरतों की पूर्ति करने में काफी हद तक सहायता मिल जाती है।

 

2. भारत के अधिकांश हिस्सों में आज भी सिंचाई सुविधाओं की कमी है। निजी तौर पर सिंचाई सुविधाओं का प्रबंध वही किसान कर पाते हैं जिनके पास पर्याप्त पूँजी उपलब्ध है क्योंकि सिंचाई उपकरणों जैसे ट्यूबवेल स्थापित करने की लागत इतनी होती है कि गरीब किसानों के लिये उसे वहन कर पाना संभव नहीं है। इस प्रकार अधिकांश किसान मानसून पर निर्भर हो जाते हैं और समय पर वर्षा होने पर उनकी फसलें खराब हो जाती हैं और कई बार निर्वाह लायक भी उत्पादन नहीं हो पाता। इसी तरह अधिक वर्षा होने पर या विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं के कारण भी फसलें खराब हो जाती हैं और किसान गरीबी के दलदल में फंसता जाता है।

 

3. भारतीय किसानों की एक बड़ी आबादी के पास बहुत कम मात्रा में कृषि योग्य भूमि उपलब्ध है। इसका एक बड़ा कारण बढ़ती हुई जनसंख्या भी है। इसके परिणामस्वरूप कृषि किसानों के लिये लाभ कमाने का माध्यम होकर महज निर्वाह करने का माध्यम बन गई है जिसमें वे किसी तरह अपना और अपने परिवार का निर्वाह कर पाते हैं। भारतीय कृषि क्षेत्र प्रछन्न बेरोजगारी की भी समस्या से जूझने वाला क्षेत्र है।

 

4. किसानों को अक्सर उनकी उपज की पर्याप्त कीमत नहीं मिलती है, इसका एक बड़ा कारण यह है कि वे अपनी फसलों को विभिन्न कारणों से जैसे ऋण चुकाने के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य (डैच्) से कम कीमतों पर ही बेंच देते हैं। जिसके कारण उन्हें काफी हानि का सामना करना पड़ता है।

 

5. कुछ अन्य कारणों में कृषि में आधुनिक उपकरणों और तकनीकों का प्रयोग कर पाना, परिवहन सुविधाओं की कमी, भंडारण सुविधाओं में कमी, परिवहन की सुविधाओं में कमी, अन्य आधारभूत सुविधाओं का अभाव तथा मिट्टी की गुणवत्ता में कमी के कारण उपज में आती कमी इत्यादि समस्याएँ शामिल हैं। भारत सरकार इस क्षेत्र में सुधारों और किसानों की आय दोगुनी करने के लिये 7 सूत्रीय रणनीति पर काम कर रही है।

 

1. प्रति बूंद-अधिक फसल रणनीति (च्मत क्तवच डवतम ब्तवच)- इस रणनीति के तहत सूक्ष्म सिंचाई पर बल दिया जा रहा है। इससे कृषि क्षेत्र में प्रयुक्त होने वाले पानी की मात्रा में कमी आएगी, इससे जल संरक्षण के साथ ही सिंचाई की लागत में भी कमी आएगी। ये रणनीति पानी की कमी वाले क्षेत्रों में विशेष रूप से लाभदायक है।

2. कृषि क्षेत्र में उच्च गुणवत्ता वाले बीजों का प्रयोग करने पर बल दिया जा रहा है साथ ही खेतों में उर्वरकों की उतनी ही मात्रा का प्रयोग करने करने के लिये जागरूकता का प्रसार किया जा रहा है जितनी मात्रा मृदा स्वास्थ्य कार्ड के अनुसार प्रयोग करना उचित है। इससे मृदा की गुणवत्ता में सुधार होगा साथ ही उर्वरकों पर होने वाले खर्च में भी प्रभावी कमी आएगी। इससे मृदा और जल प्रदूषण में भी कमी आएगी।

3. कृषि उपज को नष्ट होने से बचाने के लिये गोदामों और कोल्ड स्टोरेज पर निवेश को बढ़ाया जा रहा है। इससे उपज की बर्बादी रुकेगी, खाद्य सुरक्षा की स्थिति और मजबूत होगी तथा शेष उपज का अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में निर्यात भी किया जा सकता है।

4. खाद्य प्रसंस्करण के माध्यम से कृषि क्षेत्र में मूल्यवर्धन को बढ़ावा दिया जा रहा है। भारत में खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र में अपार संभावनाएँ निहित है।

