Author(s):
महेन्द्र कुमार प्रेमी
Email(s):
Email ID Not Available
DOI:
Not Available
Address:
महेन्द्र कुमार प्रेमी
शोध छात्र (पी-एच.डी.), स्वामी विवेकानन्द स्मृति तुलनात्मक धर्म, दर्शन एवं योग अध्ययनशाला, पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर छत्तीसगढ़
Published In:
Volume - 1,
Issue - 2,
Year - 2013
ABSTRACT:
मानव कल्याण के निहितार्थ सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जीवन को उपयोगी व क्रियाशील बनाने हेतु आर्थिक कार्यप्रणाली का होना आवश्यक है। दार्शनिक मान्यताआंें के आधार पर समाजिक जीवन का संबंध अर्थ पर निर्भर करता है, जिससे संपूर्ण मानव जाति को नैतिक मूल्य के साथ - साथ आर्थिक मूल्य जीवनचर्या को सार्थक बनाते हंै। दार्शनिकों ने मानव जीवन को सर्वाधिक प्रभावित करने वाला एवं सुविधाजनक बनाने हेतु अर्थ के महत्व को पहला स्थान दिया है जो कि प्राचीन वैदिक परम्पंरा से लेकर आज तक मानव मूल्य को स्थिरता प्रदान करता रहा है। अर्थ सामाजिक सुविधा व अनुशासन के लिए व्यवहारिक रूप से गणना, संकलन व आदान - प्रदान के आर्थिक सिद्धंात पर तर्कसंगत तथा बौद्धिक रूप से व्यवस्थित जीवन का विशेष पक्ष है। दर्शनशास्त्रीय परिपेक्ष्य में अर्थ मानव जीवन के बौद्धिक क्षमता एवं कार्यकुशलता पर अधिक बल देता है। मानव जीवन को सहज,सरल तथा व्यवस्थित रूप प्रदान करने हेतु अर्थ का विशेष महत्व है। गणितीय तथा तर्कसिद्धांत दर्शनशास्त्र की प्राचीन शाखा है जो कि किसी देश या राज्य के मजदूर से लेकर राजा तक के स्तर को प्रभावित करने वाले कारक थे जो वर्तमान में भी गतिशील है।
अर्थ व्यवस्था सदियों से मानव जीवन का एक समाजिक विनिमय की स्ंास्था है जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण बाजार व्यवस्था है। दर्शनशास्त्रीय परिपेक्ष में वैदिक युग में चार आश्रमों का वर्णन है जिसमें अर्थ का विशेष महत्व है। चार्वाक दर्शन में अर्थ को मानव जीवन हेतु आवश्यक वस्तु माना गया है। अर्थ एक ऐसी व्यवस्था व क्रियाशील संस्था है जो मानव को सामाजिक सीमा प्रदान कर उनके नैतिक व समाजिक मूल्य के स्तर को ऊंचा उठाता व प्रभावशाली बनाता है।
Cite this article:
महेन्द्र कुमार प्रेमी. अर्थ का सामाजिक व नैतिक मूल्य- दर्शनशास्त्रीय परिपेक्ष्य में. Int. J. Rev. & Res. Social Sci. 1(2): Oct. - Dec. 2013; Page 31-33.
Cite(Electronic):
महेन्द्र कुमार प्रेमी. अर्थ का सामाजिक व नैतिक मूल्य- दर्शनशास्त्रीय परिपेक्ष्य में. Int. J. Rev. & Res. Social Sci. 1(2): Oct. - Dec. 2013; Page 31-33. Available on: https://ijrrssonline.in/AbstractView.aspx?PID=2013-1-2-1