Author(s): श्रीकान्त शरण पाण्डेय

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Address: श्रीकान्त शरण पाण्डेय
प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, स्वामी विवेकानंद वि0वि0, सिरौंजा, सागर (म0प्र0) पिन 470228

Published In:   Volume - 3,      Issue - 1,     Year - 2015


ABSTRACT:
वैदिक युग में तो ‘राम‘ नाम का संकेत मात्र मिलता है, लेकिन पौराणिक युग में राम का चरित्र भारतीय संस्कृति में इतना घुलमिल जाता है , कि दोनो जैसे एक दूसरे के पूरक बन जाते है। राम के उज्जवल चरित्र को लेकर चलने वाली रामकथा की सुगंध भारत को ही नहीं वरन् विदेशो को भी सुवासित करने लगती हैं । ‘‘भारतीय संस्कृति एवं साहित्य में राम का स्थान सर्वोपरि एवं सर्वश्रेष्ठ तो है ही, परन्तु रामकथा की परम्परा एवं विकास कें अवलोकन करने पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अनेक राष्ट्ों , संस्कृतियों, एवं साहित्य में राम की सत्ता अप्रतिम हैं।1 राम अयोध्या के राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र हैं, जिन्हे अनेक विद्वानांे ने ‘मर्यादा-पुरुषोत्तम‘ की संज्ञा दी हैं। वाल्मीकि रामायण और पुराणादि ग्रन्थों के अनुसार अपने शील और पराक्रम के कारण भारतीय समाज में जैसी लोकपूजा उन्हें मिली वैसी संसार के अन्य किसी धार्मिक और सामाजिक जननेता को शायद ही मिली हो। भारतीय समाज में उन्होंने जीवन का जो आदर्श रखा ,स्नेह और सेवा के जिस पथ का अनुगमन किया उसका महत्व आज भी समूचे भारत में अक्षुण्ण बना हुआ है। वे भारतीय जीवन दर्शन और भारतीय संस्कृति के तथा लोक विश्वास के सच्चे प्रतीक के रुप में उल्लखित है। देखा यह जाता है कि हमारे पूर्चवर्ती विद्वानों ने राम को अलोकिक या आध्यात्मिक दृष्टि से अधिक देखा है। लौकिक या मानवीय दृष्टि से कम ,जबकि तुलसी के राम में हमे अलौकिक तथा लौकिक दोनो शक्तियों का समन्वित रुप मिलता है। इसी संदर्भ में विद्वान प्रेमशंकरजी का मत है कि ‘‘वे नाना विधि करम‘‘ करते है, पुरुष भी हैं- पर शीलवान् ,मर्यादामय-मर्यादा पुरुषेात्तम, विनयपत्रिका में तुलसी जिस आराध्य के प्रंति समर्पित होते है, वह परमेश्वर है, पर अपनी लीलाओं में मनुष्य भी । यदि ऐसा न होता तो भारतीय जन उसकी आस्था में रुचि क्यों लेते।2


Cite this article:
श्रीकान्त शरण पाण्डेय. मर्यादा पुरुषोत्तमराम लोक विश्वास के प्रतीक. Int. J. Rev. & Res. Social Sci. 3(1): Jan. – Mar. 2015; Page 37-39.

Cite(Electronic):
श्रीकान्त शरण पाण्डेय. मर्यादा पुरुषोत्तमराम लोक विश्वास के प्रतीक. Int. J. Rev. & Res. Social Sci. 3(1): Jan. – Mar. 2015; Page 37-39.   Available on: https://ijrrssonline.in/AbstractView.aspx?PID=2015-3-1-9


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