Author(s): महिपाल कहरा

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DOI: 10.52711/2454-2687.2025.00005   

Address: महिपाल कहरा
शोधार्थी कलिंगा विश्वविद्यालय रायपुर, विधि विषय में पी-एचडी शोधार्थी
*Corresponding Author

Published In:   Volume - 13,      Issue - 1,     Year - 2025


ABSTRACT:
न पश्यति च जन्मान्धः कामानधो नैव पश्यति । न पश्यति मदोन्मतो हार्थि दोषात् न पश्यति।। अर्थातः- जन्म से अंधा व्यक्ति देख नहीं सकता है, कामुकता में अंधा, धन में अंधा और अहम् में अंधे व्यक्ति को भी कभी अपने अवगुण नहीं दिखाई देते हैं। इसी कामुकता को रोकने के लिए भारतीय दण्ड संहिता 1860 की धारा 377 को अंग्रेजी शासन के दौरान साल 1861 में समलैंगिकता को अपराध घोषित किया गया था जिसके मुताबिक़ अगर कोई व्यक्ति जो भी कोई किसी पुरुष, स्त्री या जीवजन्तु के साथ प्रकृति की व्यवस्था के विरुद्ध स्वेच्छा पूर्वक संभोग करेगा अप्राकृतिक रूप से यौन संबंध बनाता है तो उसे उम्र कैद या जुर्माने के या दस साल तक की क़ैद हो सकती है। साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने इस धारा को आंशिक रूप से रद्द कर दिया था। दशकों तक इसे अपराध माना गया और इस वजह से समलैंगिक समाज अपनी भावनाओं का गला घोंटता रहा। इसे लेकर विरोध तो होता रहा लेकिन कानूनन इसे रास्ते से हटाने के लिए पहली कोशिश साल 2001 में की गई। नाज फाउंडेशन और।प्क्ै भेदभाव विरोध आंदोलन ने दिल्ली हाई कोर्ट में इस कलोनियन ऐक्ट को चुनौती दी। हालांकि, कोर्ट ने इन याचिकाओं को खारिज कर दिया और संबंधों की वैधता के अधिकार को हासिल करने की लड़ाई और लंबी हो गई। पहली सफलता हाथ तब आई जब साल 2009 में दिल्ली हाई कोर्ट ने एक ही जेंडर के दो बालिगों के बीच सहमति से बनाए गए संबंधों को वैध करार दिया। कोर्ट ने धारा 377 के प्रावधान को संविधान के आर्टिकल 14,15 और 21 का उल्लंघन माना। आर्टिकल 14 व्यक्ति को कानून के आगे समानता का अधिकार, आर्टिकल 15 धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म के स्थान के आधार पर भेदभाव निषेध और आर्टिकल 21 निजी आजादी और जीवन की सुरक्षा का अधिकार देता है। दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले से कुछ साल के लिए आजादी का एहसास हुआ लेकिन साल 2013 में कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने यह कहकर खारिज कर दिया कि कानूनी रूप से इसकी रक्षा नहीं की जा सकेगी। नाज फाउंडेशन ने कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल की लेकिन कोर्ट ने उसे भी खारिज कर दिया। भारतीय दंड संहिता, 1860 की जगह प्रस्तावित की गई भारतीय न्याय संहिता, 2023 में आईपीसी की विवादित धारा 377 को पूरी तरह से हटा दिया गया है. यौन अपराधों से जुड़े मामलों में नाबालिग बच्चों को अभी भी लैंगिक अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 के तहत संरक्षित किया जाता है. 2012 में आए इस कानून से पहले, धारा 377 का इस्तेमाल नाबालिग लड़कों से यौन संबंध बनाने वाले व्यस्क पुरुषों के ख़िलाफ़ किया जाता है। वहीं ट्रांस-व्यक्तियों के ख़िलाफ़ यौन शोषण के मामलों में ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 की धारा 18 के तहत अधिकतम दो साल की सजा तय है. सैमसन कहते हैं, हालांकि,यह सज़ा बहुत कम है और पुलिस भी ट्रांसजेंडर अधिनियम को लागू करने में कोताही बरतती है जैसे, नए बिल की धारा 138 में कहा गया है कि अगर कोई व्यक्ति किसी दूसरे का अपहरण करता है या उसे अप्राकृतिक वासना का शिकार बनाता है तो उसे 10 साल के लिए जेल भेजा जा सकता है. धारा 138 के तहत यह भी कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति किसी की अप्राकृतिक वासना के ख़िलाफ़ अपने बचाव में सामने वाले की हत्या कर देता है तो ये हत्या अपराध नहीं माना जाएगा. लेकिन इन शब्दों को कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है.न्यायालयों ने पहले भी अप्राकृतिक वासना शब्द का उपयोग पुरुषों के बीच यौन संबंध या वयस्क पुरुष और बच्चे के बीच यौन संबंध के मामलों में सुनवाई के दौरान किया है पर नए प्रस्तावित विधेयक के तहत यह केवल उन्हीं मामलों में लागू होगी जहां अपहरण का पहलू भी शामिल होगा।


Cite this article:
महिपाल कहरा. भारतीय दण्ड संहिता 1860 की धारा 377 एवं समलैंगिक सम्बन्ध. International Journal of Reviews and Research in Social Sciences. 2025; 13(1):27-2. doi: 10.52711/2454-2687.2025.00005

Cite(Electronic):
महिपाल कहरा. भारतीय दण्ड संहिता 1860 की धारा 377 एवं समलैंगिक सम्बन्ध. International Journal of Reviews and Research in Social Sciences. 2025; 13(1):27-2. doi: 10.52711/2454-2687.2025.00005   Available on: https://ijrrssonline.in/AbstractView.aspx?PID=2025-13-1-5


संदर्भ सूची:-
·      पुस्तकें
1.    सूर्य नारायाण मिश्र भारतीय दण्ड संहिता 28 वां संस्करण 2021
2.    डॉ. एन. वी. परांजपे भारतीय दण्ड संहिता 10 वां संस्करण 2022
3.    डॉ. बसन्ती लाल बाबेल 25 वां संस्करण 2023
4.    सुनील खिलनानी, द आइडिया ऑफ इंडिया 180 (2004)।

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