ABSTRACT:
लोकतांत्रिक समस्याओं तथा बढ़ती हुई कीमतों और बेरोजगारी को लेकर हमेशा हम न्यायपालिका से हस्तक्षेप की अपेक्षा करते है, जबकि न्यायालय स्वयं भी इस प्रभाव से ग्रसित हैं, पर सवाल यह है कि क्या न्यायालय के आदेश मात्र से इस तरह की कठिनाइयों एवं लोकतांत्रिक समस्याओं से निजात पाया जा सकता है, क्या अदालतें देश की महंगाई, भ्रष्टाचार और कानून अव्यवस्था को लेकर विधायिका को बर्खास्त कर स्वयं को विधायिका बना सकती है। परन्तु यह कटु सत्य है कि संविधान में विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका की भूमिकायें निश्चित हैं, जबकि कई मामलों में न्यायपालिका की पूर्णपीठ ने यह स्वीकार कर लिया है कि न्यायालयों को आदेश पारित करते समय स्वयं को अधिकार एवं दायित्वों के प्रति सजग रहना चाहिये, अन्यथा बनी बनायी संवैधानिक व्यवस्था पर टकराव पैदा हो सकते हैं। दरअसल विधायिका व कार्यपालिका की कार्यप्रणाली से तंग आकर लोग न्यायालय की शरण में जाते हैं और अपेक्षा करते हैं कि उन्हें अदालतें न्याय दिलाये। आज देश की अदालतों में तीन करोड़ मुकदमें लंबित है और उसकी संख्या कम होने के बजाय बढ़ती जा रही है। इसका अर्थ है कि लोकतंत्र का हर व्यक्ति न्याय के अपने हक के प्रति सजग है, वहीं दूसरा अर्थ यह है कि देश में न्याय मिल ही नहीं रहा है।
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अलेख कुमार साहू, ए.ए. खान. भारतीय प्रजातंत्र व न्यायपालिका. Int. J. Rev. and Res. Social Sci. 4(2): April - June, 2016; Page 112-114.
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अलेख कुमार साहू, ए.ए. खान. भारतीय प्रजातंत्र व न्यायपालिका. Int. J. Rev. and Res. Social Sci. 4(2): April - June, 2016; Page 112-114. Available on: https://ijrrssonline.in/AbstractView.aspx?PID=2016-4-2-11