ABSTRACT:
जीवन तथा जगत के विशय में साहित्यकार एक विचारधारा को लेकर चलता है और वह विचारधारा समय के अनुरूप परिवर्तित भी होती है। सामाजिक विचारधारा को उतना ही प्राचीन कहा जा सकता है, जितना कि समाज को। सामाजिक विचार एक व्यक्ति का भी हो सकता है और समूह, जाति, दल अथवा राश्ट्र का। अपने समय की परिस्थितियों से प्रभावित होकर साहित्यकार अपनी कृतियों को नयी दिशा देते है। अलका सरावगी ने समकालीन सामाजिक आयाम को अपने उपन्यासों मे सामाजिक चेतना के उत्कर्श के रूप में स्थान दिया है। जिसमें व्यक्ति अपनी व्यक्तित्व खोये बिना व्यापक रूप से सामाजिक चेतना के संदर्भ को स्वीकार कर अपने को संक्रमण काल से बाहर निकालने का प्रयत्न करे। इस उद्देष्य को लेकर अलका सरावगी आज की समकालीन शक्तिों से समाज को जागरूक कर उसे प्रेरणादायक मार्ग की ओर अग्रसर करती है।
पिछले कुछ दशकों से बदलते युग की आवष्यकताओं के कारण सामाजिक परिवेश, सामाजिक मूल्य एवं सामाजिक जीवन में व्यापक परिवर्तन दृष्टिगत होता है। अलका सरावगी ने अपने समग्र उपन्यासों में सामाजिक जीवन और परिवर्तनशील मानव मूल्यों की गाथा को समाहित किया है। अपने उपन्यासों में समसामायिक यथार्थ को चित्रित करते हुुए, मध्यमवर्गीय समाज की समस्याओं के साथ-साथ रूढ़िगत परम्पराओं के विद्यटन को स्वर दिया है। उनके कलिकथाः वाया बाइपास से लेकर जानकीदास, तेजपाल मेन्शन तक के उपन्यासों में सामाजिक जीवन की झलक मिलती है। स्वतंत्रता के पूर्व के सामाजिक जीवन एवं उसकी दशाओं को दर्शाया है तो वही स्वतंत्र्योतर सामाजिक चेतना के साथ आज के समकालीन समाज की विडम्बनाओं को व्यापक रूप में अभिव्यक्त किया है।
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शिप्रा बेग, अलका श्रीवास्तव. अलका सरावगी के उपन्यासों में सामाजिक चेतना. Int. J. Rev. and Res. Social Sci. 4(4): Oct.- Dec., 2016; Page 229-232.
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शिप्रा बेग, अलका श्रीवास्तव. अलका सरावगी के उपन्यासों में सामाजिक चेतना. Int. J. Rev. and Res. Social Sci. 4(4): Oct.- Dec., 2016; Page 229-232. Available on: https://ijrrssonline.in/AbstractView.aspx?PID=2016-4-4-7