ABSTRACT:
मानव से समाज है और समाज से भाषा या यह भी कह सकते हैं कि मनुष्य की भाषा परिवार से समाज तक कायम है। इस समाजभाषा को हम श्रीलाल शुक्ल के पहला पड़ाव उपन्यास से बेहतर तरीके समझ सकते हैं। पहला पड़ाव को एक सामाजिक उपन्यास कहना बेहतर होगा, क्योंकि श्री शुक्ल ने इस उपन्यास में रोजी-रोटी के लिए पलायन पर जाने वाले दिहाड़ी मजदूरों के जीवन का एक जीवंत चित्रण किया है। शुक्ल ने इस उपन्यास में छत्तीसगढ़ के बिलासपुर, दुर्ग संभाग से आने वाले मजदूरों को केन्द्र बिंदु में रहकर उनके सामाजिक जीवन को समाज के सामने लाने का प्रयास किया है। समाज के मजदूर, जाति-वर्ग, मालिक वर्ग और बंधुआ जीवन जीने वाले लोगों की संघर्षगाथा पहला पड़ाव में जीवन का ठहराव भी है, दर्द भी और घाव भी है। उपन्यास का सामाजिक पक्ष बेहद मजबूत है और इसमें हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी, सहित क्षेत्रीय भाषा भोजपूरी और छत्तीसगढ़ी के भाषायी तत्व विद्यमान है।
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वैभव कुमार पाण्डेय, आभा तिवारी. श्रीलाल शुक्ल के पहला पड़ाव का समाजभाषा-वैज्ञानिक अध्ययन. Int. J. Rev. and Res. Social Sci. 2017; 5(4):193-196 .
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वैभव कुमार पाण्डेय, आभा तिवारी. श्रीलाल शुक्ल के पहला पड़ाव का समाजभाषा-वैज्ञानिक अध्ययन. Int. J. Rev. and Res. Social Sci. 2017; 5(4):193-196 . Available on: https://ijrrssonline.in/AbstractView.aspx?PID=2017-5-4-2
संदर्भ सूचीः
1 श्रीलाल शुक्ल: पहला पड़ाव; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1987 पृष्ठ संख्या- 09, 13, 58
2 डॉ. भोलानाथ तिवारी एवं मुकुल प्रियदर्शनी: हिन्दी भाषा की सामाजिक भूमिका; दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा मद्रास प्रकाशक, लेख: मुकुल प्रियदर्शनी, भाषा और समाज का सहसम्बंध, प्रमथ संस्करण, पृष्ठ 31
3 डॉ. रवीन्द्र नाथ श्रीवास्तव: हिन्दी भाषा का समाजशास्त्र; पृष्ठ, 69
4 वान्द्रियेज ‘अनुः जगवंश किशोर बलवीर’: भाषा इतिहास की भाषा वैज्ञानिक भूमिका, हिंदी समिति, लखनऊ, 1966, पृ. 12