5. उपज का सही मूल्य दिलाने के लिये राष्ट्रीय कृषि बाजार के निर्माण पर बल दिया गया है। इससे देशभर में कीमतों में समानता आएगी और किसानों को पर्याप्त लाभ मिल सकेगा।

6. भारत में हर साल अलग-अलग क्षेत्रों में सूखे, अग्नि, चक्रवात, अतिवृष्टि, ओले जैसी प्राकृतिक आपदाओं के कारण फसलों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। इन जोखिमों को कम करने के लिये वहनीय कीमतों पर फसल बीमा उपलब्ध कराया गया है। हालाँकि इसका वास्तविक लाभ अब तक पर्याप्त किसानों को नहीं मिल पाया है, इसका लाभ अधिकांश लोगों तक पहुँचे इसके लिये उपाय किये जाने चाहिये।

7. विभिन्न योजनाओं के माध्यम से डेयरी, पशुपालन, मधुमक्खी पालन, पोल्ट्री, मत्स्य पालन इत्यादि कृषि सहायक क्षेत्रों के विकास पर बल दिया जा रहा है। चूंकि देश के अधिकांश कृषक इन चीजों से पहले से ही जुड़े हुए हैं अतरू इसका सीधा लाभ उन्हें मिल सकता है। आवश्यकता है जागरूकता, पशुओं की नस्ल सुधार जैसे कारकों पर प्रभावी तरीके से काम किया जाए। चूंकि देश की अधिकांश आबादी कृषि पर ही निर्भर है अतरू देश में गरीबी उन्मूलन, रोजगार में वृद्धि, भुखमरी उन्मूलन इत्यादि तभी संभव है जब कृषि और किसानों की हालत में सुधार किया जाए। उपरोक्त उपायों को यदि प्रभावी तरीके से लागू किया जाए तो निश्चित तौर पर कृषि की दशा में सुधार सकता है। इससे इस क्षेत्र में व्याप्त निराशा में कमी आएगी, किसानों की आत्महत्या रुकेगी, और खेती छोड़ चुके लोग फिर से इस क्षेत्र में रुचि लेने लगेंगे।

 

भारत एक कृषि प्रधान देश है, जहाँ की आधी से अधिक आबादी कृषि गतिविधियों में आशक्त होकर देश की जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में योगदान दे रही है। हालाँकि, भारतीय कृषि क्षेत्र को कई चुनौतियों का सामना भी करना पड़ रहा है, जो इसके वृद्धि और विकास को बाधित करता है। यह क्षेत्र कम उत्पादकता, मृदा की घटती उर्वरता, जल की कमी, जलवायु परिवर्तन, खंडित भूमि जोत, प्रौद्योगिकी तथा बाजारों तक पहुँच की कमी जैसे मुद्दों से प्रभावित है। इन चुनौतियों के परिणामस्वरूप निम्न उपज, न्यूनतम लाभप्रदता, एवं किसानों के लिये अपर्याप्त आय जैसी समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं, जिससे किसानों के लिये संकट और उनका ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में पलायन शुरू हुआ है।

 

भारतीय कृषि क्षेत्र के सामने चुनौतियाँ

मृदा की उर्वरता में गिरावटरू भारत की कृषि, मृदा स्वास्थ्य पर निर्भर है और मृदा की उर्वरता में गिरावट इस क्षेत्र के सम्मुख एक बड़ी चुनौती है। रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों और शाकनाशियोंध्तृणमारकों के अत्यधिक उपयोग ने मिट्टी की गुणवत्ता को कम कर दिया है, जिससे इसकी उर्वरता तथा उत्पादकता दोनों कम हो गई हैं। इसके परिणामस्वरूप फसल की न्यूनतम पैदावार और मृदा स्वास्थ्य का खराब होना है, जो कृषि के सतत् विकास के लिये एक महत्वपूर्ण चुनौती बनकर उभरा है। जल की कमीरू भारत एक जल-तनावग्रस्त (वाटर स्ट्रेस) देश है, जहाँ विश्व के मीठे जल के स्रोतों का केवल 4 एवं विश्व की समस्त आबादी का 16 भाग है। यहाँ का कृषि क्षेत्र सबसे बड़ा जलीय उपभोक्ता है, जिसके अंतर्गत सम्पूर्ण जल के खपत का लगभग 80 भाग आता है। हालाँकि, अत्यधिक दोहन, खराब प्रबंधन और जलवायु परिवर्तन के कारण जल की उपलब्धता घट रही है, जिससे कई क्षेत्रों में जल की कमी और सूखे जैसी स्थिति पैदा हो गई है। भारत में अधिकांश किसानों के पास भूमि के छोटे, सीमांत भूखंड विखंडित भूमि के साथ उपलब्ध हैं। जिसके परिणामस्वरूप कृषि गतिविधियाँ अक्षम हो जाती हैं, जो बड़े पैमाने की अर्थव्यवस्थाओं और उनके द्वारा मिलने वाले ऋण तक पहुँच को भी प्रतिबंधित करता है। इसके अतिरिक्त, यह सिंचाई प्रणाली और समकालीन प्रौद्योगिकी के उपयोग को प्रतिबंधित करता है, जिसके परिणामस्वरूप खराब उत्पादकता और न्यूनतम पैदावार देखने को मिलती है।

