ABSTRACT:
जहां तक दलित साहित्य की अवधारणा का सवाल है तो इस संबंध में आज भी दलित साहित्यकारों एवं गैरदलित साहित्यकारों में कशमकश जारी है । दरअसल, दलित साहित्यकार आज भी मानते है कि दलितों की पीड़ा का आख्यान दलित ही कर सकता है क्योंकि ‘जाके पांव न फटे बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई’, लेकिन गैरदलित लेखकां का मानना है कि बिना बिवाई फटे भी उसके दुःख-दर्द और पीड़ा को महसूस किया जा सकता है और सहानुभूतिपूर्वक उसका वर्णन भी किया जा सकता है । यानी स्वानुभूति और सहानुभूति का द्वंद्व आज भी जारी है । मशहूर माक्र्सवादी आलोचक डाॅ. नामवर सिंह ने लोकतंत्र की परिभाषा ‘आॅफद पीपुल’ बाई द पीपुल एण्ड फाॅर द पीपुल’ की तर्ज पर स्वीकार किया है कि दलित साहित्य वह है जो दलितों द्वारा, दलितों के बारे में और दलितों के लिए लिखा गया है जो केवल अंबेडकरवाद से प्रभावित है, उसमें न गांधीवाद की मिलावट है और न ही माक्र्सवाद की । लेकिन दूसरे माक्र्सवादी आलोचक डाॅ. मैनेजर पांडेय नामवर सिंह से कुछ भिन्न मत रखते हैं ।
Cite this article:
बृजेन्द्र पाण्डेय. दलित साहित्य की अवधारणा और हिन्दी साहित्य. Int. J. Rev. & Res. Social Sci. 3(2): April- June. 2015; Page 94-99