ABSTRACT:
हमारे दश्ेा में कमजोर एवं वंचित समूहों को संवैधानिक शब्दावली में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति कहा गया है। इन दोनो श्रेणियों का अनुसूचित इसलिये कहा जाता है क्योंकि इन जातियों का संविधान की धारा के अन्तर्गत उल्लेख किया गया है। 1‘‘अनुसूचित जातियों का उद्भव प्राचीन हिन्दू और सनातन धर्म की वर्ण व्यवस्था से हुआ है। प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद के अनुसार अनुसूचित जातियांे की उत्पत्ति का आधार वर्ण व्यवस्था मे निहित बतलाया गया हे। हिन्दू वर्ण व्यवस्था के अनुसार हिन्दू समाज को चार वर्गो में विभाजित किया गया है। प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद के अनुसार श्रम-विभाजन के सिद्धांत के आधार पर हिन्दू समाज को चार भागों - ब्राह्यण, क्षत्रिय, वैष्य और शूद्र जातियों में बांटा गया है। मनुस्मृति के अनुसार ब्राह्यण वर्ग जो सर्वश्रेष्ठ जाति का है सर्वोपरि देवता के मुख से, क्ष्त्रिय उनके भुजा से, वैश्य उनके उदर से ओर शूद्र (ईश्वर) के पैर से निर्मित हुये है। शूद्र जाति का मुख्य कार्य समाज के उच्च तीनो वर्गो की सेवा करना एवं अन्य तुच्छ कार्यो को करने तक सीमित किया गया था।’’1
2‘‘आधुनिक काल में अनुसूचित जाति शब्द का प्रयोग पहले ‘साइमन कमीशन’ ने 1927 मे किया। अंग्रेजी शासनकाल में अनुसूचित जातियों के लिये सामान्यतया दलित वर्ग का प्रयोग किया जाता था। कहीं-कहीं इन्हें बहिष्कृत अपृष्य या बाहरी जातियाॅं भी कहा जाता था। हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाॅंधी ने इन्हें हरिजन (ईश्वर की संतान) कहा। भारत शासन अधिनियम 1935 में जो अब हमारे संविधान का अंग हैं, इन अछूत जातियों को अनुसूचित जातियाॅं कहा गया है। भारतीय संविधान के निर्माता डाॅ. भीमराव अंबेडकर को सही मायनों में अनुसूचित जातियों का मसीहा कहा जाता है, जिनके अथक विशिष्ट प्रयासों से ही भारतीय संविधान में ही छुआछूत को अपराध माना गया है एवं संसद राज्य विधानसभाओं तथा शासकीय सेवाओं में अनुसूचित जाति एवं जनजाति वर्गो के आरक्षण के लिये विशेष प्रावधानों को सम्मिलित किया गया है।’’2
Cite this article:
Dr Sunita Jain. अनुसूचित जाति एवं जनजाति की आर्थिक स्थिति का समीक्षात्मक अध्ययन
(दमोह जिले के विशेष सन्दर्भ में).
Int. J. Rev. and Res. Social Sci. 4(4): Oct.- Dec., 2016; Page 237-242
Cite(Electronic):
Dr Sunita Jain. अनुसूचित जाति एवं जनजाति की आर्थिक स्थिति का समीक्षात्मक अध्ययन
(दमोह जिले के विशेष सन्दर्भ में).
Int. J. Rev. and Res. Social Sci. 4(4): Oct.- Dec., 2016; Page 237-242 Available on: https://ijrrssonline.in/AbstractView.aspx?PID=2016-4-4-9