 

न्यून उत्पादकतारू भारत के कृषि क्षेत्र में न्यून उत्पादकता देखने को मिलती है, जिसकी पैदावार वैश्विक औसत की तुलना में बेहद कम है। जिसका मुख्य कारण खराब कृषि पद्धतियाँ, प्रौद्योगिकी और सूचना तक अपर्याप्त पहुँच और बुनियादी ढाँचा है। कृषि क्षेत्र में उत्पादकता का घटता स्तर, न्यून लाभप्रदता, किसानों की अपर्याप्त आय सीमित निवेश की ओर ले जाते हैं। प्रौद्योगिकी और बाजारों तक पहुँच का अभावरू कृषि क्षेत्र की वृद्धि और विकास के लिये प्रौद्योगिकी और बाजारों तक किसानों की पहुँच होना बेहद महत्वपूर्ण है। हालाँकि, भारतीय किसानों की आधुनिक तकनीक और बाजारों तक सीमित पहुँच है, जो उत्पादकता में सुधार, न्यूनतम लागत और लाभप्रदता बढ़ाने की क्षमता को सीमित करता है। इसके अतिरिक्त, बुनियादी ढाँचे और बाजार से जुड़ाव में कमी के कारण किसानों की उच्च कीमतों को नियंत्रित करने में असमर्थता एक सम्मानजनक जीवन जीने की उनकी क्षमता को प्रतिबंधित करती है। जलवायु परिवर्तनरू यह फसल की पैदावार और उत्पादकता को प्रभावित करने वाले बदलते मौसमी प्रतिरूप के साथ भारतीय कृषि क्षेत्रों के लिये एक महत्वपूर्ण चुनौती है। अत्यधिक मौसमी घटनाएँ, जैसे कि सूखा, बाढ़ और चक्रवात, खाद्य सुरक्षा एवं कृषि स्थिरता के लिये अधिकांशतः खतरा उत्पन्न करते हैं।

 

चुनौतियों का समाधान

सिंचाई में निवेश बढ़ानारू सरकार ने सिंचाई में निवेश बढ़ाने और जल प्रबंधन में सुधार हेतु कई कार्यक्रम शुरू किये हैं। प्रधान मंत्री कृषि सिंचाई योजना का उद्देश्य देश के सभी किसानों को सिंचाई सुविधा प्रदान करना है। इसके अतिरिक्त, सरकार ने अटल भूजल योजना शुरू की है, जिसका उद्देश्य प्राथमिकता वाले क्षेत्रों के भूजल प्रबंधन में सुधार करना है। इन पहलों का उद्देश्य कृषि हेतु जल की उपलब्धता बढ़ाना, जल के उपयोग की दक्षता में सुधार करना और जल की कमी को न्यूनतम करना है।

 

फसल विविधीकरण को बढ़ावा:- सरकार जल संसाधनों और मृदा उर्वरता पर दबाव को कम करने हेतु फसल विविधीकरण को बढ़ावा दे रही है। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का उद्देश्य गैर-पारंपरिक फसल उगाने वाले किसानों को बीमा सुरक्षा तथा वित्तीय सहायता प्रदान करना है। इसी प्रकार, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना फसल विविधीकरण और स्थायी कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देने हेतु सहायता प्रदान करती है। बुनियादी ढाँचे में सुधाररू सरकार सड़कों, भंडारण सुविधाओं सहित ग्रामीण बुनियादी ढाँचे में सुधार हेतु निवेश कर रही है। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना का उद्देश्य ग्रामीणों से सीधा संपर्क साधना और उनकी बाजारों तक पहुँच को बढ़ाना है। इसी प्रकार, राष्ट्रीय कृषि बाजार का उद्देश्य कृषि वस्तुओं के लिये एक राष्ट्रीय बाजार का निर्माण करना है, जिससे किसान अपनी उपज को बेहतर कीमतों पर बेच सकें। सब्सिडी प्रदान करनारू सरकार किसानों के लिये खेती की लागत को कम करने के उद्देश्य से बीज, उर्वरक और सिंचाई उपकरण जैसे उत्पादों हेतु सब्सिडी प्रदान करती है। इसी प्रकार सरकार फसल बीमा हेतु सब्सिडी प्रदान करती है, जो फसलों के नुकसान की स्थिति में किसानों को वित्तीय सहायता प्रदान करती है। भारत अमेरिका कृषि ज्ञान संबंधी समझौते के बाद हमारे कृषि शोध संस्थान और कृषि विश्वविद्यालय भी इन्हीं अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की अधीनता में जाते जा रहे हैं. अति उत्पादन के नाम पर जीएम बीजों, रासायानिक खादों कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग ने सिर्फ हमारे खाद्य पदार्थों को जहरीला बना दिया है, बल्कि हमारी खेती की प्राकृतिक उत्पादन क्षमता पर भी बड़ा प्रहार किया है. पंजाब जो इस प्रयोग की प्रमुख स्थली है, आज कैंसर के मरीजों की बहुतायत वाला राज्य बन गया है. वैज्ञानिक पंजाब की जमीन के आने वाले कुछ दशक बाद मरुस्थल में तब्दील होने की आशंका जताने लगे हैं.

 

भारत में खेती किसानी की इस दुर्दशा की कहानी 1967 से ही लिखनी शुरू हो गयी थी जब अपनी बिना लागत की खेती को हरित क्रांति के नाम पर अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर निर्भरता की ओर ढकेला गया. हरित क्रान्ति से उत्पादन बढ़ाने के नाम पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीजों, रासायनिक खादों और कीटनाशकों का जमकर हमारी खेती में प्रयोग कराया गया. धीरे-धीरे हमारे परम्परागत बीज, जो हमारी जलवायु के अनुकूल थे, जिनके अन्दर रोग प्रतिरोधक क्षमता थी, बहुतायत में विलुप्त हो गए. हमारी खेती को अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का गुलाम बना दिया. भारत में अपनी बिना लागत या कम लागत की खेती से भी हरित क्रांति को सफल कर देने के लिए गंभीर शोध में लगे कृषि वैज्ञानिकों को किनारे कर दिया गया. इनमें से एक मशहूर कृषि वैज्ञानिक डा. रिछारिया भी थे, जिन्होंने भारत के किसानों द्वारा हजारों वर्षों से अलग-अलग जलवायु में संजोए गए परम्परागत धान के बीज की तीन हजार से ज्यादा प्रजातियों को विकसित संरक्षित कर दिया था. भारत की खेती-किसानी पर दूसरे बड़े हमले की नींव 1995 में रखी गई, जब भारत सरकार ने किसानों देश के लोकतांत्रिक जनमत के व्यापक विरोध के बावजूद विश्व व्यापार संगठन में शामिल होने का फैसला किया. बाद में भाजपा की अटल बिहारी बाजपेई सरकार ने 1999 की जीत के बाद शर्तों को जोर-शोर से लागू करना शुरू किया।

 

मैदानों में भी आवारा जानवरों के आतंक से किसानों को अपनी फसलों को बचाना मुश्किल हो रहा है. सिर्फ उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड में 2,75,000 तथा पंजाब में 3,00,000 आवारा पशु हैं. खेती की हमारी कुल आय में 27 प्रतिशत हिस्सा पशुपालन से आता है. भारत में उत्पादित कुल दूध का 70 प्रतिशत उत्पादन मध्यम किसान, गरीब किसान, भूमिहीन और खेत मजदूर करता है. गोरक्षा कानून के जरिए गायों की खरीद-बिक्री पर लगी रोक से ग्रामीण गरीबों और छोटे मझोले किसानों के सहायक रोजगार दुग्ध उत्पादन पर भी हमला हुआ है. इससे घाटे की खेती से जूझ रहा किसान कर्ज में डूबता गया और किसानों की आत्महत्या भारत में एक आम परिघटना बन गयी. भूमिहीनों खेत मजदूरों, जिनकी आबादी ग्रामीण समाज में 45 प्रतिशत है, के लिए आवास की भूमि की व्यवस्था करना एक महत्वपूर्ण मांग है. पर भारत में अभी उन्हें सामंतों और कॉरपोरेट के लिए जमीनें खाली कराने के उद्देश्य से अब तक बसे स्थानों से भी उजाड़ा जा रहा है. बिहार सरकार का लाखों भूमिहीन-खेत मजदूरों को उनकी बस्तियों से बेदखल करने का ताजा आदेश इसका जीता जागता सबूत है. इस कृषि संकट के कारण निरंतर होती किसान आत्महत्याओं और किसान आंदोलनों के चौतरफा दमन के दौर में भारत के किसान संगठन पहली बार देश व्यापी समन्वय बना कर साझा आन्दोलन की दिशा में एकताबद्ध हुए हैं. इसमें प्रमुख है 208 किसान संगठनों की अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति. इसमें वामपंथी किसान संगठनों के साथ ही सुधारवादी और कुलकों, पूंजीवादी फार्मरों के संगठन भी शामिल हैं.

 

कर्ज मुक्ति और कृषि उपज की लागत में 50 प्रतिशत मुनाफा सहित न्यूनतम समर्थन मूल्य इस साझा किसान आन्दोलन के प्रमुख दो एजेंडे हैं. गौ-रक्षा के नाम पर पूरे देश में सत्ता के संरक्षण में संगठित गुंडा गिरोहों द्वारा गौ-पालक पहलू खान सहित कई मुस्लिम किसानों की भीड़ हत्या कर दी गई. सांप्रदायिक विभाजन की राजनीति को परवान चढ़ाने के लिए इससे पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में सांप्रदायिक दंगे कराए गए. इन दंगों से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कर नरेंद्र मोदी 2014 का चुनाव जीते और प्रधानमंत्री बने. इस दंगे के बाद टूटी किसानों-ग्रामीण मजदूरों की एकता ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान आन्दोलन को भारी नुकसान पहुंचाया. पर अब वहां किसानों ने इस सांप्रदायिक विभाजन की राजनीति के खिलाफ एकजुट होकर इसे विफल करना शुरू कर दिया है. पिछले साल कैराना में हुए लोकसभा के उपचुनाव को सांप्रदायिक रंग देने के लिए भाजपा केजिन्ना मुद्दे के खिलाफ किसानों नेगन्ना को बुलंद किया और विपक्ष की मुस्लिम महिला प्रत्याशी को जीता कर भाजपा को करारा जवाब दिया. पिछले साल के अंत में गौकसी के नाम पर फिर बुलंद शहर में उपद्रव के बाद एक पुलिस अधिकारी की हत्या कर संघ परिवार द्वारा बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक दंगा कराने की साजिशों को किसान-मजदूरों ने अपनी एकता के बल पर विफल कर दिया. कृषि के साथ ग्रामीण समाज के लोकतंत्रीकरण का सवाल हमारे लिए महत्वपूर्ण है. क्योंकि भारत में ग्रामीण समाज में अब भी बची सामंती बेड़ियां बड़ी पूंजी के साथ गठजोड़ में बंधी हैं.

 

खेती के कॉरपोरेटीकरण की राह को बदल कर छोटी मंझोली खेती को लाभप्रद बनाना होगा. अब तक किसानों पर लदे हर तरह के (बैंक, सहकारी समिति, साहूकारी) कर्ज से मुक्ति और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप फसलों की सम्पूर्ण लागत में 50 प्रतिशत मुनाफा जोड़कर समर्थन मूल्य देना होगा. बाजार में किसान के मोलभाव की ताकत को बढ़ाने के लिए इस मूल्य पर हर कृषि उत्पाद की सरकारी खरीद सुनिश्चित करने के लिए देश में सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत तथा और भी विस्तारित करना होगा. खाद्य सुरक्षा की गारंटी के लिए कृषि भूमि के संरक्षण का कानून बनाना होगा. बटाईदार किसानों को किसान का दर्जा देने के लिए कानून लाना होगा. कृषि में लागत कम करने के लिए बीज, कीटनाशक, उर्वरक और कृषि यंत्रों की कीमतों के जरिये किसानों की भारी कॉरपोरेट लूट को नियंत्रित करना होगा. वर्तमान कृषि संकट से बाहर निकलने के लिए देश की खेती-किसानी की तबाही के लिए जिम्मेदार डब्ल्यूटीओ की शर्तों से बाहर निकलना होगा, अपने परम्परागत बीजों को खोजने, संजोने और विकसित करने तथा अपनी परम्परागत जैविक खेती को पुनर्जीवित परिष्कृत करने पर अपने वैज्ञानिकों शोध संस्थानों को लगाना होगा. ताकि हम साम्राज्यवादी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मकड़जाल से अपनी खेती किसानी को बाहर निकाल सकें. कृषि जिंसों के आयात पर मात्रात्मक प्रतिबन्ध लगाकर अपने किसानों को संरक्षण देना और कृषि उत्पादों को वायदा कारोबार से बाहर निकालना होगा. घटते प्राकृतिक संसाधन और बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण की स्थिति में, संपोषित विकास की उपयोगिता बहुत हो सकती है।

 

इसके अंतर्गत विकास के साथ-साथ प्रकृति के संसाधनों का संरक्षण और उपयोग करने का तरीका सीखाया जाता है। यह लोगों को स्वयं उत्पादन करने की क्षमता और स्वावलंबन बढ़ाने में मदद करता है। इस प्रकार के विकास में समुदायों को शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, जल संसाधन, कृषि और उद्यमिता के लिए जरूरी संसाधन उपलब्ध कराए जाते हैं। इससे लोगों को उनकी स्थानीय संसाधनों के बारे में ज्ञान प्राप्त होता है जिससे वे इन्हें संरक्षण करते हुए समृद्धि के साथ उपयोग कर सकते हैं। इस तरीके के विकास में प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित रखने का जोर रखा जाता है और उन्हें सही ढंग से प्रबंधित करने का तरीका सिखाया जाता है। जैसे कि जल संसाधनों के उपयोग में संतुलित खेती करना, वन और वन्य जीवन के संरक्षण का ध्यान रखना, पर्यावरण संरक्षण के लिए जल बचाओ और पर्यावरण संरक्षण की जागरूकता बढ़ाना जैसे काम शामिल होते हैं। इस तरीके के विकास में आर्थिक विकास के साथ-साथ आर्थिक समानता को भी सुनिश्चित किया जाता है। संबंधित समुदायों को संसाधनों के उपयोग के लिए आवश्यक नॉलेज और कौशल प्रदान करके उन्हें स्वावलंबी बनाया जाता है इसके अलावा, संपोषित विकास के तहत समुदायों के भीतर आत्मनिर्भरता का विकास होता है जो अन्य उन्नत देशों में देखा जाता है। इससे संबंधित समुदायों में समाजिक और आर्थिक समानता भी होती है। भारत में सतत विकास में सामाजिक, स्वच्छ तकनीक (स्वच्छ ऊर्जा, स्वच्छ जल और टिकाऊ कृषि) और मानव संसाधन क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की विकास योजनाएं शामिल हैं, जिन्होंने केंद्र और राज्य सरकारों और सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों का ध्यान आकर्षित किया है। अंततः, संपोषित विकास एक समूचा दृष्टिकोण को ध्यान में रखता है जिसमें समुदायों के सामाजिक, आर्थिक, और पर्यावरणिक मुद्दों का संगम होता है। इसके अंतर्गत, स्थानीय संसाधनों का उपयोग करके संबंधित समुदायों के विकास में समानता को बनाए रखना होता है। इससे देश के विकास के साथ ही समुदायों की अर्थव्यवस्था को भी सुधार कर देश की समृद्धि में महत्वपूर्ण योगदान दिया जा सकता है। संपोषित कृषि में प्रबन्धन प्रक्रियायें पारम्परिक कृषि से भिन्न होती है। इस प्रकार की कृषि में आनुवंशिक संसाधनों एवं जल संसाधनों के संरक्षण के साथ मृदा संरक्षण पर विशेष बल दिया जाता है। संपोषित कृषि में उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिए एकीकृत पोषक प्रबन्धन, कीटों के नियन्त्रण के लिए एकीकृत कीट प्रबन्धन तथा खरपतवार नियन्त्रण के लिए एकीकृत खरपतवार नियन्त्रण को व्यवहार में लाया जाता है। जबकि इसके विपरीत पारम्परिक कृषि में मृदा की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिए रासायनिक उर्वरकों तथा कीट एवं खरपतवार नियन्त्रण के लिए हानिकारक रसायनों का प्रयोग होता है। चूंकि जैव-विविधता संरक्षण भी संपोषित कृषि का एक प्रमुख लक्ष्य होता है, इसलिए इस प्रकार की कृषि में संकर प्रजातियों के साथ-साथ देसी किस्मों की खेती पर भी विषेष जोर दिया जाता है जिससे फसलों की देसी प्रजातियों को संरक्षित किया जा सके ताकि भावी पीढ़ी इनसे लाभान्वित हो सके। जल एक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है।

 

पारम्परिक कृषि कार्यों हेतु जल के अंधाधुन्ध दोहन के परिणामस्वरूप भूमिगत जल में गिरावट आयी है। भारत में हरित क्रान्ति से प्रभावित राज्यों जैसे पंजाब, हरियाणा एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भूमिगत जलस्तर के गिरावट में अभूतपूर्व वृद्धि दर्ज की गई है। पंजाब राज्य के 57 प्रतिशत क्षेत्रफल का भूमिगत जल सिंचाई योग्य नहीं रह गया है। संपोषित कृषि जल संरक्षण पर विशेष ध्यान देती है। संपोषित कृषि में वर्षा जल के संचय, जलविभाजक प्रबन्धन पर विशेष ध्यान दिया जाता है ताकि वर्षा जल का अधिक से अधिक उपयोग कृषि कार्यों हेतु किया जा सके। इसके अतिरिक्त टपक सिंचाई जैसी सिंचाई विधियों के प्रयोग पर भी जोर दिया जाता है जिसमें सिंचाई कार्यों हेतु जल का न्यूनतम इस्तेमाल होता है। इस प्रकार जल संरक्षण को बढ़ावा मिलता है। चूंकि भूमि एक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण संसाधन है। अतः संपोषित कृषि में भूमि संरक्षण पर भी विशेष ध्यान दिया जाता है क्योंकि पारम्परिक कृषि प्रणाली का सर्वाधिक हानिकारक प्रभाव भूमि पर पड़ा है। आज भारत के कुल क्षेत्रफल 329 मिलियन हेक्टयर का लगभग 178 मिलियन हेक्टेयर भूमि बंजर या बेकार भूमि में तब्दील हो चुकी है। इसमें लगभग 7 मिलियन हेक्टेयर भूमि लवणता तथा लगभग 6 मिलियन हेक्टेयर भूमि जल-जमाव से प्रभावित है। रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुन्ध प्रयोग से मृदा अपरदन  की दर में लगातार वृद्धि हुई है। देश की लगभग 25 प्रतिशत भूमि जल अपरदन से प्रभावित है।पारम्परिक कृषि में रासायनिक खादों के अंधाधुन्ध प्रयोग से सिर्फ मृदा क्षरण को बढ़ावा मिलता है अपितु सतही तथा भूमिगत जल भी प्रदूषित हो जाता हैं। इसलिए संपोषित कृषि में मृदा की उर्वरा शक्ति की बढ़ोत्तरी के लिए एकीकृत पोषक प्रबन्धन को अपनाया जाता है। एकीकृत पोषक प्रबन्धन में खाद, गोबर खाद, हरी खाद, कम्पोस्ट, केंचुआ खाद, जैविक खाद तथा खली (व्पस बंाम) का इस्तेमाल होता है। इसके अतिरिक्त अगर आवश्यकता पड़ती है तो अल्प मात्रा में रासायनिक खादों का भी प्रयोग किया जाता है।

 

निष्कर्ष

भारत का कृषि क्षेत्र कई चुनौतियों का सामना कर रहा है, जो इसके वृद्धि एवं विकास को प्रभावित कर रहे हैं। हालाँकि, सरकार ने इन चुनौतियों का समाधान करने के उद्देश्य से कई नीतियों को लागू किया है। इन नीतियों के माध्यम से कृषि क्षेत्र के प्रदर्शन को बढ़ाया जा सकता है, जिसके लिये उन नीतियों को सुनिश्चित करने हेतु कई चुनौतियों का समाधान खोजने की आवश्यकता है। जबकि भारत के कृषि क्षेत्र को स्थायी रूप से विकसित करने हेतु सरकार को सार्वजनिक तथा निजी क्षेत्रों के किसान के बीच सहयोग लेना आवश्यक है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा शिक्षा तक पहुंच बढ़ाने, सीखने के परिणामों में सुधार लाने और शैक्षिक अवसरों में लैंगिक असमानताओं को कम करने पर केंद्रित है। भारत ने विभिन्न नीतियों और पहलों के माध्यम से इस क्षेत्र में काफी प्रगति की है। एसडीजी 1 गरीबी की पूर्णतः समाप्ति 17 सतत विकास लक्ष्यों में से गरीबी एक बहुआयामी मुद्दा है, और यह लक्ष्य ऐसी नीतियां बनाने पर केंद्रित है जो आय सृजन, बुनियादी सेवाओं तक पहुंच और सामाजिक सुरक्षा को संबोधित करती हैं। सतत विकास लक्ष्य भारत विभिन्न कार्यक्रमों और योजनाओं के माध्यम से सामाजिक और आर्थिक समावेशन को बढ़ावा देकर गरीबी को कम करने के लिए प्रतिबद्ध है। भुखमरी की समाप्ति।

 

भुखमरी खत्म करना, खाद्य सुरक्षा हासिल करना और टिकाऊ कृषि को बढ़ावा देना है। जीरो हंगर में कृषि उत्पादकता बढ़ाना, खाद्य प्रणालियों की लचीलापन में सुधार करना और सभी के लिए पौष्टिक और पर्याप्त भोजन तक पहुंच सुनिश्चित करना शामिल है।

 

भारत खाद्य सुरक्षा और कृषि स्थिरता में सुधार के लिए नीतियों और कार्यक्रमों को लागू करके इस लक्ष्य को प्राप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अच्छा स्वास्थ्य और जीवनस्तर समावेशी और समान गुणवत्ता वाली शिक्षा प्रदान करना है, साथ ही सभी के लिए आजीवन सीखने के अवसरों को बढ़ावा देना है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा शिक्षा तक पहुंच बढ़ाने, सीखने के परिणामों में सुधार लाने और शैक्षिक अवसरों में लैंगिक असमानताओं को कम करने पर केंद्रित है। भारत ने विभिन्न नीतियों और पहलों के माध्यम से इस क्षेत्र में काफी प्रगति की है। एसडीजी 5 लैंगिक समानता। लैंगिक समानता हासिल करने और सभी महिलाओं और लड़कियों को सशक्त बनाने का प्रयास है। स्वच्छ जल और स्वच्छता सभी के लिए पानी और स्वच्छता की उपलब्धता और स्थायी प्रबंधन सुनिश्चित करना है। इसमें पानी की गुणवत्ता में सुधार, पानी के उपयोग की दक्षता बढ़ाना और पानी से संबंधित पारिस्थितिक तंत्र की रक्षा करना शामिल है। भारत ने संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों में योगदान करते हुए स्वच्छ पानी और स्वच्छता तक पहुंच में सुधार के लिए कई पहल की हैं। सस्ती और स्वच्छ ऊर्जा सभी के लिए सस्ती, विश्वसनीय, टिकाऊ और आधुनिक ऊर्जा तक पहुंच सुनिश्चित करना है।

 

भारत में पवन ऊर्जा की क्षमता एसडीजी 8रू अच्छा काम और आर्थिक विकास। निरंतर, समावेशी और टिकाऊ आर्थिक विकास, पूर्ण और उत्पादक रोजगार और सभी के लिए सभ्य काम को बढ़ावा देना है। उद्योग, नवाचार और बुनियादी ढाँचा लचीला बुनियादी ढांचे के निर्माण, समावेशी और टिकाऊ औद्योगीकरण को बढ़ावा देने और नवाचार को बढ़ावा देने पर केंद्रित है। असमानता कम करना। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समावेशन को बढ़ावा देकर देशों के भीतर और बीच असमानता को कम करना है। इसमें समान अवसर सुनिश्चित करना, भेदभावपूर्ण नीतियों को खत्म करना और विकास के लिए वैश्विक साझेदारी को बढ़ावा देना शामिल है। भारत विभिन्न नीतियों और कार्यक्रमों के माध्यम से आय असमानता को कम करने और सामाजिक समावेशन को बढ़ावा देने के लिए काम कर रहा है। टिकाऊ शहरी और सामुदायिक विकास।

 

सन्दर्भ सूची

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Received on 24.11.2023         Modified on 08.01.2024

Accepted on 13.02.2024         © A&V Publication all right reserved

Int. J. Rev. and Res. Social Sci. 2024; 12(3):159-166.

DOI: 10.52711/2454-2687.2024.00027